कम क्यों हो गई है आज़ाद उम्मीदवारों की तादाद ?

देश के बुज़ुर्गों को याद होगा ही कि एक दौर में वी.के. कृष्ण मेनन, आचार्य कृपलानी, एस.एम. बनर्जी, मीनू मसानी, लक्ष्मीमल सिंघवी, इंद्रजीत सिंह नामधारी, करणी सिंह, जी. जी. स्वैल जैसे बहुत सारे नेता आज़ाद उम्मीदवार होते हुए भी लोकसभा का कठिन चुनाव जीत जाते थे, परन्तु अब इन आज़ाद उम्मीदवारों का आंकड़ा लगातार सिकुड़ता ही चला जा रहा है। अगर 1952 के पहले लोकसभा चुनावों के नतीजों को देखें तो इन विजयी आज़ाद उम्मीदवारों की संख्या 36 मिलेगी। तब इनका समूह कांग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा था यानि किसी भी गैर-कांग्रेसी दल से बड़ा था। निवर्तमान लोकसभा में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या सिर्फ तीन रह गई थी। अभी तक मात्र 202 निर्दलीय उम्मीदवार लोकसभा में पहुंचे हैं।
बेशक लोकसभा का चुनाव अपने बलबूते पर लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं होता। लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए बहुत सारे संसाधनों की दरकरार रहती है। इसके बावजूद अगर कोई निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है, तो इतना तो माना ही जा सकता है कि उसका आम जनता में गहरा प्रभाव है। पहले लोकसभा चुनावों के बाद 1967 के लोकसभा चुनावों में 34 आज़ाद उम्मीदवार लोकसभा में पहुंचे थे। देश में इमरजेंसी लगने के बाद 1977 में चुनाव हुआ। तब सिर्फ सात आज़ाद उम्मीदवार सफल रहे। यह संख्या 1980 में मात्र चार रह गई। 1984 और 1989 के लोकसभा चुनावों में क्रमश: 9 और 8 आज़ाद उम्मीदवार ही निर्दलीय रूप से लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे। कह सकते हैं कि प्रत्येक लोकसभा चुनाव में निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने वालों में से कुछ न कुछ उम्मीदवार विजयी रहे हैं। बेशक, ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों में जनता के बीच जुझारू प्रतिबद्धता के साथ कुछ काम तो करते होंगे, वरना ये सब लोकसभा में कभी नहीं पहुंच पाते। चुनावों में धन का इस्तेमाल भी अधिक होता है। निश्चित रूप से लोकसभा का चुनाव जीतने वाले निर्दलीय उम्मीदवार अपने आप में बहुत बुलंद शख्सियत के मालिक होते हैं। इनमें से कुछ मनीषी भी रहे हैं। आचार्य कृपलानी 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वह गांधी जी के सबसे उत्साही और विश्वासपात्र शिष्यों में से एक थे। उन्होंने लगभग एक दशक तक कांग्रेस के महासचिव के रूप में भी कार्य किया था। लक्ष्मीमल सिंघवी जैसे सरस्वती पुत्र भी सदियों में पैदा होते हैं। वह ख्यातिलब्ध न्यायविद, संविधान विशेषज्ञ, कवि, भाषाविद एवं लेखक थे। वह ‘धर्मयुग’ में विधि संबंधी मामलों में खूब लिखते थे। उनका जन्म जोधपुर में हुआ था। वह 1952 से 1967 तक तीसरी लोकसभा के सदस्य रहे। चाहे सांसद रहे हों या किसी और संस्था से जुड़ गए हों, लेकिन उन्होंने वेतन के रूप में हमेशा एक रुपया ही लिया था। कानपुर में जाकर अब भी एस.एम. बैनर्जी के बारे में पूछ जाए तो लोग उनके तमाम किस्से सुनाएंगे। वह एक विख्यात मज़दूर नेता थे। वह पश्चिम बंगाल से कानपुर में नौकरी करने के लिए आए थे। कानपुर को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बना लिया था। कोलकाता से आये मज़दूर नेता एस.एम. बैनर्जी ने 1957 में निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत हासिल की। 1962, 1967 और 1971 तक जीत विजयी होते रहे। शायद कानपुर अकेला शहर होगा, जहां चार बार लगातार कोई निर्दलीय सांसद चुना गया हो।
 विजयी हुए निर्दलीय उम्मीदवारों में इस तरह के कई नाम मिल जाएंगे जो उस लोकसभा क्षेत्र से विजयी हुए, वहां से उनका उस क्षेत्र से कोई सीधा संबंध नहीं था। वहां पर जनता से जुड़कर और उनके सुख.दु:ख का हिस्सा बनकर वह वहां के हो गए थे। कृपलानी सिंध (अब पाकिस्तान) से आए थे। वह बिहार से सांसद बने। इंदरजीत सिंह नामधारी का परिवार देश के विभाजन के वक्त पाकिस्तान से बिहार आकर बस गया था। वह बरसों तक बिहार के ट्रांसपोर्ट मंत्री भी रहे। बिहार के विभाजन के बाद वह झारखंड में सक्रिय हो गए। इंदर सिंह नामधारी झारखंड के पहले विधानसभा अध्यक्ष बने। वह वनांचल राज्य आंदोलन के प्रमुख नेता थे जिसने दक्षिण बिहार के लिए अलग राज्य की मांग की थी। 
 अब डॉ. करणी सिंह की भी बात कर लेते हैं। हो सकता है कि नई पीढ़ी को उनके संबंध में कम जानकारी हो। वह देश के चोटी के निशानेबाज़ थे। डॉ. करणी सिंह शूटिंग रेंज किसी खिलाड़ी के नाम पर रखा गया राजधानी का पहला स्टेडियम माना जा सकता है। डॉ. करणी सिंह रेंज का निर्माण 9वें एशियाई खेलों के निशानेबाज़ी मुकाबलों के लिए 1982 में हुआ था। डॉ. करणी सिंह बीकानेर के राज परिवार से थे। वह देश के पहले निशानेबाज़ थे जिन्हें 1961 में अर्जुन पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया था। उनके बारे में कहा जाता है कि वह राज परिवार से आने के बावजूद आम जनता के सुख-दुख में शामिल होते रहते थे। वह 1952 से 1977 तक लगातार पांच बार सांसद रहे। उन्होंने  दो चुनाव में 70 से 71 फीसदी मत प्राप्त किए थे। उनके बाद इस मत प्रतिशत को प्राप्त करने में कोई भी पार्टी प्रत्याशी सफल नहीं हो पाया। बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार सांसद रहने का रिकॉर्ड करणी सिंह के नाम है। 
 अब लोकसभा चुनाव का उत्सव देश देख रहा है। सारा देश जानता है कि अब चुनाव लड़ना कितना खर्चीला हो गया है। प्रचार इतना महंगा हो गया है कि कोई भी इन्सान आज़ाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने से पहले कई बार ज़रूर सोचता होगा। इसके बावजूद जनता के बीच काम करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता चुनावी रणभूमि में कूदने से पीछे नहीं रहते। उम्मीद करनी चाहिए कि देश आगामी लोकसभा में पहले से अधिक आज़ाद उम्मीदवारों को देखेगा।

 (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)