आत्म-मंथन की ज़रूरत
विगत दिवस कांग्रेस ने अपनी 140वीं वर्षगांठ मनाई। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि कांग्रेस ने कभी भी भारतीय संविधान की भावना से समझौता नहीं किया। इसने धर्म-निरपेक्षता की भावना की हमेशा रक्षा की और यह गरीबों के हक के लिए डट कर खड़ी रही है। राहुल गांधी ने भी कहा कि कांग्रेस मात्र एक राजनीतिक पार्टी नहीं, अपितु भारत की आत्मा की आवाज़ है। हम पार्टी नेताओं के इन दावों का सम्मान करते हैं परन्तु इसके साथ-साथ इसे आत्म-मंथन करने की भी गुज़ारिश करते हैं। 1885 में जन्मी इस पार्टी ने स्वतंत्रता की लहर में अपना अहम योगदान डाला था। इसकी बागडोर लम्बी अवधि तक महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके समय के अन्य बहुत-से वरिष्ठ नेताओं के हाथ रही। नि:संदेह इस पार्टी ने अपने सिद्धांतों को लम्बे समय तक दृढ़ता के साथ अपनाए रखा और बड़े कदावर और शानदार नेता पैदा किए।
आज़ादी के बाद कई दशकों तक देश की बागडोर कांग्रेस के हाथ में रही, परन्तु अब यह सोचने वाला समय ज़रूर आ गया है कि कभी कदावर रही यह पार्टी आज बौनेपन का शिकार क्यों हो रही है? पार्टी के भीतर और बाहर ऐसी चर्चा लम्बी अवधि से चल रही है। समय-समय पर इस पार्टी के भीतर घटित होते घटनाक्रमों से देश में लोकतंत्र पसंद लोगों में चिन्ता भी पैदा होती है। लगभग पिछले 2 दशकों से इस पार्टी का लगातार क्षरण होता आ रहा है। यदि इसकी शानदार उपलब्धियों का श्रेय इसके तत्कालीन नेताओं को मिलता रहा है तो मिलती हार की नमोशी भी इन्हें सहन करनी पड़ेगी। पार्टी के दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होने के संबंध में चलता आ रहा चिंतन-मंथन भी किसी परिणाम पर पहुंचता दिखाई नहीं दिया। लम्बी अवधि पहले पार्टी के दो दर्जन से अधिक वरिष्ठ नेताओं ने एक पत्र द्वारा अपनी बात कहने का यत्न ज़रूर किया था परन्तु उसके बाद पार्टी के भीतर उनका जो हश्र हुआ, वह किसी से छुपा नहीं। श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री होने के समय से ही इस पार्टी पर हावी हुए परिवारवाद की बात चलती रही थी। इंदिरा गांधी एक मज़बूर इच्छा-शक्ति वाली शख्सियत थीं, जिन्होंने लम्बी अवधि तक देश पर शासन किया परन्तु अपने परिवार को ही राजनीतिक क्षेत्र में आगे रखने का उनका उद्देश्य उनकी कमज़ोरी सिद्ध हुआ।
श्रीमती गांधी अपने पुत्र संजय गांधी को कमान देना चाहती थीं। उनकी दुखद हादसे में हुई मौत के बाद राजनीति से अंजान उन्होंने अपने बड़े पुत्र राजीव गांधी को पार्टी की, केन्द्रीय कतारों में ला खड़ा किया। इंदिरा की हत्या के बाद पार्टी के पास एकाएक राजीव गांधी के अलावा कोई और नाम सामने नहीं था। राजीव गांधी की हत्या के बाद और लगातार घटित होते घटनाक्रम के बाद यदि प्रधानमंत्री का गुणा डा. मनमोहन सिंह पर पड़ा तो उस समय भी श्रीमती सोनिया गांधी और उनका परिवार राजनीति में छाया रहा। उसके बाद लगातार राजनीतिक त़ूफानों में घिरी इस पार्टी की कमान इस परिवार के हाथों में ही रही। विगत लम्बी अवधि से जिस तरह राहुल गांधी राजनीति में विचरण करते रहे हैं, उन्होंने पार्टी के भीतर और बाहर व्यापक स्तर पर निराशा ही पैदा की है। आज चाहे पार्टी रसातल की ओर जा रही है और भीतर से खोखली हुई दिखाई देती है फिर भी वह इस परिवार की गिरफ्त में ही है। इसका शासन कुछ प्रदेशों तक सिकुड़ गया है। इन राज्यों में भी पार्टी तथा उसकी सरकारों में अनुशासन की कमी प्रतीत होती है, जिसका प्रभाव समूचे रूप में देश की राजनीति पर पड़ रहा है। चाहे विगत लम्बी अवधि में यह पार्टी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर विपक्षी पार्टी के गठबंधनों में शामिल होती रही है परन्तु फिर भी चुनाव राजनीति में यह कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर सकी। धरातल पर भी इसका अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिला। आज इसकी शमूलियत वाले गठबंधन भी बिखरे हुए दिखाई दे रहे हैं।
इस वर्ष दिल्ली और बिहार में नमोशीजनक हार के बाद आगामी वर्ष कुछ और महत्त्वपूर्ण राज्यों तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और असम में चुनाव होने जा रहे हैं। इनमें भी इस पार्टी का प्रभाव नदारद ही दिखाई देता है। विगत दिवस कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की खस्ता होती स्थिति संबंधी सामने आकर अपने विचार ज़रूर प्रकट किए हैं, परन्तु इनका कितना प्रभाव पड़ता है, यह देखने वाली बात होगी। ऐसी स्थिति में यह सुनिश्चित दिखाई देता है कि यदि पार्टी के ढांचे में बड़े परिवर्तन न किए गए तो निराशा का यह आलम और भी लम्बा हो सकता है। नि:संदेह पार्टी के लिए गम्भीरता से अपने भीतर दृष्टिपात करने का समय आ गया है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

