चीन के साथ ज़रूरी है ‘जैसे को तैसा’ का पलटवार

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा का बिल्कुल सही सुझाव है कि चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों का बार-बार नाम बदलने की हरकत का, ‘जैसे को तैसा’ जवाब देने के लिए हमें भी तिब्बत की दुगनी जगहों के नाम बदल देने चाहिए। गौरतलब है कि चीन ने सबसे पहले 2017 में अरुणाचल प्रदेश की 6 जगहों के नाम बदल दिए थे। इसके बाद उसने 2021 में 15 और 2023 में अरुणाचल प्रदेश की 11 और जगहों के नाम बदलकर उकसाऊ हरकत को अंजाम दिया था। इसे जारी रखते हुए उसने एक बार यही हरकत फिर से दोहरायी है और इस बार उसने अरुणाचल प्रदेश की 30 जगहों के नाम बदल दिए हैं। इस तरह चीन ने अब तक अरुआचल प्रदेश की कुल 62 जगहों के नाम बदल दिए है, इसके बदले में हमें तिब्बत की कम से कम 120 जगहों के नाम बदल देने चाहिये।
क्याेंकि जुबानी स्तर पर तो भारत साल 2017 से ही चीन की इस हरकत का कड़ा विरोध कर रहा है। लेकिन चीन इस मनोविज्ञान को भलीभांति समझता है कि भारत चाहे जितनी तल्खी से उसकी इस हरकत का विरोध करता हो, लेकिन सच्चाई यह भी है कि चीन की इस हरकत से हिंदुस्तान मनोवैज्ञानिक रूप से काफी उद्विग्न हो जाता है, चीन का वास्तव में भारत को बेचैन करना ही सबसे बड़ा मकसद है और वह नाम बदलने की इस हरकत के चलते अपने मकसद में कामयाब है। हम उसकी बार-बार नाम बदलने की इस नौटंकी से लगातार आहत रहते हैं। लेकिन अब हमें परेशान होने की जगह चीन को ज्यादा परेशान करने की रणनीति पर अमल करना चाहिए। अगर चीन नाम बदलने के इस मनोवैज्ञानिक हमले से बाज नहीं आ रहा और हमें भावनात्मक रूप से लगातार परेशान किए हुए हैं तो हमें समझना चाहिए कि वह ऐसा धोखे में नहीं, किसी उत्तेजना में नहीं बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत बहुत ठंडे दिमाग से ऐसा कर रहा है। 
आधुनिक मैडीकल साइंस कहती है किसी व्यक्ति को कमजोर करने का सबसे आसान तरीका है कि उसे मानसिक रूप से परेशान रखा जाए। यही बात किसी देश पर भी लागू होती है। खासकर भारत जैसे देशों पर जिनकी दुनिया में एक साख है। चीन बार-बार अरुणाचल प्रदेश की विभिन्न जगहों के नाम बदलकर कूटनीतिक मोर्चे पर हम पर घातक वार कर रहा है। इसलिए अब हमें भी उस पर ऐसा ही हमला करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 19वीं शताब्दी के पूर्व में कुछ रूसियों और तुर्कों ने चीन के मौजूदा झिंजियांग प्रांत के लिए पूर्वी तुर्किस्तान शब्द गढ़ा था और इसका इस्तेमाल करना शुरु कर दिया था। इससे चीन काफी तिलमिला गया था; क्योंकि उन दिनों पश्चिमी देश चीन के इस भू-भाग को चीनी तुर्किस्तान कहा करते थे। दरअसल वे चीनी तुर्किस्तान, मौजूदा दक्षिणी झिंजियांग में तारिम बेसिन इलाके को संबोधित करते हुए कहते थे या फिर समग्र रूप से मौजूदा झिंजियांग को ही पूर्वी तुर्किस्तान नाम दे दिया गया था। 
इससे चीन कूटनीतिक मोर्चे पर बहुत बेचैन हो गया था और बेहद आक्रामकता से इसका विरोध करके दुनिया को किसी न किसी तरह से मना लिया कि उसके इस हिस्से को पूर्वी तुर्किस्तान जैसे शब्द से संबोधित न किया जाए। आज हमें चाहिए कि हम चीन की अरुणाचल प्रदेश की विभिन्न जगहों के बार-बार नाम बदलने की हरकत को चुनौती देने के लिए तिब्बत के मशहूर शहरों ल्हासा, ग्यान्त्से और शिगात्से को नये नाम दे दें। इसी तरह हम इलाकों की तमाम छोटी बड़ी जगहों, नदियों, घाटियों और दूसरे लैंडमार्क के भी नाम बदल दें। हमारे लिए तो यह इसलिए भी संभव है, क्योंकि आज हम जिसे तिब्बत कहते हैं, वह शब्द दरअसल बौद्ध धर्म से निकला शब्द है और बौद्ध धर्म भारत में जन्मा है। चीन हमारे इस पलटवार पर सीधा हो जायेगा। क्योंकि आज भले तिब्बत को चीन ने पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना का स्वायत क्षेत्र मानता हो, लेकिन तिब्बत के साथ भारत के इतने गहरे रिश्ते हैं कि भारत अपने कहे गए को आराम से सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सही साबित कर सकता है। 
हमें जानना और मानना होगा कि तिब्बत चीन की दुखती रग है, जिसका रिमोट भारत चाहे तो अपने हाथ में ले सकता है। अगर हिंदुस्तान तिब्बत को स्वतंत्र कहना शुरु कर दे या तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने से इंकार कर दे जैसा कि 2005 के पहले लम्बे समय तक किया था, तो चीन रास्ते में आ जायेगा। भारत के लिए इस मामले में चीन को दबाव में लेना इसलिए आसान है, क्योंकि तिब्बत के हजारों लोग भारत में रह रहे हैं और उनका भारत में रहने का साफ संदेश है कि चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर रखा है, वैसे भी तिब्बतियों के सबसे प्रभावशाली और ताकतवर धर्मगुरु दलाई लामा भारत में ही रहते हैं और हर कोई जानता है कि चीन, दलाई लामा का विरोध करता है। वह तो किसी भी स्थिति में दलाई लामा को जिंदा ही नहीं देखना चाहता। ऐसे में अगर भारत दलाई लामा को हमेशा की तरह दिए गए सम्मान को कूटनीतिक तरीके से चीन की छाती में मूंग दलना जैसे बना दे, तब चीन को समझ में आयेगा कि भारत जैसे किसी शांत देश से पंगा लेने का कितना खतरनाक नतीजा हो सकता है। 
भारत के लिए यह करना इसलिए भी आसान है, क्योंकि कूटनीतिक विश्व परिदृश्य में भारत का सम्मान चीन से ज्यादा है। दुनिया के सारे बड़े देश और राजनीतिक संगठन भारत और चीन के मामले में भारत पर ही भरोसा करते हैं और भारत के साथ ही खड़े होना चाहते हैं। इसलिए चीन की हरकताें का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत को यह रणनीति अपनानी चाहिए। दरअसल चीन उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की आक्रामक रणनीति पर चल रहा है। भारत के साथ 3488 किलोमीटर की सरहद बांटने वाला चीन, जानबूझकर बार-बार अरुणाचल प्रदेश की विभिन्न जगहों के नाम बदलकर हमें इस उलझन में व्यस्त रखना चाहता है कि हम चीन की उन हरकतों को भुला दें या चाहकर भी ध्यान न दें, जिसके कारण 38000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा की हमारी जमीन को उसने, अक्साई चीन के रूप में कब्ज़ा कर रखा है और 5000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा की जमीन को पाकिस्तान ने चीन को दे रखा है। 
इस तरह देखा जाए तो चीन के पास हमारी करीब 43,180 वर्ग किलोमीटर की जमीन पहले से ही है। हम इस जमीन को वापस लेने के लिए ज्यादा मुखर न हों, चीन इसीलिए पहले से ही आक्रामक होकर ऐसी स्थितियां बना रहा है कि हम अपने इन कब्ज़ों की तरफ ध्यान ही न दें। चीन नि:संदेह दुनिया का ताकतवर देश है, लेकिन अगर कोई ताकतवर देश आपको अपनी चालाकी से हर समय नीचा दिखाने की कोशिश करे, तो उसके संबंध में किसी तरह की सहानुभूति नहीं रखनी चाहिए। चीन रह-रहकर यही कर रहा है। इसलिए हमें जितना जल्दी हो चीन के ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए और यह पत्थर तिब्बत के विभिन्न नाम ही हो सकते हैं, जिनके बदले जाने पर चीन तिलमिला जायेगा। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर