खोये हुए रास्तों की तलाश

जिन पत्तों पर तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे। कभी अपने सपनों के नखलिस्तान की तलाश में मरु भूमि की स्थायी विरासत झेलता आदमी धोखा खाने के बाद सिर धुनता हुआ कह देता था। आज बेमौसमी पतझड़ में इन पत्तों पर तकिया बना लेने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति समयच्युत है। अजी कैसे पत्ते, कैसा उनका तकिया? आज हर चीज़ बिकाऊ है। आपकी मुट्ठियों में यूं फिसल कर दूसरों की हथेली पर जा सरसों जमा देती है, कि लोग भौचक्के रह जाते हैं। कल तक जो कहते थे, हम तो हैं ही आपके, आपके व्यक्ति और जीवन दर्शन से प्रतिबद्ध। वे अपने लिये तनिक भी आगे बढ़ने का मौका मिलता देख कर यूं गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सिर से सींग लेकिन जनाब यह मुहाविरा तो पुराना हो गया। आजकल तो लोग अगर हथेली पर सरसों जमा सकते हैं, तो क्या गधे के सिर पर सींग नहीं उगा सकते? पत्तों पर तकिया जमा आसन बनाना तो पुरानी बात थी। आजकल तो बनी बनाई मसनदों के पीछे से तकिये खींच लिये जाते हैं। रात तक आपके साथ भोजन करते हुए आप पर जान कुर्बान कर देने की कसम खाते हुए लोग, सुबह होते ही यूं करवट बदल कर रंग बदलते हैं, चेहरे पर नया मुखौटा धारण कर लेते हैं, कि पहचानना कठिन हो जाता है, कि असली चेहरा कौन-सा था और नया मुखौटा कौन-सा है।
इधर चुनावों की दुंदुभि बजती है, तो यह कार्य व्यवहार जैसे पासा पलटने का आवत जावत सूचक यंत्र बन जाता है। आपके लिए कुर्बान हो जाने का दावा करने वाले आपको अगर अपने लिये ज़िन्दाबाद पाने की थोड़ी-सी भी गुंजायश पैदा हो जाये तो राजनीतिक दलों का तकिया अब जन-सेवा की ज़मीन पर नहीं खड़ा होता, जातिवाद के आग्रह पर खड़ा होता है। आपा-धापी के इस अंधेरे में अपने लिये कुछ पा लेने की छटपटाहट इतनी गहरी होती है कि देश और समाज के लिये त्याग और बलिदान के टकसाली वाक्य आज एक मुलम्मे का मूल्य भी नहीं रखते।
भय्या, यहां खुला खेल फर्रुखाबादी है। परिवारवाद के विरुद्ध नारा लगाते हुए अपने भाई-भतीजों को उपलब्धि की गलियों को राजमार्ग बनाने के लिए छोड़ दो। भ्रष्टाचारी देशों के सूचकांक में आपका देश एक कदम भी बेहतर न हो, और आप कह सकें, हमने भ्रष्टाचार को नेस्तोनाबूद कर दिया। कामकाज में नौकरशाही और लालफीताशाही की मार उसी प्रकार जारी रहे, और अपने आवेदनों की फाइलों के नीचे चांदी के पहिये चिपकाता हुआ आदमी स्वीकृति की मुद्रा में सिर हिलाता है, ‘जी हां, तरक्की तो बहुत हो गई है। हम अल्प-विकसित थे, विकासशील हो गये, और अब विकसित हो जाने की मैराथन दौड़ रहे हैं।’
हम विकसित हो गये, इसकी खबर समय पर सब को मिल जाये, इसके लिए ही तो जागरण यात्रा निकाल रहे हैं हम। घर-घर सन्देश दे रहे हैं कि महंगाई पर हमारी सख्त उधार नीति ने काबू पा लिया है। चाहे थोक कीमतों और परचून कीमतों के सूचकांक में ज़मीन-आसमान का अन्तर क्यों रह जाता है, यह हम पनपते हुए चोर बाज़ारों से कभी न पूछेंगे? हमारी संस्कृति का यह मूल सन्देश भी हम कभी न भूलेंगे कि दया धर्म की नींव है। इसलिए आज के लिए ही नहीं, अगले पांच साल के लिए भी हमने अस्सी करोड़ देशवासियों को रियायती गेहूं की गारण्टी दे दी है, कि किसी को भूखा नहीं मरने देंगे। अब तो उसके सामने परोसी जाने वाली थाली से भी कुपोषण की गन्ध नहीं आयेगी। हमारे आंकड़े साक्षी हैं, पिछले दस बरसों में औसत व्यक्ति की उम्र आठ वर्ष बढ़ गयी है। देश में महामारी, मन्दी और आर्थिक बदहाली का काल गुज़र चुका है और आंकड़ा शास्त्री बताते हैं कि इस काल के बाद विश्व के किसी देश में खरबपतियों की संख्या इतनी नहीं बढ़ी जितनी अपने देश में बढ़ गई है। कोविड गुज़र गया और सबसे अधिक तरक्की मोटर कार खरीदने वाले की मांग में हुई है, और वह भी बड़ी गाड़ियों की मांग। देश में लोगों ने विकास के लिए गलियां, और छोटे मकान छोड़ कर फ्लैटों की ओर रुख कर लिया है और सबसे अधिक बिक्री एक करोड़ से अधिक कीमत के बड़े फ्लैटों की हो रही है। ग्रामीण समाज के सर्वहारा होने की बात बहुत दिन से कहते आ रहे थे न आप। अब इस मंदी काल में ग्रामीण समाज की मांग ने बढ़ कर शहरी समाज को पटखनी दे दी है। फ्रिज से लेकर बुलेट मोटरसाइकिल की मांग गांवों और कस्बों से आ रही है।
कहां गये वे करोड़ों भूखे, नंगे, और बेघर बेकार लोग जिनकी चिन्ता हर प्रगतिशील कलम ने की है। कहीं नहीं गये सर, वह यहीं हैं। अपने खण्डित सपनों की मृग मरीचिका में कैद। लेकिन आवाज़ तो उसी की हावी होती है न जो सामर्थ्यवान है। दस प्रतिशत अट्टालिकायें अगर नब्बे प्रतिशत झुग्गी झोंपड़ियों की आवाज़ नहीं उभरने देतीं तो इसमें हैरानी क्या? उनके लिये शार्टकट संस्कृति, और दोगले व्यवहार के चोर दरवाज़े खोल तो दिये हैं। अब कोई इन दरवाज़ों में फिट नहीं हो पाते,तो बाहर डॉलर, पौंड देशों की चकाचौंध उन्हें लुभाने के लिए हाज़िर है। चाहे वहां पहुंचने की अच्छी दौड़  आपको म्यांमार के जंगलों में ही क्यों न भटका दे। पराजित हो वापिस लौट आये, तो इधर नम्बर दो के बहुत से धंधे यहां भी विकसित हो गये हैं। चिन्ता न करो।