फिल्म विरासत फाउंडेशन और अभिनेत्री वहीदा रहमान

मैं तथा मेरी हमसफर अपनी आयु के दसवें दशक में प्रवेश कर चुके हैं। अब हमारा अस्पताल आना-जाना बढ़ गया है। खाली समय में मुद्दत से संभाल कर रखीं तस्वीरों तथा वस्तुओं को ढूंढ कर मित्र-प्यारों तथा उनके बाल-बच्चों को बांटते रहते हैं। हमसे उनकी संभाल रखना मुश्किल हो चुका है। यह बात अलग है ऐसा करने से यादों की पिटारी खुल जाती है। खुलती है तो खुली रहे। बच्चा लोगों ने सोचना है कि कौन-सी वस्तु कितने समय के लिए रखनी है और कैसे रखनी है।
इस प्रक्रिया में से निकलते हुए मीडिया ने बताया कि फिल्मी दुनिया वालों ने एक फिल्म विरासत फाऊंडेशन स्थापित कर रखी है, जहां अभिनेताओं की यादगारी वस्तुएं संभाल कर रखी जाती हैं। यह भी कि हाल ही में उन्होंने 86 वर्षीय वहीदा रहमान की वस्तुएं चुनी हैं। इस कार्य के लिए वह मुम्बई सागर के किनारे स्थित वहीदा रहमान के घर पहुंचे तो हैरान रह गए कि उन्होंने कितना कुछ संभाल कर रखा है। इस भावना से कि उसके नाती-पोते बड़े होकर उन्हें देख सकें। विरासती फाऊंडेशन को दान करने का विचार तब बना जब एक वर्ष पहले फाऊंडेशन द्वारा दिखाई गई ‘गाईड’ फिल्म देखने गई तो खचाखच भरे हॉल में दर्शकों की शांत मुद्रा ने हैरान कर दिया। यह भी कि बच्चे घर से स्थान पर फाऊंडेशन के आंगन में देख कर अधिक खुश होंगे। याद रहे कि वहीदा रहमान ने इस फिल्म के अतिरिक्त ‘चौधवी का चांद’, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, ‘कागज़ के फूल’ और ‘प्यास’ जैसी अत्यंत प्रसिद्ध फिल्मों में काम किया हुआ है। फिल्म विरासत फाऊंडेशन को दी गईं यादगारी वस्तुओं में  उसकी ओर से सी.आई.डी. (394) फिल्म के लिए 1956 में  उसकी मां की ओर से खरीदी साड़ी भी थी, जिसे देखते वह बच्चों की भांति भावुक हो गईं। 
वहीदा ने यह भी बताया कि शूटिंग के समय फिल्मों के डायरैक्टर कुछ भी कहते, वह अपने परिधान का स्वयं ध्यान रखतीं। बातों-बातों में उन्होंने ‘अम्रपाली’ (1966) फिल्म में वैजयंती माला द्वारा पहली पौशाक का ज़िक्र करते हुए यह भी कहा, ‘साड़ी से ऊपरी हिस्से को मनकों-मोतियों तथा गहनों से ढंकने का रिवाज़ 2500 वर्ष पहले की बात है, जब आम लोग भी आदिवासियों की भांति नंगे शरीर विचरण करते थे।’ अपनी शर्मिली वृत्ति बारे बोलते हुए उन्होंने यह भी बताया कि ‘काला बाज़ार’ फिल्म की शूटिंग के समय जब देव आनंद का पांव ऊंचे स्थान से फिसला तो उन्होंने अपनी साड़ी को रस्सा बना कर लटकाना था। उसे शर्म आ गई। मेरे मुंह से निकला, यह तो मैं नहीं करूंगी। वह भी खुले स्थान पर, सरेआम।’ सुन कर विजय आनंद बोले, ‘यहां मामला जिस्म दिखाने का नहीं, किसी की जान बचाने का है।’  
वस्त्रों के चयन की बात को आगे ले जाते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘आप कुछ भी पहन लीजिये, चाहे स्विमिंग सूट, परन्तु दिखावे के लिए नहीं, दिखावा फिज़ूल है।’ फिल्म विरासत फाऊंडेशन बनाने वालों की अधिक से अधिक प्रशंसा होनी चाहिए। काश! कोमल प्रतिभाओं वाले भी अपने बच्चों के लिए ऐसी संस्था स्थापित कर सकते। यह करते हुए भी कवि, चित्रकार तथा बुत्त निर्माता इतने सौभाग्यशाली नहीं कि किसी एक शहर के निवासी हो सकें। मेरी ओर से यह भावना रखना स्वाभाविक है। 
अंतिका
(मिज़र्ा गालिब) 
जिक्र उस परी वश का, 
और फिर ब्यां अपना,
बन गया रकीब आखिर,
 था जो गज़दां अपना।
मंज़र एक बुलंदी पर 
और हम बना लेते,
काश कि इधर होता, 
अर्श से मुकां अपना।
हम कहां के दाना थे, 
किस हुनर में यकता थे,
बेवस हुआ गालिब, 
दुश्मन आसमां अपना।