निराशाजनक कारगुज़ारी
लोकसभा के चुनावों के दौरान पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी इस तरह तिनका-तिनका होकर बिखर जाएगी, इसकी कदाचित उम्मीद नहीं की जाती थी। मात्र सवा दो वर्ष पहले प्रदेश में जिस पार्टी की आंधी आई हो, लोगों ने एक उम्मीद तथा विश्वास के साथ जिसके लिए भारी समर्थन दिया हो, राजनीतिक मंच पर ऐसा पहले कभी न देखा गया हो, कि एक पार्टी के 117 सदस्यीय विधानसभा में 92 सदस्य सफल होकर आ जाएं। नि:संदेह यह सब कुछ बड़ा आश्चर्यजनक था परन्तु यह भी पहले कभी नहीं देखा गया कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी से लोगों का इतनी शीघ्र मोह-भंग हो गया हो। उसकी बनी विश्वसनीयता अनिश्चितता तथा निराशा में बदल गई हो। प्रदेश में लोकसभा की 13 सीटों पर चुनाव लड़ना, सवा दो वर्ष बाद इस सत्तारूढ़ पार्टी के लिए यह एक परीक्षा की भांति था।
मुख्यमंत्री भगवंत मान इन चुनावों में सफलता के लगातार बड़े-बड़े दावे करते रहे थे। हर जनसभा में उनकी ओर से 13-0 की गिनती की रटी रटाई मुहारनी ही दोहराई गई, परन्तु जैसे घर के भाग ड्यूढ़ी से ही पहचाने जाते हैं, वैसे ही सरकार ने जब अपनी चुनावी गतिविधियां आरम्भ कीं तथा उसने चुनाव मैदान में अपने उम्मीदवार उतारे तो उसने एक बार तो बेहद आश्चर्य पैदा कर दिया। लोगों के मन में सवाल उठने लगे कि प्रशासन चला रही पार्टी के पास क्या अपने नेताओं तथा अच्छे कार्यकर्ताओं की कमी है? क्योंकि लोकसभा चुनावों में नये चेहरे उतारने की बजाय पार्टी ने प्रदेश में अपने चार कैबिनेट मंत्रियों को ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के लिए उतार दिया। यहीं बस नहीं, अपितु तीन अन्य विधायकों को भी इन चुनावों में धकेल दिया। पार्टी संबंधी प्रतिबद्धता की स्थिति यह है कि इससे पहले जालन्धर के लिए हुये लोकसभा उप-चुनाव में उसने अपना तो कोई नेता नहीं ढूंढा, अपितु कांग्रेस पार्टी के एक नेता को ‘तोड़’ कर अपने उम्मीदवार के रूप में इस उप-चुनाव में उतार दिया गया। इस चुनाव को जीतने के लिए सरकार ने जो ढंग-तरीके अपनाये, वे बेहद परेशान करने वाले तथा राजनीतिक नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाने वाले थे। उसे किसी न किसी तरह जिता तो लिया गया तथा लोकसभा में पहलवान की भांति उतार भी दिया गया, परन्तु इन चुनावों में यह पहलवान रिंग से छलांग लगा कर दूसरे पक्ष के साथ जा मिला। इस पक्की ईमानदार कहलाती सरकार ने उसी समय अन्य किसी दूसरी पार्टी के ‘पहलवान’ को तोड़ कर पुन: रिंग में उतार दिया। चुनाव में इस पहलवान को भारी नमोशी का सामना तो करना ही पड़ा परन्तु इसने पार्टी की हालत को भी बेचारगी वाली तथा दयनीय बना दिया। इसके बावजूद चुनाव प्रचार के दौरान 13-0 की मुहारनी रटी जाती रही, परन्तु पार्टी की हुई दुर्दशा उस समय सामने आ गई जब रिंग में उतारे चार कैबिनेट मंत्रियों में से तीनों की बुरी तरह पीठ लग गई तथा चुनाव लड़ रहे अन्य तीन विधायक भी बुरी तरह हार के बाद निराशा में डूब गये। विधानसभा के सवा दो वर्ष पहले हुये चुनावों में इसने 42.01 प्रतिशत मत हासिल किये थे। इन लोकसभा चुनावों में यह सिर्फ 26.02 प्रतिशत मत ही हासिल कर सकी। चुनावों का दूसरा, अहम पहलू यह है कि आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय पर ‘इंडिया ब्लाक’ का हिस्सा तो बनी रही, परन्तु पंजाब के समूचे कांग्रेस नेतृत्व ने एक-स्वर में प्रदेश में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ने से पूरी तरह इन्कार कर दिया था। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता उन पर गठबंधन के लिए दबाव डालते रहे, परन्तु प्रदेश के पुख्ता एवं सचेत कांग्रेसी नेता अपने फैसले पर डटे रहे। हालत यह है कि कांग्रेस ने 13 में से 7 सीटों पर शानदार जीत प्राप्त की। यदि प्रदेश में कांग्रेस ‘आप’ के साथ मिल कर चुनाव लड़ती तो उसका हाल क्या होना था, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं।
इन चुनावों में कभी लम्बे समय तक इकट्ठे चुनाव लड़ते रहे अकाली दल तथा भाजपा ने भी अलग-अलग रूप से चुनाव लड़े। बहुजन समाज पार्टी भी अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरी, परन्तु इन पार्टियों में अकाली दल ही एक सीट प्राप्त कर सका, परन्तु भाजपा ने इन चुनावों में 18.5 प्रतिशत मत लेकर अपने वोट बैंक के आधार को ज़रूर बड़ी सीमा तक बढ़ा लिया। ये चुनाव आगामी समय के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी नीतियों संबंधी पुन: सोचने तथा उनके नवीकरण के लिए ज़रूर प्रेरित कर सकते हैं। विशेष रूप से आम आदमी पार्टी के लिए ये एक नया सन्देश ज़रूर बन सकते हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द