सोनिया के रायबरेली छोड़ने से अच्छा संदेश नहीं गया

राजनीति में प्रतीकों का बहुत महत्व होता है। नेता अपनी बॉडी लैग्वेंज, संबोधन और बयानबाजी से अपने समर्थकों, साथी नेताओं और आमजन को समय-समय पर संदेश देते रहते हैं। पिछले दो तीन महीने  में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसद से लेकर सार्वजनिक मंचों पर दिये भाषणों पर ध्यान दें तो, वह तीसरी बार सरकार बनाने का दावा पूरे दमखम के साथ करते हैं। जब वह यह कहते हैं कि जब तीसरी बार हमारी सरकार बनेंगी, तो उनका आत्म-विश्वास सातवें आसमान पर होता है। वहीं विपक्ष की बड़ी और देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बात करें तो उनके आला नेताओं के बयानों में भारी निराशा और हताशा अनुभव होती है। कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में भारी निराशा का माहौल है। आम चुनाव सिर पर है, और पार्टी के आला नेता राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में व्यस्त है। इसी से अंदाज़ा लग जाता है कि पार्टी का आलाकमान चुनाव को लेकर कितना गंभीर है। रही सही कसर पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के राज्यसभा के नामांकन ने पूरी कर दी है। संसद को सर्वाधिक 80 सीटें देने वाले उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से सोनिया गांधी इस बार चुनाव लड़ने का साहस बटोर नहीं पाई। हवाला स्वास्थ्य कारणों का दिया गया है, परन्तु ज्यादा बड़ा खतरा पराजय की संभावना का है। उनका रायबरेली को छोड़ना महत्वपूर्ण फैसला है। इसका प्रतीकात्मक असर कांग्रेस की पूरी राजनीति पर नज़र आएगा। संभव यह भी है कि परिवार की एक और सदस्य प्रियंका गांधी को इस सीट से उतारा जाए। राहुल गांधी शायद अमेठी और वायनाड से फिर लड़ें, परन्तु सोनिया गांधी दो जगह से लड़ती, तो मोदी के तंज़ उन्हें सुनने पड़ते। सोनिया गांधी के लोकसभा चुनाव न लड़ने की वजह बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य कारणों को बताया जा है। अगर उम्र बढ़ रही है या स्वास्थ्य खराब है तो राजनीति से संन्यास लेना चाहिए या फिर राज्यसभा से संसद जाने से उम्र कम हो जाएगी या सेहत ठीक हो जाएगी?
रायबरेली सीट पर कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन 1996 और 1998 के चुनाव में था। तब उसे 10 फीसदी से भी कम वोट मिले थे, लेकिन 1999 के चुनाव से उसका वोट शेयर फिर बढ़ने लगा। इस चुनाव में राजीव और सोनिया के करीबी गांधी परिवार के वफादार सतीश शर्मा यहां से चुनाव लड़े थे और जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे। 2014 से पहले तक रायबरेली में कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हुआ करती थीं, लेकिन 2014 के बाद कहानी बदल गई। सपा-बसपा को पीछे धकेल भाजपा मुख्य प्रतिद्वंदी बन गई। 2014 के चुनाव में भाजपा उप-विजेता थी। 2014 में जहां भाजपा ने 21.1 फीसदी वोट हासिल किये तो 2019 में 38.7 फीसदी वोट अपने नाम किये। रायबरेली लोकसभा सीट पर कांग्रेस भले ही अच्छा प्रदर्शन करती रही हो, लेकिन वर्तमान में विधानसभा क्षेत्रों में कहानी अलग रही है।
2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस न केवल रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र के सभी 5 विधानसभा क्षेत्रों में हार गई, बल्कि इन 5 में से 4 में तीसरे और एक में चौथे स्थान पर रही। इनमें से 4 सीटों पर सपा ने जीत हासिल की, और एक पर भाजपा ने। 5 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को केवल 13.2 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ, जो कि सपा के 37.6 प्रतिशत और भाजपा के 29.8 प्रतिशत से बहुत कम था। आपको बता दें कि 2022 के विधानसभा चुनाव में पूरे राज्य में पार्टी को सिर्फ 2 सीट और 2.3 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे। 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस और भाजपा ने रायबरेली लोकसभा सीट की 2-2 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि सपा ने एक सीट जीती थी। तब कांग्रेस ने सभी क्षेत्रों में 31.2 फीसदी के साथ सबसे अधिक वोट शेयर हासिल किया था, उसके बाद भाजपा 27.8 फीसदी वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर थी, लेकिन 2017 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कुल सीटों की संख्या बहुत निराशाजनक थी। कुल 7 सीटें हासिल की थीं और 6.2 फीसदी वोट शेयर अपने नाम किया था। 
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने गोविंद वल्लभ पंत, संपूर्णानंद, चंद्रभानु गुप्ता, सुचेता कृपलानी जैसे मुख्यमंत्री भी दिए हैं। कमलापति त्रिपाठी, हेमवंती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी भी प्रभावशाली मुख्यमंत्री रहे। हालांकि 1989 में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस का कभी मुख्यमंत्री नहीं रहा। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को भारी बहुमत मिला था। उस वक्त 85 सीटों पर लड़ने वाली देश की इस सबसे पुरानी पार्टी को 83 सीटें मिली थीं। 1984 के बाद उत्तर प्रदेश में लगातार कांग्रेस का जनाधार गिरा है। पिछले लोकसभा चुनावों में इसका वोट प्रतिशत सात रह गया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई।
वर्तमान में राहुल और प्रियंका के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को उत्तर प्रदेश में खोई हुई साख वापस लौटाने की है। माना जाता है कि केंद्र का रास्ता यहीं से होकर जाता है। कई जिलों में कोई कमेटी नहीं होने से पार्टी तंत्र खस्ताहाल है। मतदाताओं-कार्यकर्ताओं पर समान रूप से पार्टी की पकड़ ढीली है। पार्टी को पुनर्जीवित करने वाले किसी बड़े चेहरे की कमी भी एक वजह है। राजनीति के जानकरों का मानना है कि सोनिया के रायबरेली सीट छोड़ने से उत्तर प्रदेश ही नहीं देश भर में यह संदेश गया है कि कांग्रेस अपने गढ़ में ही चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पा रही है। जब किसी पार्टी का सर्वोच्च नेता अपने गढ़ से चुनाव लड़ने का साहस न बटोर पा रहा हो तो, बाकी पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोबल और उत्साह कम हो जाता है। स्थिति को भांपते हुए सोनिया गांधी ने रायबरेली वासियों को संदेश भेजने की औपचारिकता निभाई है, लेकिन सीट छोड़ने से जो संदेश गया है, उसकी प्रतिपूर्ति जज़्बाती संदेश से नहीं हो सकती। रायबरेली सीट से प्रियंका के चुनाव लड़ने की चर्चा है, लेकिन उनकी राह भी इतनी आसान नहीं दिखाई देती।