अकाली दल को मंथन की ज़रूरत

शिरोमणि अकाली दल (ब) में लोकसभा चुनावों के बिल्कुल नज़दीक आने के समय असमंजस पैदा हुआ दिखाई देने लगा है। पूरे विश्वास के साथ चुनावों में उतरने की बजाय इसमें अनिश्चितता का आलम बनता जा रहा है। किसी भी तरह के चुनाव के समय पार्टियों के भीतर टूट-फूट होती रहती है, इस पार्टी में भी काफी लम्बे समय से ऐसा कुछ ही होता दिखाई देता रहा है। पंजाब की राजनीति के बाबा बोहड़ कहे जाते स. प्रकाश सिंह बादल के आखिरी वर्षों से ही पार्टी का स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू हो गया था। उनके समय ही कई बार हुए चुनावों में पार्टी को नमोशी भरी हार का सामना करना पड़ा था।
 यहां तक अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में वह स्वयं भी विधानसभा के चुनावों में बुरी तरह पिछड़ गये थे। 2022 के विधानसभा चुनावों में 117 सीटों में से शिरोमणि अकाली दल को मात्र 3 सीटें ही मिली थीं तथा लोकसभा के 2019 के चुनावों में पार्टी के पंजाब से मात्र 2 सदस्य ही जीत सके थे। ऐसी नमोशी क्यों सहनी पड़ी, इसके अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं, परन्तु इसके बाद भी तत्कालीन अकाली नेताओं ने अपने भीतर दृष्टिपात करके सच्चाई को पहचानने का यत्न नहीं किया, न ही पार्टी के भीतर हो रहे अवसान को मुख्य रख कर नेतृत्व में ही कोई परिवर्तन देखने को मिला। लम्बी अवधि से ऐसे हालात में विचरण करके आज अकाली कतारों में बड़ी सीमा तक मायूसी देखने को मिल रही है। पार्टी का नेतृत्व हार के बाद कोई तयशुदा नीति निर्धारित करने में असमर्थ रहा है। न ही इसके कोई सुनियोजित क्रियान्वयन ही सामने आये हैं। ऐसे निराशा के आलम में ही समय-समय पर अनेक बड़े-छोटे नेता पार्टी को अलविदा कह गये थे। बने ऐसे हालात का एक बड़ा कारण लोगों में पार्टी नेतृत्व के प्रति पैदा हुया अविश्वास भी कहा जा सकता है। ऐसे मोड़ पर आकर पार्टी जहां नया मोड़ काटने में असमर्थ रही है, वहीं अपनी चिरकाल से स्थापित परम्पराओं पर पहरा देने में भी किनारा करती रही है। लोगों के मन में पैदा हुये ऐसे अविश्वास को पुन: विश्वास में कैसे बदलना है, यह एक ऐसा सवाल है, जिसे अब तक भी यह पार्टी समझ पाने में असमर्थ रही है। इसलिए आज यह ऐसे चौराहे पर खड़ी दिखाई दे रही है, जिस पर आकर यह अपना अगला रास्ता चुनने संबंधी भी असमंजस में पड़ी दिखाई देती है।
चुनावों के लिए अभी इतना समय ज़रूर पड़ा है, जिसमें कि इसे पुन: सम्भलने का अवसर मिल सकता है, परन्तु ऐसा समूचे नेतृत्व की ओर से एकजुट होकर तथा कंधे से कंधा मिला कर खुल कर चर्चा करने के बाद कोई निर्णायक फैसला लेने से ही सम्भव हो सकता है। यह अच्छी बात है कि विगत दिनों कुछ   पार्टी छोड़ कर गये नेता अपने साथियों सहित पुन: पार्टी कतारों में आ गये हैं परन्तु इसके साथ ही अब पार्टी के लिए चिन्ताजनक बात यह बन गई है कि दशकों से पार्टी के व़फादार रहे कुछ नेता किसी न किसी कारण निराश होकर इसे फिर से छोड़ने लग पड़े हैं। इससे यह बात ज़रूर स्पष्ट हो जाती है कि पार्टी को इस पड़ाव पर कोई अच्छा एवं निर्णायक मोड़ मुड़ने की ज़रूरत होगी ताकि होने वाले सम्भावित क्षरण से इसे बचाने का यत्न किया जाये, नहीं तो पैदा हो रहे ऐसे हालात में पार्टी का पुन: सम्भलना एवं आगे बढ़ना कठिन हो जाएगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द