एक मुलाकात

अंतिम सप्ताह दिसम्बर का चल रहा है। चार दिन की केजुअल बाकी है। यदि जेब में मनीराम होते तो मजा आ जाता। दोस्तों की ओर से भी तरह-तरह के प्रस्ताव मिल रहे थे। परंतु सभी को कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता हूं, बिना पैसों के किया भी क्या जा सकता था। अत: ऑफिस से चिपके रहकर समय पास करना ही श्रेयस्कर लगा।
31 दिसम्बर का दिन, पहाड़ जैसा कट तो गया पर शाम एवं रात्रि कैसे कटेगी यह सोचकर दिल घबराने-सा लगा। उड़ने को आतुर घायल पंछी जैसी मेरी हालत हो रही थी। अनमना जानकर पत्नी ने कुछ पूछने की हिम्मत की, पर ‘ठीक नहीं लग रहा है’, कहकर मैं उसे टाल गया। खाना खाने बैठा तो खाया नहीं गया। थाली सरका कर हाथ धोया। मुंह में सुपारी का कतरा डाला। ‘थोड़ा घूम कर आता हूं’, कहकर घर के बाहर निकल गया।
ठंड अपने शबाब पर थी। दोनों हाथ पतलून की जेब में कुनकुना कर रहे थे। तभी उंगलियों के पोर से कुछ सिक्के टकराए। अंदर ही अंदर उन्हें गिनने का प्रयास करता हूं। एक सिक्का और दो चवन्नियां भर जेब में पड़ी थीं। सोचा एक पान और एक सिगरेट का सेजा जम जायेगा। पान के ठेले पर चिर-परिचितों को पाकर आगे बढ़ जाता हूं। दूसरे पान के ठेले पर भी यही नजारा था। एक के बाद एक पान के ठेलों को पीछे छोड़ता हुआ काफी दूर चला आया था।
उद्विग्न मन लिये, मैं सड़क के किनारे-किनारे चला जा रहा था। तभी मैंने महसूस किया कि कोई व्हीकल मेरे पीछे आ रहा है। तनिक पलट कर देखा। एक चमचमाती जेन ठीक मेरे पीछे रेंग रही थी। मैं और थोड़ा हटकर चलने लगता हूं कि वह आगे निकल जाए, पर अब वह मुझसे सटकर चलने लगी।
सहसा गाड़ी में से एक हाथ निकलता है और मेरी कलाई को मजबूती से थाम लेता है। इस अप्रत्याशित घटना से मैं हड़बड़ा जाता हूं। मेरी पेशानी पर पसीना चो उठता है। मैं कुछ समझूं, इससे पूर्व ही वह दरवाजा खोलकर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसका इस तरह ऐंठकर खड़ा हो जाना मुझे ड्रैकुला की तरह लगा। मैं अंदर ही अंदर बुरी तरह से कांप उठा। उसने बड़ी बेतकल्लुफी से मेरे कंधे पर अपने भारी भरकम हाथ की धौंस जमाते हुए कहा, ‘क्यों...क्या हालचाल हैं।’ उसकी कड़कदार आवाज सुनकर मेरी तो जैसे घिग्गी ही बंध गई थी। कुछ कहना चाह भी रहा था, परन्तु जीभ जैसे तालू से चिपक गई थी और शब्द आकर गले में फंस गए थे। मेरी आंखें बराबर देख रही थीं। वह मंद-मंद मुस्करा रहा था। उसकी यह मुस्कान मुझे बड़ी वीभत्स सी लग रही थी।
प्रत्युत्तर न पाकर, उसने फिर वही प्रश्न दागा। कड़ाके की ठंड में मैं पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। आंखें पथरा-सी गई थीं और सोचने-समझने की शक्ति एकदम गायब हो गई थी। मैं बुत बना उसके सामने खड़ा था।
‘अरे यार, तेरा तो नर्वस ब्रेक डाउन हो गया लगता है। मैं कोई भूत-वूत नहीं बल्कि तेरे बचपन का दोस्त हूं। बरसों-बरस बाद तू मुझे दिखाई दिया सो सोचा कि कुछ सरप्राईज दूंगा, गौर से मेरी तरफ देख तो सही।’
उसके शब्दों में अब आत्मीयता की खुशबू आ रही थी, जिसने संजीवनी का काम किया। मैं अब होश में आने लगा था, बल्कि अब नॉर्मल हो गया था। मैंने उसके चेहरे को पहचानने की कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी। पहचान लायक कोई भी अवशेष उसके चेहरे पर नज़र नहीं आ रहे थे। एक हारे हुए जुआरी की तरह मेरी हालत हो गई थी।
‘वेरी सॉरी यार, मैं तुझे सचमुच नहीं पहचान पाया।’ मैंने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी असमर्थता उस पर प्रकट कर दी।
‘हां यार मुझे बड़ी हैरानी हो रही है कि तू मुझे पहचान नहीं पाया। सुन, तेरे बारे में मैं सबकुछ बताता हूं। तेरा नाम गोवर्धन है न? तू मुलनाई का रहने वाला है न? तुम डाक विभाग में कार्य करते हो न? तुमने छिन्दवाड़ा में अपना मकान बना लिया है न?’ उसने और भी ढेरों बातें मेरे बारे में बतलाईं।
उसने सचमुच ही मेरा सारा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया था। निश्चित ही वह मेरा पूर्व परिचित रहा होगा। तभी तो उसने इतनी सारी बातें मेरे बारे में बतलाईं। इतना सब कुछ घटित होने के बाद भी मैं उसे पहचान नहीं पा रहा था। मेरी नज़रें झुक आईं और निराशा का भाव मेरे चेहरे पर उतर आया था। उसने मुझे भरपूर नज़रों से घूरा और जोरदार ठहाका लगाया। और मुझ से कहने लगा, ‘अरे यार, इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है। अब तुम पूरे समय मेरे साथ रहोगे। तुम खुद-ब-खुद मुझे जान जाओगे। फिर भी यदि नहीं पहचान पाओगे तो मैं तुम्हें खुद ही अपने बारे में बता दूंगा। चल आ बैठ।’ उसने शालीनता से कार का दरवाजा खोला। मैं यंत्रवत्-सा गाड़ी में जा धंसा।
गाड़ी अब एक आलशीन बगीचे में से होते हुए गुजर रही थी। जगह-जगह फव्वारे रंग-बिरंगी रोशनी में थिरक रहे थे। बगीचे में लाईटिंग भी बड़े करीने से की गई थी। तभी कार एक आलीशान महल के सामने जाकर रुकती है। वह हार्न बजाता है। एक सूटेड-बूटेड वाचमैन आकर कार का दरवाजा खोलता है। वह कार के बाहर आ जाता है। उसके बाहर आते ही वाचमैन ने जोरदार सैल्यूट मारा। अब वह आगे बढने लगता है। वाचमैन ने आगे बढ़कर कांच का आदमकद दरवाजा खोला। अब वह अन्दर प्रवेश करने लगता है। मैं यंत्रवत्ड्ढ उसके पीछे हो लेता हूं। (क्रमश:)