जलियांवाला ब़ाग में आज भी मौजूद हैं नरसंहार के निशान

9 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के सत्याग्रह सभा के सचिव डा. ह़ािफज मोहम्मद बशीर ने राम नवमी का त्यौहार राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाकर एक नया इतिहास रचा। यह रिपोर्ट लैफ्टिनैंट गवर्नर सर माइकल ओडवायर के पास लाहौर पहुंचने पर उसके आदेश की पालना करते हुए अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर माइल इरविन द्वारा अगले ही दिन 10 अप्रैल, 1919 को सुबह 10 बजे डा. सत्यापाल तथा सैफूदीन किचलू, जोकि प्रसिद्ध स्थानीय नेता थे, को गिरफ्तार करके ज़ोल कैंप, धर्मशाला भेज दिया गया। दोनों नेताओं के अमृतसर में दाखिल होने पर पाबंदी लगाए जाने के रोषस्वरूप सुबह 11:30 बजे शहर के लोग अपनी दुकानें बंद करके डी.सी. की कोठी पहुंचने के लिए इकट्ठे होने लगे। जब जुलूस हाल ब्रिज (पौड़ियों वाला पुल, जोकि अब समाप्त कर दिया गया है) के पास पहुंचे तो कैप्टन मैसे (सिविल लाइन जेल का कमांडर) मौके पर पहुंच गया। बिना भीड़ को कोई चेतावनी दिए उसके अंग्रेज़ सिपाहियों ने भीड़ पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं, जिससे कुछ लोग मौके पर ही मारे गए और बहुत सारे घायल हो गए। इसके विरोध में भीड़ ने दोपहर एक बजे के लगभग रेलवे गोदाम, टैलीग्राम दफ्तर, नैशनल बैंक ऑफ इंडिया, अलाइंस बैंक, चार्टर्ड बैंक, रिलीजीयस बुक सोसायटी डिपो, सब-डाकघर दरबार साहिब, ढाब बस्ती राम और मजीठा मंडी आदि में तोड़-फोड़ करने के बाद आग लगा दी। इस कार्रवाई के दौरान 5 अंग्रेज़ भी मारे गए। शहर के हालात बेकाबू होते देख डी.सी. ने 200 गोरखा जवान, जो दूसरे इलाकों में तैनात थे, को रेलगाड़ी से अमृतसर मंगवा लिया। मेजर मैक्डोनल्ड की कमांड में 300 सैनिक लाहौर से अमृतसर पहुंच गये और उसी दिन 11 अप्रैल की शाम जालन्धर ब्रिगेड का कमांडर ब्रिगेडियर जरनल आर.ई.एच. डायर अपनी सेना की टुकड़ी सहित अमृतसर पहुंच गया और सेना का हैड आफिस रेलवे  स्टेशन से राम ब़ाग  (जहां अब महाराजा रणजीत सिंह का समर पैलेस है) में तबदील कर लिया।
12 अप्रैल की सुबह 10 बजे जनरल डायर ने 125 अंग्रेज़ और 310 भारतीय सेनिकों के साथ शहर में गश्त की। लोगों को चौकों में ढोल बजाकर और पोस्टरों के ज़रिए चेतावनी दी गई कि 4 से ज्यादा लोग एक स्थान पर इकट्ठे न हों। इसके बारे में ‘अपील’ शीर्षक में उर्दू और गुरमुखी में लिखे पोस्टर हाल बाज़ार और लोहगढ़ आबादी में सिर्फ 19 स्थानों पर लगाए गए। 13 अप्रैल की सुबह को डायर ने शहर की सड़कों पर फिर गश्त की। सिटी सुपरिटैंडैंट अशरफ खान, सब-इंस्पैक्टर उबेद उल्ला और नायब तहसीलदार मलिक फतेह खान भी घोड़ों पर उसके साथ थे। सख्ती के बावजूद लोग जलियांवाला ब़ाग  में इकट्ठे होना शुरू हो गए। जनरल डायर को शाम 4 बजे खबर मिली कि जलियांवाला ब़ाग में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हो चुके हैं। वह वहां से ब़ाग की ओर जाने के लिए अपनी कार में निकले, उनका चहेता कैप्टन ब्रिगस भी उसके साथ बैठा था। उसकी कार के पीछे दो हथियारों से लैस कारें थी, जिनकी सुरक्षा पुलिस सुपरिटैंडैंट मि. रेहील और डिप्टी सुपरिटैंडैंट मि. पलुमर कर रहे थे। जनरल डायर की कार सहित अन्य हथियारों से लैस गाड़ियों को चौक फव्वारा के डाकघर के पास खड़ा करना पड़ा, क्योंकि इससे आगे रास्ता तंग होने के कारण वाहनों को आगे लेकर जाना सम्भव नहीं था। वहां एकत्र हुए लोगों की भीड़ ने डायर को गुस्से में देख डरते हुए उसको सैल्यूट मारा और ‘गोरा साहिब’ ज़िंदाबाद के नारे लगाए। डायर वहां से पैदल सेना सहित पूरे 5:15 बजे ब़ाग में पहुंचा, वहां जलसा पूरे 4:30 बजे शुरू हो चुका था। सभा में गोपी नाथ ‘बेकल’ ने अपनी कविता ‘फरियाद’ पढ़नी शुरू की ही थी कि सेना ने आदेश मिलते ही भीड़ की तरफ अपनी बंदूकें तान ली। सभा की अध्यक्षता कर रहे डा. गुरबख्श सिंह राय ने जल्दी से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार रहने का पहला प्रस्ताव पढ़ा। उसने सोचा कि शायद इससे डायर का गुस्सा शांत हो जाएगा और भीड़ की तरफ बढ़ रहे बंदूकधारी सेना वापिस चली जाएगी। दूसरा प्रस्ताव जो सरकार की दमनकारी नीति के विरोध में था (इस सभा में कुल चार प्रस्ताव पास किए जाने थे। उपरोक्त के अलावा तीसरा प्रस्ताव शहरवासियों को हड़ताल खत्म करने के लिए निवेदन करना और चौथा भारत सरकार को रौलट एक्ट वापिस लेने की मांग करना था) को पंडित श्री दुर्गा दास (संपादक नवाये वक्त अमृतसर) ने अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि डायर की सेना के पुजीशन संभाल ली। ब़ाग के दरवाज़े के नज़दीक भूमि का तल ऊंचा था। डायर ने तुरंत 25 सैनिक अपने बाईं तरफ और 25 सैनिक अपने दाईं तरफ तैनात कर लिए। उस समय बाग में 20,000 लोग इकट्ठा थे। खुफिया विभाग के कर्मचारी भी भीड़ में मौजूद थे। डायर ने तुरंत अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया। पहली गोली मदन मोहन (13 वर्ष) पुत्र डा. मनी राम को लगी, जिसका घर बिल्कुल ब़ाग के साथ ही था और वह रोज़ाना की तरह ब़ाग में खेल रहा था। पंद्रह मिनट तक लगातार गोलियां चलती रहीं। कुल 1650 गोलियां चलीं। यह गोलियां चलनी तब बंद हुई जब सैनिकों के पास गोलियां खत्म हो गईं। हज़ारों घायलों के दिलों को हिला देने वाली चीखें और मदद के लिए निकली पुकार की चीख सुनाई दे रही थी, लेकिन उनको पानी या अन्य सहायता देने वाला कोई नहीं था।
जलियांवाला ब़ाग स्मारक की दीवारों पर ब्रिटिश सेना द्वारा चलाई गोलियों के निशान अभी भी मौजूद हैं, जबकि स्मारक में जाने वाले लोग उस दुखांत में शहीद होने वाले लोंगों की पहचान और अहमियत से बिल्कुल अंजान हैं। असल में इन शहीदों के नाम अन्य शहीदों की तरह जनता की ज़ुबान पर बेशक नहीं हैं, परन्तु वे शहीद आज़ादी के भवन की नींव के उन पत्थरों की तरह हैं जो ऊपर से दिखाई नहीं देते, लेकिन यह सच है कि उनकी इस आज़ादी की नींव रूपी शहादत के बिना आज़ाद भारत की यह इमारत कभी खड़ी नहीं हो सकती थी।