हिमाचल का राजनीतिक संकट

राज्यसभा की एक सीट के चुनाव के मुद्दे को लेकर जिस तरह की इस पहाड़ी राज्य में राजनीतिक जंग छिड़ी है, उसे कई पक्षों से देखा जा रहा है। इस मामले पर बड़े-छोटे कांग्रेसी नेताओं का नाराज़ होना तो समझ आता है परन्तु इस संबंध में कई प्रतिक्रिया-दर-प्रतिक्रियाएं भी सामने आ रही हैं। यह प्रदेश देश के कुछ राज्यों में से एक है, जहां पिछले चुनावों के दौरान कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ था। चुनावों के समय भी प्रदेश कांग्रेस बटी हुई दिखाई देती थी। इसके गुटों में अक्सर बहसबाज़ी होती रहती थी तथा तनाव बना रहता था, परन्तु इस के बावजूद प्रदेश की 68 सीटों में से कांग्रेस को 40, भाजपा को 25 सीटें मिलीं एवं 3 निर्दलीय विधायक जीते थे। कांग्रेस पार्टी की ओर से सुखविन्द्र सुक्खू को मुख्यमंत्री घोषित किया गया था, जबकि पार्टी के कुछ दूसरे मज़बूत नेता वीरभद्र सिंह गुट को भी मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था, परन्तु वीरभद्र सिंह के बाद उनका बेटा विक्रमादित्य सिंह इससे सन्तुष्ट नहीं हुए थे।
मुख्यमंत्री ने भी उनके गुट को मनाने में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। विगत लम्बी अवधि से केन्द्र में शासन कर रही भाजपा ने देश भर में अपने विरोधियों को हताश करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। उसकी नीति राज्यों में विरोधी पार्टियों को कमज़ोर करने की रही है। इससे भी आगे वह यत्न करती रही है कि राज्यों में विरोधी पार्टियों की सरकारों में दरार पैदा करके उन्हें तोड़ दिया जाये। हम विरोधियों के विरुद्ध भाजपा द्वारा अपनाई गई इस राजनीतिक रणनीति संबंधी तो ज्यादा कुछ नहीं कह सकते परन्तु पार्टियों के भीतर राजनीतिक सदाचार ज़रूर बना रहना चाहिए। यदि यह खत्म हो गया तो देश में लोकतांत्रिक भावना का भोग पड़ जाएगा। हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा द्वारा ऐसी शातिर चाल चली गई है। यदि चुनावों के समय विधायकों को तोड़ कर अपने पक्ष में कर लिया जाये एवं 40 के मुकाबले में 25 सीटों वाली भाजपा यह चुनाव जीत जाये तो इसे राजनीतिक अवसरवादिता ही कहा जा सकता है। इस संबंध में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा है कि लोकतंत्र में आम जनता को अपनी सरकार चुनने का अधिकार है। हिमाचल प्रदेश के लोगों ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किया तथा स्पष्ट बहुमत वाली कांग्रेस बनाई थी, लेकिन भाजपा धन के बल पर, एजेंसियों की ताकत एवं केन्द्रीय सत्ता का दुरुपयोग करके हिमाचल वासियों के इस अधिकार को कुचलना चाहती है।
नि:संदेह ऐसी ़खरीद-ओ-़फरोख़्त को उचित नहीं ठहराया जा सकता परन्तु दूसरी ओर ऐसे संकट में स्व. वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह ने जो लोक निर्माण विभाग के मंत्री हैं, ने पहले त्याग-पत्र देने की घोषणा की तथा बाद में उनकी ओर से त्याग-पत्र वापिस लेने का समाचार भी आया है, यह आरोप लगाया है कि चाहे पिछले चुनाव उनके स्वर्गीय पिता वीरभद्र सिंह के नाम पर लड़े गए थे, परन्तु मुख्यमंत्री द्वारा उनको एवं उनके साथियों को पूरी तरह दृष्टिविगत किया जाता रहा है। इससे पार्टी में भारी असन्तोष पैदा हो गया है। इसी स्थिति के संबंध में केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, जिनका संबंध हिमाचल प्रदेश से है, ने भी कहा है कि इस राज्य में यदि कांग्रेस बिखरती दिखाई दे रही है तो इसके लिए ज़िम्मेवार भी वह स्वयं है। यह भी कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस विधायकों को अपनी ही सरकार से विश्वास उठ गया है। ‘झूठे वायदे, गारंटियां, आपस में अविश्वास’ आदि ने इस सत्तारूढ़ पार्टी की स्थिति ऐसी बना दी है कि मात्र 14 मास के भीतर ही यह बिखर गई है। नि:संदेह भाजपा की रणनीति के साथ-साथ यदि कांग्रेस बिखर रही है तो इसमें कांग्रेस पार्टी का स्थानीय एवं राष्ट्रीय नेतृत्व भी अपनी विफलता से इन्कार नहीं कर सकता।
आगामी हालात चाहे कुछ भी हों, परन्तु देश में लोकतंत्र की मज़बूती के लिए संवैधानिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा किया जाना आवश्यक है। सिर्फ कुर्सी की दौड़ ही देश को स्वस्थ राजनीति नहीं दे सकती। ऐसा दृष्टिकोण जहां देश के दशकों से बनाये गये ढांचे के लिए ़खतरनाक सिद्ध हो सकता है, वहीं बनाया गया ऐसा माहौल देश के हर पक्ष से उचित विकास में भी बड़ा अवरोध साबित होगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द