प्रेरक प्रसंग- निश्चल क्यों?

महात्मा बुद्ध के एक शिष्य वेश्या की गली से गुज़र रहे थे। वेश्या दरवाजे पर खड़ी थी और उसने उसका अभिवादन करते हुए बोली-‘हे भद्र पुरूष! मैं तुम्हें वर्षा ऋतु के चार माह अपने यहां बिताने को आमंत्रित करती हूं। क्या तुम्हें मेरा आमंत्रण स्वीकर है?’ 
शिष्य सोच में पड़ गया। फिर बोला-‘मैं तुम्हारा आमंत्रण ज़रूर स्वीकार करूंगा और चार माह रहने को भी आ जाऊंगा। किंतु इसके लिए मुझे बुद्ध की अनुमति लेनी होगी। इस बारे में मैं तुम्हें कल सूचित कर दूंगा।’ शिष्य की बात सुनकर वेश्या बोली- ‘यदि बुद्ध ने तुम्हें आज्ञा नहीं दी तो?’
शिष्य बोला मुझे पूर्ण विश्वास है कि बुद्ध तुम्हारे यहां चतुर्मास बिताने की आज्ञा ज़रूर देंगे।’
शिष्य ने बुद्ध के पास जाकर सारी बातें बतायी। 
बुद्ध मुस्कुराकर बोले - ‘इसमें आज्ञा लेने की क्या आवश्यकता है? जब उसने तुम्हें आने का निमंत्रण दिया है तो उसका आतिथ्य स्वीकर करो। इसमें घबराने की क्या बात है? संन्यासी होकर वेश्या से क्यों डरो?’ शिष्य बुद्ध की आज्ञा लेकर वेश्या के यहां चतुर्मास बिताने चला गया। वेश्या उसे जब जैसा भोजन कराती। वह नि:संकोच भोजन कर लेता। नाचती तो उसका नाच देख लेता। गाती तो उसका गाना सुन लेता। अर्धनग्न होकर नाचती तो भी देखता रहता। उसकी किसी क्रिया में न उसने कोई रस लिया और न अपना विचार प्रकट किया।  दो माह बीत गये। वेश्या को शिष्य के व्यवहार को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। एक दिन वह उसके पैरों में गिर गयी और बोली- ‘भद्र पुरूष! तुम इतना निश्चल क्यों हो, भला या बुरा कुछ तो अपना विचार प्रकट करो? बुरा कहोगे तो मैं कोई और रास्ता निकाल लूंगी।’
लेकिन वह निश्चल ही रहा। 
चतुर्मास बीतने के बाद जब वह लौटा, तो वह वेश्या भी भिक्षुणी के रूप में बुद्ध के सामने खड़ी थी ।

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