नई दुनिया का नया प़ैगाम

ज़िन्दगी बाज़ार हो गई और नैतिकता की बात करना एक आडम्बर। जो आडम्बर है वह जीवन में उतरता नहीं। नैतिकता एक ऐसा दकियानूसी सच है, जिसे सुविधा अनुसार प्रदर्शित कर सकते हो, अपने महिमा मण्डन के वक्तव्य के साथ। 
‘जो बेचते थे दर्द-ए-दिल वह दुकां अपनी बढ़ा गये।’ अब संवादों में जीना हो गया। इसलिये अब दर्द दिल का नहीं जेब का है। जेब आपकी भरी, जिन्हें दर्द मिल रहा था, वे तो झुग्गी झोंपड़ियों से तरक्की करके फुटपाथ पर आ गये। फुटपाथ पर जीने वालों के लिए इनके दर्द के इलाज के लिए आजकल मरहम की दुकान खोलने की ज़रूरत नहीं, संवादों की दुकान खोलने से ही काम चल जायेगा। यह संवाद जितनी सपनीली उड़ान भर सकें उतना ही अच्छा।
मौलिकता का अभाव हो गया। मौलिक संवाद नहीं घड़ सकते तो अन्तस तक उतर कर कायाकल्प कर दें, तो आओ जुमलों का सहारा लें। जुमलों का इस्तेमाल बहुत आसान होता है। जुमला हवा में उड़ता है। जल्दी नारा बन जाता है। अपने लिये ज़िन्दाबाद बटोर सकता है। फुटपाथ पर जीते लोगों को शोभा-यात्रा में तबदील कर देता है। इस शोभा-यात्रा की शुरुआत बिकाऊ लोगों से हो जाती है। फिर जुड़ते हैं इसमें वे फुटपाथी लोग जो किसी नई अनुकम्पा की तलाश में आपका चेहरा निहारते हैं।
अनुकम्पा की बन्दर बांट भी अब इस नई दुनिया का सच जान गई है। इस दुनिया के मीरे कारवां बन जाने के बहुत से लाभ हैं। सबसे पहले जन-सेवा जैसे कठिन काम को अपनाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह आज की शार्टकट संस्कृति के चौखट में फिट नहीं बैठती। उसकी जगह जन-कल्याण ने ले ली है, जो कल्याण करने वाले को आदर्श पुरुष, और कल्याण प्राप्त करने वाले को मुफ्तखोर बना देती है। मुफ्तखोरी एक ऐसी नई आकर्षक सांस्कृतिक पैदाइश है, जिसमें आम के आम और गुठलियों के दाम हैं। वैसे अब इसका भी अवमूल्यन होता जा रहा है। कभी यह वायदा करती थी, कि किसी मधुर सुबह आप उठेंगे और अपने खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये पाओगे। इन्हें पाने का इंतज़ार लम्बा हो गया, तो अब यह अनुकम्पा और उदारता वर्गीय चेतना में तबदील हो गई है।
ज़माना नारी जागरण, नारी सशक्तिकरण का है। लिंग भेद न करते हुए नारी पुरुष समानता का है, इसलिये अब उनमें हज़ार से पन्द्रह सौ रुपया महीना बांटने की बातें होने लगी हैं। उन्हें बसों में मुफ्त सफर करने की इजाज़त दे दो, ताकि सार्वजनिक क्षेत्र का परिवहन अनुदान के बल पर चलने लगे, और निजी क्षेत्र पर कुछ ऐसी छत्रछाया हो जाये, कि आर्थिक विकास के तोज़ आंकड़े सब को चुंधिया दें। इसमें जिसने गद्दी प्राप्त करने की दौड़ में इसे बांटा, वह तो सत्य पुरुष और आदर्श बन गया। अपना इहलोक अपनी झोंपड़ी को महल बना और परलोक चित्रगुप्त के खाते में दया धर्म की प्रविष्टियों से सुधार गया। इस बीच देश की कार्य नीति, उद्यम की प्रेरणा, अध्यवसाय का धीरज, शोध के प्रति समर्पण खेल रहा है, तो क्या चिन्ता? हमने तो ‘जय जवान, जय किसान के साथ जय अनुसंधान’ का नया नारा दे दिया है। अजी ये नारे ही तो हैं जो आपकी धक्के खा चलती पैसेंजर ट्रेन को बुलेट ट्रेन में बदल देते हैं।
ट्रेन बुलेट हो या नहीं, उसका बुलेट हो जाने का भ्रम पैदा करना बहुत ज़रूरी है। आभासी दुनिया है, आजकल इसके आभासी उद्घाटन होते हैं, और आपके अपने कस्बाती या गंवई गांव के रेलवे स्टेशन में उनके आने के इंतज़ार की पौन से चौथाई सदी प्राप्त कर लेते हैं। आपको यह अवश्य मिलेगी, इसके वायदे चौथाई सदी के हो गये हैं। आपके घर चौखट तक चली आएगी, लेकिन इसके लिए अपने अन्दर पौन सदी तक जीने की क्षमता पैदा कर लीजिये।
इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं कर सकते, तो आप इसे अभी प्राप्त कर लेने का उत्सव अपने अन्दर जगा लीजिये। इस देश में जीने का अर्थ प्रायोजित उत्सव मनाना है। देखो, वह तो अब जीवन क्षेत्र से लेकर कला क्षेत्र तक चला आया। कलाकार से लेकर सही रचनाकार हो जाने की आवश्यकता ही क्या? अरे, अब तो सब कुछ जेब पर निर्भर करने लगा। आपने किताब लिखी है या लिखवा ली है, तो उसे आपके नाम से प्रकाशित करने की दुकानें खुल गई हैं जो मांग देख मौसमी डिस्काऊंट की घोषणा भी करने लगी हैं। पहले आपकी रचनाधर्मिता को सुरक्षित रखने के लिए बड़े-बड़े गोदाम आरक्षित किये जाते थे। अब ज़रूरत ही क्या? किताब इण्टरनेट की मैमोरी में रखो, और पचास कापी छाप कर बांट दो। लेखक अपने आप प्रायोजित गोष्ठी करवा के उसी में राष्ट्रीय घोषणा के साथ पुरस्कार प्राप्त कर लेगा। ‘पूत के पांव अब पालने में नहीं दिग दिगन्तो तक फैल गये हैं।’ चैट जीपीटी का ज़माना आ गया। मशीनें संवादों से लेकर नाटक तक उगल रही हैं, कला से लेकर राजनीति के क्षितिज तक। बस आप अपने लिए छदाम जुटाइये और स्थापित हो जाइये।