नई गठबंधन सरकार की समस्याएं और सम्भावनाएं
आज की ताऱीख का सबसे बड़ा और अहम सवाल यह है कि क्या मोदी और शाह की जोड़ी केन्द्र में गठबंधन सरकार चला पाएगी? जो लोग इस सवाल का उत्तर हां में देना चाहते हैं, उनकी दलील यह है कि मोदी और शाह आसानी से यह काम कर पाएंगे। उनके पास 240 सीटें हैं, जिनके कारण भाजपा गठबंधन की एक बेहद मज़बूत ‘एंकर पार्टी’ बन जाएगी। दूसरे, एनडीए में भाजपा के बाद सबसे बड़ी पार्टी तेलुगु देशम है, जिसके पास कुल जमा 16 सीटें हैं। इसके बाद जनता दल (यू) है जिसके पास केवल 11 सीटें हैं। इनके बाद एनडीए में पांच, दो और एक-एक सीटों वाली पार्टियां हैं। नायडू और नितीश ने अपनी राज्य सरकारें भी चलानी हैं। अगर वे केन्द्र सरकार में भागीदारी करते रहेंगे, तो उनकी सूबेदारी भी ठीक से चलती रहेगी।
लेकिन जो लोग इसका जवाब न में देना चाहते हैं, उनकी दलील है कि मोदी और शाह को गठबंधन चलाने का कोई तजुरबा नहीं है। उन्हें पिछले 22 साल से (12 साल गुजरात में और 10 साल केंद्र में) मनमानी की आदत पड़ गई है। पिछले दिनों बिहार और महाराष्ट्र के गठबंधनों को उन्होंने बहुत बुरी तरह से चलाया। वे अपने ही सहयोगी दलों को तोड़ने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें बिहार और आंध्र के लिए मोटे-मोटे आर्थिक पैकेज देने पड़ेंगे, जिससे उनकी वित्तीय स्थिति पर बहुत दबाव पड़ेगा। तेलगू देशम पार्टी मुसलमानों को आरक्षण देने के अपने वायदे पर अटल है। इससे भाजपा को दुविधा का सामना करना पड़ेगा। तुष्टीकरण का पूरा तर्क जिसे मोदी और शाह चुनावी मुहिम में दोहराते रहे, वह धराशायी हो जाएगा। और तो और, स्वयं अपनी पार्टी को चलाने के लिए उन्होंने जिस तरह की हेकड़ी और ज़ोर-ज़बरदस्ती का सहारा लिया— उसके कारण उन्हें अपने ही लोगों की बगावत का सामना करना पड़ सकता है।
जिस समय मोदी को एनडीए का नेता चुना जा रहा था, उसी समय इस गठजोड़ की समस्याएं अपनी चुगली जग-जाहिर हो रही थी। मंच पर जिस व्यक्ति की अनुपस्थिति थी, उसका नाम जयंत चौधरी था। उन्हें नीचे सांसदों की भीड़ के बीच बैठाया गया था। माँझी, पासवान और अनुप्रिया पटेल जैसे नेता जब मोदी को नेता बनाने के प्रस्ताव का अनुमोदन करने बारी-बारी से माइक पर बुलाये जा रहे थे, उस समय दो सांसदों वाले जयंत यह सब दूर बैठे देख रहे थे। यहां सवाल एक या दो सांसदों का भी नहीं है। जयंत उस जाट समाज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित नेता हैं जिसके वोटों से भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में आम तौर पर वंचित रह गई है। ध्यान रहे कि जाट पट्टी बहुत बड़ी और प्रभावशाली है— पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब मिला कर 60 से ज्यादा सीटों तक उसका असर फैला हुआ है। कोविड के संकट का ़फायदा उठा कर तकरीबन ़खुफिया तौर पर बनाये गये तीन कृषि कानून और उनके खिलाफ हुए बहुत लम्बे ऐतिहासिक किसान आंदोलन के संचित प्रभाव के कारण इस लोकसभा चुनाव में भाजपा को इस पट्टी में मुंह की खानी पड़ी है। ऐसे में स्वाभाविक तो यही होता कि भाजपा जयंत चौधरी को धो-पोंछ और चमका कर मंच पर पेश करती। लेकिन उसने ऐसा न करके उनकी उपेक्षा की। चाहे मंत्रिमंडल में चौधरी को उनकी इच्छा अनुसान हिस्सेदारी मिल गई है, लेकिन इस कार्यक्रम में उनका जो अपमान हुआ है, उसे भुलाना उनके लिए मुश्किल होगा। यह घटना इस गठजोड़ के भविष्य के लिए अनुकूल साबित नहीं हो सकती।
अगर ये बाहरी समस्याएं हैं तो मोदी और शाह को एक भीतरी समस्या का भी सामना करना पड़ सकता है। यह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से तालमेल बैठाने की समस्या। इस संबंध में हम पहले भी इस समस्या की चर्चा कर चुके हैं। इसमें नयी सूचना यह है कि चुनाव के बीच में दिल्ली में संघ परिवार और भाजपा के नेतृत्व की एक बैठक हुई थी। समझा जाता है कि मोहन भागवत और दत्तात्रेय होसबोले की मौजूदगी में मोदी और शाह ने इसमें दावा किया था कि भाजपा को कम से कम 325 सीटें मिलेंगी, लेकिन मिलीं ढाई सौ से भी कम। इसी बैठक के बाद अतिआत्मविश्वास से भरी हुई पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकास नड्डा ने इंडियन एक्सप्रैस को दिये एक इंटरव्यू में दावा कर दिया कि अब भाजपा इतनी सक्षम हो गई है कि उसे संघ की मदद की आवश्यकता नहीं रही। संघ की भाजपा के संचालन में अब कोई भूमिका नहीं रह गई है।
इस घटनाक्रम के बाद जब एग्ज़िट पोल के कारण भाजपा खुश हो रही थी, उस समय महाराष्ट्र के एक संघ विचारक ने रहस्योद्घाटन किया कि जब भाजपा को 300 से ज्यादा सीटें मिल जाएंगीं तो संघ उन प्रचारकों को वापिस बुलाना शुरू कर देगा, जो भाजपा के भीतर संगठन मंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं। इनकी संख्या विशाल है और पूरी भाजपा इन पर आधारित है। अब वह सूरत तो बनी नहीं। भाजपा स्पष्ट बहुमत वाली पार्टी रही नहीं। अब संघ क्या करेगा? क्या वह भाजपा से अलग होने का प्रयास करेगा, या जुड़ा रहेगा? जुड़ा रहेगा तो किन शर्तों पर? क्या वह भाजपा की गठजोड़ सरकार से व्यवहार करेगा जो किसी ज़माने में अटल बिहारी सरकार से करता था? या दोनों के बीच तालमेल का कोई और ़फारमूला बनेगा? इन प्रश्नों के जवाब पर नयी एनडीए सरकार का आंतरिक स्वास्थ्य निर्भर करता है।
पराजय के तुरंत बाद से ही भाजपा के प्रवक्तागण और उनके लुके-छिपे समर्थक अल्पसंख्यक विरोधी जहर उगलने में लग गए हैं। दरअसल, पिछले दस सालों की राजनीति के कारण उन्हें लगने लगा था कि उन्होंने भारतीय चुनावी राजनीति में ‘मुस्लिम वीटो’ (वोट डाल कर भाजपा को सत्ता में आने से रोकना) की समस्या का समाधान कर लिया है। उ.प्र. और गुजरात जैसी जगहों पर मुस्लिम वोट की प्रभावकारिता शून्य कर दी गई है। लेकिन इस चुनाव में हिंदू एकता बिखर जाने के कारण भाजपा विरोधी मुसलमान वोट फिर से असरदार होता लग रहा है। प्रश्न यह है कि अगर भाजपा इसी तरीके से पार्टी स्तर पर भीषण साम्प्रदायिक बयानबाज़ी करती रही तो उसकी सरकार और सहयोगी दलों के ऊपर क्या असर पड़ेगा? विधानसभा चुनावों में यह बयानबाज़ी और भी ज्यादा ज़हरीली हो जाती है। कुछ दिनों तक तो सहयोगी दल यह सहन कर सकते हैं लेकिन फिर उनकी तरफ से आपत्तियां शुरू हो जाएंगी। उस सूरत में भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति गठजोड़ धर्म को आहत करना शुरू देगी। यह ऐसी स्थिति है जिसके फलितार्थों की आज कल्पना नहीं की जा सकती। सहयोगी दलों ने अगर सत्ता के लालच में इसका कोई विरोध नहीं किया तो उन्हें सार्वजनिक जीवन में कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ सकता है। ज़ाहिर है कि समस्याएं बहुत हैं, और उनकी संगीन किरदार का अभी अनुमान लगाना मुश्किल है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।