जीते जी अपना बंटवारा

बातें अजीब हैं, लेकिन बिल्कुल सच। एक बूढ़ा आदमी मरने से पहले अपनी उम्र भर की कमाई इसलिये जीते जी अपने वारिसों में बांट गया, क्योंकि उन्हें उपहार दे दूंगा, तो अभी चल जाएगा। बाद का कायदा कानून ऐसा है, या इन्सानी फितरत ऐसी, कि भ्रष्टाचार से गन्धाया हुआ माहौल किसी के पल्ले कुछ पड़ने नहीं देगा। उसकी अपनी इस वंचित प्रवंचित माहौल में जीते रहने की आदत सब रिश्ते भूल कर उसे नायक से खलनायक बना देगी। कम से कम अपनी आंखों के सामने उसे अपने हिसाब से जीने का मौका देकर वह अपने आखिरी ख्बाव से तो सतयुग रख कर मर सकेगा।
लेकिन बेहतर दिनों से लेकर सतयुग की वापसी की कल्पना एक ऐसी वायवीय कल्पना है कि जिसका सपना भी आजकल लोग नहीं देखते। उस बूढ़े ने अपनी छोटी-मोटी विरासत तो अपने बच्चों में बांट दी, लेकिन उसके साथ ही उन्हें एक ऐसी भूमि भी दे गया, कि जिसमें उनकी ज़िन्दगी की मरुभूमि में इसके बाद किसी अगले नखलिस्तान की तलाश केवल शार्टकट संस्कृति से होगी। आजकल नाम बदल कर अपूर्णता को पूर्ण और विकलांगता को समर्थ बना देने का चलन हो गया है, इसलिए जिस व्यवहार की सफलता हेरा-फेरी पर खड़ी है, उसे हम शार्टकट संस्कृति कह कर सांस्कृतिक बना देने का प्रयास कर रहे हैं।
उस बूढ़े ने भी शायद यही सोचा होगा कि चलो जो थोड़ा बहुत कमाया है, उसे अपने वारिसों को दे दें, ताकि वे लालफीताशाही या दफ्तरशाही के जबड़ों से बच सकें। कैसी अजब बात है कि अपने आपको  श्रेष्ठतम देश कहने वाला यह देश, जो विकास दर में ही सर्वश्रेष्ठ नहीं, बल्कि दुनिया का गुरदेव कहलाना चाहता है, क्योंकि उसके पौराणिक कामनालयों और सांस्कृतिक पठन ग्रहों में ऐसे-ऐसे आदर्श ग्रन्थ रखे हैं, जो उसे दुनिया का गुरुदेव बना सकते हैं। सच कहें तो उस देश की बड़ी आबादी को रोटी चाहे हम लंगर से या सस्ते राशन से खिलाने का रिकार्ड बनाते रहें, लेकिन हमारी किताबें दुनिया में जीने के लिए सबसे उत्तम और सर्वश्रेष्ठ नीतियां परोसती हैं। लेकिन जैसे पुस्तक संस्कृति मर गई और उसे हम डिजिटल ताकत के साथ किंडल और पी.डी.एफ. में अब परोसने का असफल प्रयास कर रहे हैं, उसी तरह से ये नीतियां और आदर्श भाषणों तक सिमट गये हैं। दिन-रात उनकी भ्रूण हत्या के क्षेत्र को हम हर गली और कूचे में विस्तृत होता हुआ देखते हैं। हम दिन रात विडम्बनाओं और विसंगितयों को अपनी सांसों में घुलता देखते हैं। वह जीवन ही क्या जो विलोम न बन जाये। सफलता चाहते हैं तो गलत मूल्यों के सामने सजदा करने का स्वभाव बना लीजिये।
आप लिखना चाहते हैं। कला जगत में कुछ अर्थ तलाशना चाहिए, इसका सपना न देखियेगा, क्योंकि अव्वल तो जो आप कुछ लिखेंगे, वह छपेगा नहीं, और छपेगा तो उसे कोई पढ़ेगा नहीं। सोशल मीडिया में उसका आधा-पौना डाल कर चाहे ‘लाइक’ बटोर लीजिये, लेकिन जैसे सदियां बीत गईं, आज भी खेतीबाड़ी घाटे का सौदा है। वैसे ही लेखन और ललित कला के संवाहक बनना भी एक घाटे का सौदा है। ज़माने का चलन बदल गया। निर्बल चाटुकार बन गये, समर्थ की विजय पताका बन गये, उसके ज़िन्दाबाद का एक नारा बन गये, या उसकी शोभा यात्रा में उसकी झांझ करताल बजा उसका यशोगान बन जाइए, तब तो उनके ज़िन्दा बचे रहने की कोई सम्भावना हो सकती है, नहीं तो जाइए किसी गुमशुदगी के अंधेरे में।
‘बन्धु, ‘समर्थ’ को नाही दोष गोसांई’, नये युग का वेद वाक्य बन गया है। आप गद्दियों पर निकम्मों को और प्रशासन चलाने वाले नौसिखियों की बारात बैठी देख लीजिये। योग्य उनकी चाकरी बजाएगा, तो ज़िन्दा बच जाएगा, नहीं तो निर्वासन के अंधेरे उसे अपने गले लगाने के लिए आकुल और व्याकुल रहेंगे।
कभी पाठशाला में पढ़ कर आये थे, मेहनत, सच और ईमानदारी को गले लगाओ, लेकिन आज देश की प्रशासन शालाओं को हम आरोपितों और दागी लोगों की बड़ी संख्या से भरता हुआ देखते हैं, क्योंकि आजकल यहां एक स्वर्ण कानून चलता है कि जो आरोपित है, वह अपराधी नहीं। अब दण्ड विधान बदलने पर भी निर्णायक अपराधी हो जाये, यह सच तो तारीख पर तारीख के मृग जाल में उलझा है। इसलिए जो इस इंतज़ार संस्कृति में ज़मानत पर आ गया, वही तो अब आपका मार्ग दर्शक बनेगा, विधानसभाओं और संसदों के सभागार भरेगा। उस बीच आम आदमी क्या करे? बन्धु, बहुत कुछ है उसके करने के लिए। अपनी ज़िन्दगी बदल देने के नेताओं के वाचाल भाषण सुनें, उनका भूत लेखक बन कर उनके लिए पुस्तक लिख, या भूत कलाकार बन कर उनके उन्हें लेखक या कलाकार का एक और परिचय दें, और खुद गुमनामी के अंधेरों से गुम हो जाएं। क्या यह विरासत भी उस बूढ़े ने अपने वारिसों में बांटी? पूछूं क्या?

#जीते जी अपना बंटवारा