दलित इस बार किसको वोट डालेंगे ?

भारतीय जनता पार्टी के आलोचक और उसे पराजित होते हुए देखने की इच्छा रखने वाले समीक्षक यह मान कर चल रहे हैं कि इस बार देश के ज्यादातर इलाकों के दलित वोटर ़गैर-भाजपा पार्टियों को समर्थन देंगे। उनकी दलील यह है कि भाजपा के ‘अबकी बार चार सौ पार’ नारे ने दलितों के मन को संदेह से भर दिया है। उन्हें विपक्ष, ़खासकर राहुल गांधी, के इस दावे पर तकरीबन यकीन है कि अगर भाजपा को इस बार 370 और एनडीए को चार सौ सीटें मिल गईं, तो वे संविधान को बदल कर आरक्षण को या तो समाप्त कर देंगे या सामाजिक न्याय के पहलुओं को बहुत ही कमज़ोर कर डालेंगे। 
वैसे भी दलितों को पता ही है कि यह भाजपा की मोदी सरकार ही थी, जिसने 2019 में ई.डब्ल्यू.एस. कोटा या आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए आरक्षण का कोटा तय करके ऊंची जातियों को पिछले दरवाज़े से आरक्षण दिलवाया था। संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर भी दिया जाना चाहिए। अगर भाजपा इस तरह का संविधान संशोधन कर सकती है, तो किसी भी तरह का कर सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि अगर दलितों ने इस बार भाजपा को कम या न के बराबर वोट दिया, तो पिछले दस साल से बनायी जा रही हिंदू राजनीतिक एकता में बहुत बड़ी दरार पैदा हो जाएगी। न केवल चुनाव में भाजपा को नुकसान होगा, बल्कि यह पार्टी एक बार फिर ब्राह्मण-बनिया पार्टी में सिमटने के लिए मज़बूर हो सकती है। वज़ह यह है कि अगर दलित इस मुद्दे पर ऩाखुश है, तो इसका प्रभाव कुछ न कुछ पिछड़ी जातियों पर भी पड़ सकता है। दलित राजनीति के क्षेत्र में यह एक नयी घटना होगी।
पंजाब और उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों से संदेश मिला था कि दलित राजनीतिक प्रोजेक्ट अगर बिखरा नहीं तो बंट अवश्य गया है। जो दलित शब्द 70वें दशक से ही धीरे-धीरे अनगिनत छोटी-बड़ी बिरादरियों में बंटी अनुसूचित जातियों की राजनीतिक अस्मिता का प्रतिनिधि वाहक बनता चला गया था, उसका विश्लेषण की एक श्रेणी की तरह इस्तेमाल करने पर इन जातियों की राजनीति एकता का बोध होना बंद हो गया है। इन चुनावों में दलित वोटों की खींचतान मची रही। उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख पहलू ़गैर-जाटव दलित वोटों को अपनी ओर खींचना था। उसे भरोसा था कि वह ऐसा कर पाएगी, क्योंकि 2017 और 1019 के चुनावों में उसे इस लक्ष्य में कामयाबी मिल चुकी है। इसी तरह समाजवादी पार्टी को लग रहा कि अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद संख्याबल में सबसे मज़बूत पासी जाति के वोट इस बार उसे मिलने वाले हैं। दलित एकता का बिखराव इस कदर बढ़ चुका था कि अब कोई औपचारिक रूप से भी नहीं पूछता कि बसपा को जाटव वोटों के अलावा कौन सी दलित बिरादरी के वोट मिलने वाले हैं। यह एक राजनीतिक समझ बन चुकी थी कि मायावती अब वास्तविक अर्थो में ‘दलित नेता’ न रह कर महज़ जाटव नेता बन कर रह गई हैं। उनकी मुश्किल आगे और भी बढ़ने वाली है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में जाटवों पर उनके दबदबे को ‘द ग्रेट चमार’ का नारा लगाने वाले भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से चुनौती मिलने ही वाली है। 
दलित राजनीतिक एकता के प्रयोग की शुरुआत पंजाब में हुई थी। कांशी राम के अपने शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो वे पंजाब के ही ‘रमदसिया चमार’ थे। आतंकवाद के ज़माने में बसपा जिस बहादुरी और कुर्बानी के साथ पंजाब में चुनाव लड़ी, वह अपने आप में एक मिसाल है। लेकिन जल्दी ही कांशी राम को लगने लगा कि देश में सबसे बड़ी दलित बिरादरी के बावजूद पंजाब में उसे अन्य कमज़ोर जातियों का सहयोग मिलने की परिस्थितियां नहीं हैं। दूसरे, पंजाब के दलितों में आम्बेडकरवाद का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था। डेरों के प्रभाव के कारण भी उनकी राजनीतिक गोलबंदी आसान नहीं थी। इसलिए वे इस फैसले पर पहुंचे कि पंजाब में बहुजन थीसिस परवान नहीं चढ़ सकती। इसलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में आजमाइश शुरू की। उन्हें एक जाटव नेता की खोज थी (उप्र की अनुसूचित जातियों में सत्तर प्रतिशत जाटव ही हैं), जो उनके बामस़ेफ और डीएस-़फोर के सहयोगियों में नहीं था। इस खोज में उनके हाथ मायावती लगीं जो आज ‘बहिनजी’ के रूप में बसपा की सर्वेसर्वा हैं। 
लेकिन क्या बहुजन थीसिस के आईने में देखने पर उन्हें कांशी राम का उत्तराधिकारी माना जा सकता है? कांशी राम ने जाटवों के नेतृत्व में अन्य दलित जातियों, अति-पिछड़ों और ़गरीब मुसलमानों को जोड़ कर एक बहुजन गुलदस्ता बनाया था। मायावती द्वारा पिछले बीस साल में जिस शैली की राजनीति की गई, उसके संचित परिणाम के कारण आज उनके साथ न तो अति-पिछड़े हैं न ही मुसलमान। ये वोट उन्हें तब मिलते हैं जब वे इनमें से किसी को टिकट देती हैं। जाटव मतदाता मोटे तौर पर आज भी हाथी पर बटन दबाता है, लेकिन अगर मायावती इसी तरह चुनाव की होड़ में मुख्य खिलाड़ी बनने से चूकती रहीं तो अगले चुनावों में वह अपना वोट बर्बाद करने से बचने के बारे में सोचने लगेगा। इस चुनाव में भी मायावती न कोई रैली कर रही हैं, न ही उनका हस्तक्षेप सशक्त है। जाटव मतदाताओं में यह रुझान पैदा होते ही मायावती का राजनीतिक सफर पूर्ण विराम की तरफ रवाना हो जाएगा। 2007 में अकेले दम पर सरकार बनाने के बाद उनका ग्ऱाफ लगातार गिर रहा है, और अब उनके बटुए में बहुत कम वोट रह गए हैं। हम जानते हैं कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलना तब शुरू होती हैं जब किसी के वोट बीस प्रतिशत से ऊपर जाते हैं। बसपा ने शुरू से ही आंदोलन की राजनीति में विश्वास नहीं किया। वह एक ‘स़ेफोक्रेटिक’ यानी विशुद्ध रूप से चुनावी सक्रियता पर निर्भर रहने वाली पार्टी रही है। अगर ऐसी पार्टी की नेता चुनाव के दौरान भी शिथिलता और निष्क्रियता दिखायेगी तो उसके इरादों पर संदेह भी होगा, और उसके संभावित हश्र पर अ़फसोस भी। विधानसभा चुनाव में बीबीसी का वह वीडियो क्लिप जिस किसी ने देखा है (इसमें मायावती कह रही हैं कि उनके लोग समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भाजपा को भी वोट दे सकते हैं), वह चक्कर में पड़ जाता है कि आखिरकार बहिनजी चाहती क्या हैं? इसी तरह जिस तरह से उन्होंने अपने भतीजे और उत्तराधिकार आकाश आनंद को हाशिये पर केवल इसलिए फेंक दिया कि उसने भाजपा की आक्रामक आलोचना की थी— उससे स़ाफ हो जाता है कि उनकी राजनीतिक फिलहाल करवट लेने वाली नहीं है।  
दलित राजनीति अपने होने के बावजूद आज वैसी नहीं रह गई है जैसी वह शुरुआत में थी या जैसा उसे वैचारिक रूप से कल्पित किया गया था। आज की ताऱीख में दलित नामक छतरी के नीचे खड़ी अनुसूचित जातियों की वोटिंग प्राथमिकताओं के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं रह गया है। आम्बेडकरवादियों और बहुजनावादियों की परियोजना अपनी गोधूलि वेला में प्रतीत हो रही है। अगर दलित मतदाताओं ने मायावती के उम्मीदवारों को पसंद नहीं किया तो वे किसे वोट देंगे? क्या भाजपा को? कम से कम इस चुनाव में तो लग नहीं रहा है। तो क्या वे समाजवादी पार्टी या कांग्रेस को वोट देंगे? इसका पता चार जून को लगेगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।