समान नागरिक संहिता पर बुरी तरह फंसी उत्तराखंड सरकार

उत्तराखण्ड की धामी सरकार द्वारा खास कर लोकसभा चुनाव को लेकर तैयार की गयी समान नागरिक संहिता (यूसीसी) स्वयं भारतीय जनता पार्टी के लिये मुसीबत बन गयी है। समानता के नाम पर बनायी गयी इस असमान संहिता को लेकर जो संवैधानिक प्रश्न उठ रहे हैं, वे तो अपनी जगह हैं ही, लेकिन अब इस संहिता में ‘निवासी’ की नयी कानूनी परिभाषा को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। विवाद भी एकदम भावनात्मक होने के कारण विपक्षियों ने उसे भाजपा के धार्मिक ऐजेंडे के तोड़ के रूप में थाम लिया है। 
धामी सरकार की ओर से यूसीसी में महज एक साल से उत्तराखण्ड में रह रहे व्यक्ति को राज्य का निवासी मान लिया गया है जबकि लोग 1950 से पहले से यहां रहने वाले को ही यहां का मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं ताकि प्रदेश में तरक्की के अवसरों पर पहला हक मूल निवासियों को मिल सके और पहाड़ के लोगों की अपनी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण बनाये रखी जा सके। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश काश्तकारी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1972 की धारा 118 की तर्ज पर भू-कानून की मांग उठ रही है ताकि धन्ना सेठ और राजनेता, नौकरशाह तथा माफिया की तिकड़ी लोगों की ज़मीनें बचाई जा सके। उत्तराखण्ड वासियों की सांस्कृतिक पहचान और गरीब पहाड़ियों की जमीनें बचाने को लेकर राज्य में मूल निवास और मज़बूत भू-कानून को लेकर जनता काफी समय से आन्दोलित है। 
केन्द्र द्वारा समानता के नाम पर धामी सरकार के जिस यूसीसी का ढोल सारे देश में पीटा जा रहा है, उसमें बहुत-से प्रावधान असंवैधानिक तो हैं ही लेकिन उसमें ‘निवासी’ को लेकर जो परिभाषा दी गयी है, उसने नया बवाल खड़ा कर दिया है और इस पर सत्तरूढ़ दल की ओर से कोई जवाब नहीं मिल रहा है। समान नागरिक संहिता उत्तराखण्ड, 2024 के प्रारंभिक अध्याय के क्रम संख्या 3 में विभिन्न प्रावधानों से संबंधित कानूनी परिभाषाएं दी गई हैं। इसी क्रम संख्या 3 के (ड) के खण्ड चतुर्थ (4) में प्रावधानित है कि ‘जो व्यक्ति कम से कम एक वर्ष से राज्य में निवास कर रहा है या राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की ऐसी योजना का लभार्थी है जो राज्य में लागू है, वह राज्य का निवासी माना जायेगा।’
कहां तो राज्यवासी पिछले 74 साल से उत्तराखण्ड में रहने वाले को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं और कहां धामी सरकार ने एक साल से राज्य में रहने वाले को ही कानूनन यहां का स्थायी बना दिया। ऐसा प्रावधान कर सरकार ने चुपके से मूल निवास की मांग को ठोकर मार दी। तो क्या एक साल से कोई विदेशी भी उत्तराखण्ड में रह रहा हो तो सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस सीमान्त राज्य में वह ‘निवासी’ मान लिया जायेगा? नेपाली आब्रजक जनसंख्या यहां आती जाती रहती है। तिब्बती लोग 1949 से देहरादून के कुछ क्षेत्रों में रहते हैं। इस संबंध में भी इस एक्ट में कोई स्पष्टीकरण नहीं है।  राज्य के गठन से 15 साल पूर्व यानी 1985 से उत्तराखण्ड में रह रहे लोगों को स्थायी निवासी मानने का शासनादेश प्रवृत है, लेकिन अब बाकायदा विधानसभा द्वारा पारित और भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून ने एक साल की समय सीमा को कानूनी जामा पहना दिया। अब जबकि लोग धामी सरकार की यूसीसी के प्रावधानों को पढ़ रहे हैं तो धार्मिक कारणों से खुश हो रहे आम लोग भी यूसीसी को धोखा मानने लगे हैं। जिस यूसीसी को भाजपा ने चुनावी हथियार बनाया है, वही हथियार प्रतिगामी बनने लगा है। इस गले की फांस को उतारने के लिये कहा जा रहा है कि यह प्रावधान केवल यूसीसी के लिये ही है जबकि एक्ट में ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। कानून के जानकारों के अनुसार पहली बार राज्य में निवासी शब्द को विधानसभा ने कानूनन परिभाषित किया है, इसलिये यह कानूनी प्रावधान गैर-उत्तराखण्डियों के लिए सरकारी नौकरियों से लेकर हर जगह काम आयेगा।
प्रदेशवासी जब मज़बूत भू-कानून की मांग कर रहे थे, तब राज्य सरकार कभी लैंड जिहाद और कभी मज़ार जिहाद के नाम पर लोगों का ध्यान भटका रही थी जबकि दूसरी ओर वही सरकार बिना मांगे 5 करोड़ के खर्च पर अनचाही समान नागरिक संहिता का मजमून बनवा रही थी। चूंकि नयी नागरिक संहिता पूरी तरह हिन्दू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम जैसे हिन्दू कानूनों के आधार पर बनी हुयी है जिसमें इसाई, पारसी, मुस्लिम और सिखों के नागरिक कानूनों को समाप्त कर दिया गया। यही नहीं समानता के नाम पर बनायी गयी संहिता में जनजातियों को यह सोच कर छोड़ दिया कि वे सभी हिन्दू हैं जबकि सन् 2011 की जनगणना में प्रदेश में लगभग 5 हज़ार ऐसे जनजातीय परिवार थे जो हिन्दू न हो कर मुस्लिम, इसाई और अन्य धर्मों में दर्ज थे।  अब तक उनकी संख्या कई हज़ार हो चुकी होगी। चूंकि यह संहिता अनुच्छेद 14 से लेकर 25 तक में दर्ज मौलिक अधिकारों की अनदेखी कर बनायी गयी है। इसलिये मामले का अदालत में जाना तय ही है और इसका भविष्य भी अनिश्चित है। (अदिति)