सैयां भये कोतवाल तो...

एक झूठ को बार-बार दुहरा दो, तो वह सभी को ही नहीं, झूठ बोलने वाले को भी सच लगने लगता है। इन दिनों एक झूठ कितनी बार हमारे समय के मसीहाओं ने दुहराया है कि अब उसे सच न मानने वाला बौडम लगने लगता है। कहां से शुरू करें यह बात बन्धुओ! चलो, अपनी, आपकी और देश की तरक्की से शुरू कर लें। हमें तो पौन सदी की आज़ादी में अपना हाल बेहाल देख कर यही लगता रहा है, कि हम पिछड़े थे, अभी भी पिछड़े हैं, और देश के विकसित घोषित हो जाने वाले शतकीय उत्सव में अनुकम्पा भोजन और रियायती, वार्षिक सम्मान निधि प्राप्त करते हुए भी पिछड़े रहेंगे।
बेशक इस बीच देश के सबसे तेज़ आर्थिक विकास हो जाने के नारों के बीच शीर्ष छूता निजीकरण महामारी के दिनों में भी खरबपतियों की संख्या के सबसे अधिक हो जाने की घोषणा कर गया। बेशक सम्पदा व्यवसायी आपको बता गये कि आजकल साठ लाख तक के फ्लैटों और छोटी कारों को स्तरहीन और समयच्युत माना जाता है। लोग खरीदते हैं तो ‘महंगे फ्लैट और बड़ी गाड़ियां।’ ये नये एक्सप्रैस रास्तों पर हवा की तेज़ी से उड़ती हुई किनारे-किनारे चलते पैदलों को यूं उड़ाती हैं, कि बाद में उनके अंजर पंजर तलाशने भी कठिन हो जाते हैं, लेकिन भय्या, यह तो विकसित देशों के सूचकांक में ऊंचा रैंक प्राप्त करने की कीमत है, जो वंचितों को प्रवंचित हो चुकानी ही पड़ती है।
प्रवंचित इसलिये कि कल वे टूटे झोंपड़े में थे, आज वे फुटपाथ पर आ गये। देश के स्मार्ट शहर अभियान में कूड़ा-कर्कट बुहारने के लिए बहुत-सी मशीनी योजनाएं बनाई जा रही हैं, लेकिन इन जीवित मरियल लोगों के कूड़े को कैसे बुहारें जिसकी संख्या हर आपदा के बाद बढ़ती जाती है। यह अनियमित आबादी बेकार हो फुटपाथों को घेर लेती है, तो आप कहते हैं, अतिक्रमण हो गया। लेकिन अब इस जीते जागते अतिक्रमण को कैसे बुहारें? बहुमंज़िली इमारतों की इस उभरती संवरती दुनिया में इन लावारिस ना- उम्मीदों के अम्बार नाजायज़ फटीचर बस्तियों के रूप में बढ़ते नज़र आ रहे हैं। शहरों की स्मार्टनैस उपलब्धियों पर इन बदनुमा बस्तियों के पैबन्द बढ़ते जा रहे हैं। शहरों की स्मार्टनैस शर्मिंदा होकर स्मार्टनैस के रैंक की कई सीढ़ियां नीचे उतर जाती है, लेकिन तरक्की का उत्सव मनाने वाले इसे नज़र-अन्दाज़ करके शहर-शहर में उभरते भव्य प्रासादों के चित्र खींचते हैं, नवकुबेरों की वन्दना करते हैं, और देश का भविष्य इनके हाथों में सुरक्षित बताते हैं।
कहां है देश का भविष्य? बेशक इस देश की आधी नौजवान काम करने योग्य आबादी इस जागते हुए युवा देश का भविष्य ही है, लेकिन यह भविष्य तो उचित काम न मिलने और रियायती अनाज की मुफ्त की रोटी खाते-खाते असमय ही बूढ़ा हो गया। उसे भूख से मरने न देने की गारण्टी सरकार ने ले रखी है। इसलिये इनमें से जो पराजय बोध से आत्महत्या करते हैं या जीते जी सूली पर टंग जाते हैं, उनका आंकड़ा मनोवैज्ञानिक कारणों से मर गये लोगों में चला जाता है, काम न मिलने की बेबसी में मरे लोग भूखे नहीं थे।
भूख से यहां कोई नहीं मरता। देश में बड़ी गाड़ियों ने सड़कों पर और शहरों में बढ़ती हुई ऊंची इमारतों की शोभा ने देश का नख-शख संवार दिया। उसे दुनिया की पांचवीं शक्ति बना दिया। इसे बार-बार सुन हमने सत्य मान लिया। तीसरी बड़ी शक्ति बनने का विश्वास हो गया। शतकीय आज़ादी उत्सव में विकसित हो दुनिया में सर्वोपरि हो जाने का नगाड़ा रियायती गेहूं बंटने की कतार में खड़े करोड़ों लोग देखो आज भी बजा रहे हैं, महाउत्सव के दिन भी बजायेंगे, फिर विश्वास करके गायेंगे ‘हमसे अच्छा कौन है, दिलो, जिगर लो जान लो।’
जिन्हें काम नहीं मिला था, वे रियायती गेहूं की अनुकम्पा प्राप्त करने का उदार कर्म अपने बुजुर्गों के हवाले कर विदेशों की ओर पलायन कर गये। अब इन देशों की सरहदों पर तनातनी बढ़ गयी, एक दूसरे पर परमाणु बम चला देने की धमकियां दी जाने लगीं, तो ये लोग व्यर्थ हो भारत लौटे या इन व्यर्थ लोगों का प्रवेश बहुमूल्य मुद्रा वाले देशों में कम हुआ, तो क्या चिन्ता? अपना देश है तो, तरक्की करता हुआ।
सुनो, देश डिजिटल हो गया। इन्टरनैट और कृत्रिम मेधा के विकास में आगे आगे हैं। लीजिये हथेलियों में सरसों जमाने के नये रास्ते खुल गये। डिजिटल ठगी नियमित हो गई। बाकायदा उसके दफ्तर खुल गये। ठगी और तस्करी अन्तर्राष्ट्रीय हो गई। इनके मुख्यालय विदेश से चलने लगे। आज नित्य नये ठगी के प्रयोग मासूम लोगों को लूटने के लिए देश में हो रहे हैं। मुद्रा तरक्की कर रही है। क्रिप्टो करंसी से लेकर ई-करंसी है। इनमें ठगी के विकास की अकूत सम्भावनाएं हैं। युवा हार कर विदेशों से लौटे, या जिसे महामारी ने जड़ों से उखाड़ा, वे इन नये व्यवसायों को गले लगा रहे हैं। डिजिटल ठग सम्राट बन रहे हैं।
जो यहां तक न आ सके, वे युवा पीढ़ी के लिये भट्टियों की शराब से लेकर हैरोइन का लकदक व्यापार करने के लिए दीक्षित हो रहे हैं। ‘ऐसे व्यवसाय को हम नेस्तोनाबूद कर देंगे’ सरकार के कारकुन दिलासा देते हैं। इतनी बार देते हैं, कि लगता है, सच ही इनके जीवन के दिन दो-चार रह गये।
लेकिन नेपथ्य से कोई हंसता  है, ‘सैयां भये कोतवाल तो अब डर काहे का।’ भय रहित तो वस्तुत: पूरा माहौल हो गया है। देखते नहीं, सड़कों पर लूट-खसूट होती है, और दिन दहाड़े फिरौतियों का बाज़ार गर्म हो गया इस नई पनपी बन्दूक संस्कृति में।’