क्या भाजपा संघ के कंट्रोल से मुक्त होती जा रही है ?

एक ज़माने में यह सोचना भी नामुमकिन था कि कभी भारतीय जनता पार्टी अपने पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ़खुद को अलग घोषित भी कर सकती है। लेकिन राजनीति एक ऐसी शै है जिसमें नामुमकिन को मुमकिन होते देखा जा सकता है। 1984 में पहली बार संघ को भाजपा के राजनीतिक हितों के विपरीत काम करते देखा गया। तत्कालीन लोकसभा चुनाव में तब के सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने स्वयंसेवकों को ‘देशभक्त’ त़ाकतों का समर्थन करने का सुझाव दिया था। यहां देशभक्त का मतलब था कांग्रेस की चुनावी मुहिम के साथ खड़े होना। वह चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के साये में हो रहा था। नतीजा यह निकला कि भाजपा की सारे देश में केवल दो सीटें आईं। इसके बाद बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद अटलबिहारी वाजपेयी के मन में जो क्षोभ पैदा हुआ, उससे पैदा होने वाले ़खतरे को निपटाने के लिए तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया ने वाजपेयी को संघ के दफ्तर में बुलाकर ‘बौद्धिक’ की ़खुराक दी थी। तीसरी घटना तब घटी जब पाकिस्तान में लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को सेकुलर करार दिया। इस मौके पर संघ ने कड़ा रवैया अपनाते हुए आडवाणी का राजनीतिक करियर ़खत्म होने की कगार पर पहुंचा दिया। लेकिन, संघ और भाजपा के नेताओं के मतभेदों के इन तीनों प्रकरणों में संघ ने भाजपा पर अपने नियंत्रण का प्रदर्शन किया। क्या संघ आज भी इसी तरह का नियंत्रण मोदी कालीन भाजपा होने का दावा कर सकता है?
भाजपा के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के एक ताज़े इंटरव्यू से उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच संबंधों का सवाल फिर से खुल गया है। नड्डा ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा है कि जब उनकी पार्टी छोटी और आज की तरह सक्षम नहीं थी, उस समय वह संघ की मदद लेती थी। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। पार्टी का विस्तार हो चुका है और उसकी क्षमता बढ़ चुकी है। अब संघ उसके संचालन में कोई भूमिका नहीं निभाता। तो क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा संघ से पूरी स्वायत्तता हो चुकी है? अगर इसका उत्तर हां में है, तो इससे दो उलझनें पैदा होती हैं। पहली, इस स्वायत्तता की संरचना किस तरह की है, और संघ भले ही भाजपा को न चला रहा हो लेकिन क्या ऐसा तो नहीं है कि अब संघ के कामकाज में भाजपा की भूमिका बढ़ गयी हो? यानी, जो नियंत्रक था, वह कहीं नियंत्रित तो नहीं होने लगा है? क्या भाजपा और संघ के संबंध एक दोराहे पर नहीं खड़े हैं? 
अक्तूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ (भाजपा का पहले वाला रूप) को स्थापित करने के बाद संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने कहा था कि जनसंघ तो गज्जर की पुंगी है। जब तक बजेगी तो बजाएंगे, और जब नहीं बजेगी तो खा जाएंगे। गोलवलकर ने ऐसी उपयोगितावादी बात संघ के किसी अन्य संगठन के बारे में कभी नहीं कही। उनके मन में कहीं न कहीं यह अंदेशा था कि चुनावी राजनीति में सक्रिय होने के लिए गठित यह पार्टी आगे चल कर संघ द्वारा थमाये गये एजेंडे से भिन्न रास्ता भी अख्तियार भी कर सकती है। बहरहाल, संघ ने भाजपा को ‘लोन’ पर दिये गये प्रचारकों के ज़रिये कड़ाई से नियंत्रित किया। इन प्रचारकों को भाजपा में संगठन मंत्री बनाने पर विशेष ज़ोर दिया गया। चाहे अटल हों या आडवाणी या फिर मोदी— ये सभी भाजपा को ‘लोन’ पर ही दिये गये थे। नड्डा के इंटरव्यू के बाद सवाल यह भी उठता है कि संगठन मंत्री की हैसियत से पार्टी को चलाने वाले ये प्रचारक अंतत: किसके नियंत्रण को मानेंगे— अपने पितृ-संगठन संघ या मोदी-शाह की नयी भाजपा के राजनीतिक आलाकमान के नियंत्रण को?
विचारधारा भले ही हिंदू राष्ट्रवादी बनी रहे, पर दोनों का रास्ता काफी-कुछ अलग-अलग हो सकता है। मसलन, संघ अतिशय व्यक्तिवाद को नापसंद करता है, और वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2014 की जीत के दो महीने के बाद कहा भी था कि ‘भारतीय जनता पार्टी को जीत किसी एक व्यक्ति की वज़ह से नहीं मिली है। इसे किसी व्यक्ति-विशेष की विजय मानना ठीक नहीं है।’ लेकिन, आज की भाजपा पिछले दस साल में पूरी तरह से एक व्यक्ति (नरेन्द्र मोदी) के करिश्मे पर आधारित होती चली गई है। इसी तरह 2015 में भागवत जी ने दिल्ली में म.प्र. सरकार के मध्यांचल नामक भवन में केंद्र सरकार के मंत्रियों को तीन दिन तक एक-एक करके तलब करके भाजपा पर अपने नियंत्रण का प्रदर्शन किया था। इस जवाबतलबी में प्रधानमंत्री को भी जाना पड़ा था। संघ के पंद्रह संगठनों के मुखियाओं ने इस बैठक में सरकार के सामने कई सवाल किये थे। लेकिन, यह अपने तरह की आखिरी बैठक साबित हुई। 
इसके बाद के घटनाक्रम पर सरसरी नज़र डालने से ही स्पष्ट हो जाता है कि पिछले नौ साल में भाजपा संघ की इस तरह की जवाबतलबी से पूरी तरह आज़ाद हो चुकी है। उसने अपनी सरकार में संघ के लिए शिक्षा और संस्कृति का क्षेत्र सक्रियता के लिए छोड़ रखा है, पर बाकी किसी क्षेत्र में संघ की नहीं सुनी जाती। अटलबिहारी सरकार के म़ुकाबले मौजूदा सरकार में संघ के लोगों की नियुक्ति संख्या की दृष्टि से बहुत कम है। मोदी ने 2019 की पूर्वसंध्या पर संघ के इस आग्रह को भी ठुकरा दिया था कि राम मंदिर बनवाने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए। अंत में मोदी की ही चली, और राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बना। राम मंदिर की भव्य प्राणप्रतिष्ठा के टीवी पर हुए प्रसारण में हर स्वयंसेवक देख सकता था कि इस कार्यक्रम के केंद्र में मोदी और सिर्फ मोदी ही थे। हर स्वयंसेवक के लिए ‘परमपूज्यनीय’ सरसंघचालक उस कार्यक्रम में थे ज़रूर, लेकिन दूसरे नम्बर पर।
 कहना न होगा कि पिछले दस साल में स्थापित हुए भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व का लाभ संघ को बहुत ज़्यादा मिला है। आज संघ के विभिन्न संगठनों के दफ्तर शानदार भवनों में हैं, और उससे जुड़ी कई हस्तियां चार्टेड विमानों से सफर करती हैं। मुझे लगता है कि संघ अगर चाहता तो बिना भाजपा सरकार के भी इस तरह का विकास कर सकता था। लेकिन उसकी सांगठनिक संस्कृति में आयी यह भव्यता भाजपा के सरकारीकरण की देन ही है। संघ के भीतरी माहौल और संरचना पर नज़दीकी निगाह रखने वाले जानकारों की माने तो संघ के शीर्ष पदों पर आज ऐसे लोग तैनात हो चुके हैं जो भाजपा के बढ़ते हुए प्रभुत्व से चिंतित होने के बजाय इससे सहज प्रतीत होते हैं। 
नड्डा जी का यह वक्तव्य चुनाव के बीच सामने आया है। ़खासकर एक ऐसे माहौल में जब स्वयंसेवकों द्वारा अनमने भाव से चुनावी मुहिम में भाग लेने की चर्चा गर्म है। इसे भाजपा के आत्मविश्वास का परिचायक भी माना जा सकता है कि इस वक्तव्य के कारण स्वयंसेवकों के अनमनेपन के और बढ़ जाने के प्रति पार्टी के अध्यक्ष पूरी तरह से बेपरवाह दिखायी दिये हैं।


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।