क्या भाजपा फिर ऊंची जातियों की पार्टी बनती जा रही है ?

क्या भारतीय जनता पार्टी सर्व-हिंदू समाज की पार्टी बनते-बनते एक बार फिर ब्राह्मण-बनिया (ऊंची जातियों) की पार्टी बनने की तरफ चली गई है? यह एक ऐसा सवाल है जिसे भाजपा कभी न कभी अपने आप से तो पूछेगी ही, साथ ही हमारे जैसे राजनीतिक समीक्षकों को भी अपने-आप से यह सवाल पूछना चाहिए। आखिरकार राजनीतिक समीक्षकों ने ही पिछले 7-8 साल में बार-बार यह कहा है कि भाजपा अब ब्राह्मण-बनिया पार्टी नहीं रही। ओ.बी.सी. जातियों और दलित जातियों का एक बड़ा हिस्सा उस पर यकीन करने लगा है। वह उसे बार-बार वोट देता है, क्योंकि वह सामाजिक न्याय की पारम्परिक पार्टियों द्वारा प्रभुत्वशाली ओ.बी.सी. जाति (यादव) और प्रभुत्वशाली दलित जाति (जाटव) के दबदबे से खुश नहीं है। वह नहीं चाहता कि सामाजिक न्याय और ब्राह्मणवाद विरोध की फिकरबाज़ी से प्रभावित होकर इन पार्टियों को वोट देता रहे, और बदले में उसे न तो चुनाव में टिकट मिलें, और न ही नौकरियां या शिक्षा संस्थाओं में दाखिले। लेकिन यह कहते हुए हमने यह जांच कभी नहीं कि क्या वास्तव में भाजपा ‘समरसता’ और ‘राजनीतिक में समान अवसर’ के आश्वासन के तहत इन ़गैर-यादव और ़गैर-जाटव जातियों को कुछ ठोस लाभ भी पहुंचा रही है या केवल बातें ही हो रही हैं। इन चुनावों ने दिखाया है कि ़गैर-यादव और ़गैर-जाटव जातियों के समर्थन के दम पर पिछले दस साल से बन रही हिंदू राजनीतिक एकता पहले की तरह मज़बूत नहीं रह गई है। 
दरअसल, लोकसभा चुनावों के परिणामों ने संघ परिवार के प्रोजेक्ट को गम्भीर धक्का पहुंचाया है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थकों के बीच इस धक्के की अभिव्यक्ति इस अ़फसोस के रूप में रही है कि ‘देखिये, हिंदू ही हिंदू को हराते हैं।’ सोशल मीडिया पर अयोध्या के वोटरों की जिस तरह लगभग हिंसक लहज़े में लानत-मलामत हो रही है, वह इसका एक दूसरा प्रमाण है। यहां प्रश्न यह है कि किस ‘हिंदू’ ने किस ‘हिंदू’ को हराया है? सीएसडीएस-लोकनीति के ताज़े चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण के आंकड़ों पर जाएं तो स्पष्ट रूप से ऊंची जातियों के हिंदू वोटरों ने भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र, ़खासकर उत्तर प्रदेश में, भाजपा का बड़े पैमाने पर साथ दिया। लेकिन, दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों से भाजपा को पसंद करने वाली पिछड़ी जातियों और दलित जातियों के वोटरों ने इस बार या तो कुछ कम वोट दिये या बहुत कम वोट दिये। रामजन्मभूमि आंदोलन के ज़माने से ही भाजपा और संघ परिवार की तरफ से कमज़ोर समझी जाने वाली जातियों और समुदायों को आश्वासन देता रहा है कि उन्हें ऊंची जातियों के मुकाबले राजनीति और अर्थव्यवस्था में ‘लेबिल प्लेइंग ़फील्ड’ मिलेगा, क्योंकि  संघ किसी के साथ जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। लगता है कि समाज की बहुसंख्या बनाने वाली इन जातियों को हिंदुत्ववादियों के इस दावे पर य़कीन नहीं रह गया है। क्या इसका कोई तथ्यात्मक आधार है?
2024 की लोकसभा के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ द्वारा दिये गये टिकटों और जीते उम्मीदवारों पर तुलनात्मक ़गौर करते ही इस प्रश्न का जवाब मिलने लगता है। ऊंची जातियों को एनडीए ने ऊंची जातियों को 31.3 प्रतिशत टिकट दिये, और ‘इंडिया’ ने केवल 19.2 प्रतिशत। उनकी जीत-हार में भी यही अंतर दिखना स्वाभाविक है। एनडीए के सांसदों की 33.2 प्रतिशत संख्या ऊंची जातियों में से होगी, और ‘इंडिया’ के लिए यही संख्या महज़ 12.4 प्रतिशत होगी। ओ.बी.सी. जातियों से एनडीए ने 25.5 प्रतिशत टिकट दिये। ‘इंडिया’ ने ज्यादा यानी 26.9 प्रतिशत ओ.बी.सी. टिकट बांटे। एनडीए के ओ.बी.सी. सांसद अब 26.2 और ‘इंडिया’ के 30.7 प्रतिशत होंगे। प्राथमिकता का यह अंतर दलित जातियों में और भी स्पष्टता से उभरता है। ज़ाहिर है कि सुरक्षित सीटों पर दोनों मोर्चों को दलित ही खड़े करने थे। लेकिन, ‘इंडिया’ ने दलितों को कई सामान्य सीटों पर भी खड़ा किया। फैजाबाद (अयोध्या) की सीट पर अवधेश पासी और पूर्वी दिल्ली की सीट पर कुलदीप कुमार का टिकट इसका सिर्फ एक प्रमाण है। नतीजा यह निकला कि इस बार ‘इंडिया’ के पास दलित सांसद 15 प्रतिशत आबादी से ज्यादा (17.8 ़प्रतिशत) होंगे। और तो और, अल्पसंख्यकों में ईसाईयों और सिखों (मुसलमानों को तो भाजपा टिकट देती ही नहीं) में भी ‘इंडिया’ गठबंधन ने एनडीए से ज्यादा (0.2/2.7 और 0.4/2.4) प्रतिशत टिकट दिये। एनडीए के पास इनका एक भी सांसद नहीं होगा और इंडिया के पास  3.5 और 5.0 प्रतिशत सांसद होंगे।
  मेरा ख्याल है कि जब इन आंकड़ों को दलित और ओ.बी.सी. जातियों ने बुद्धिजीवी और नेता देखेंगे, तो उन्हें भाजपा या एनडीए को कम या बहुत कम वोट देने की अपनी प्राथमिकता पर संतोष होगा। उनकी यह धारणा और मज़बूत होगी कि उन्हें ‘लेबिल प्लेइंग ़फील्ड’ देने वाली भाजपा अंतत: ब्राह्मण-बनिया पार्टी ही साबित हो रही है। यहां इस प्रश्न पर भी ़गौर करने की ज़रूरत है कि जब विपक्ष के नेताओं (़खासकर राहुल गांधी ने) संविधान की किताब हाथ में लेकर यह प्रचार करना शुरू किया कि मोदी जी को 400 सीटें इसलिए चाहिए कि संविधान और आरक्षण के प्रावधानों को बदला जा सके, तो दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों ने इस आरोप को तत्परता से क्यों सही मान लिया? इस प्रश्न का एक उत्तर भाजपा सरकार द्वारा किये गये उस संविधान-संशोधन में निहित है जो उसने ई.डब्ल्यू.ए.एस. (आर्थिक आधार पर कमज़ोर वर्ग) कोटे की स्थापना के रूप में तकरीबन पाँच साल पहले किया था। 
क्या उस समय आरक्षण के पारम्परिक लाभार्थियों ने इस पर ़खुशी जताई थी? नहीं। यह सीधे-सीधे ऊंची जातियों को आरक्षण के दायरे में पिछले दरवाज़े से घुसेड़ने का हथकंडा था, लेकिन वे कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। चुपचाप उन्होंने संविधान की भावना का उल्लंघन करने वाले इस संविधान-संशोधन को देखा-समझा और वक्त का इंतज़ार करते रहे। आज भाजपा चाहे तो देख सकती है कि 60 के दशक से ही उसे वोट करने वाले लोधियों ने इस बार उत्तर प्रदेश में उसे पसंद क्यों नहीं किया। इसी तरह हर बार उसे वोट करने वाले पासियों ने इस बार कमल पर बटन क्यों नहीं दबाया। ़गैर-यादव पिछड़ों और ़गैर-जाटव दलितों ने हर बार की तरह उसे समर्थन क्यों नहीं दिया। अनुसूचित जातियों वाले निर्वाचिन क्षेत्रों ने भाजपा को इस बार 30 से ज्यादा वे सीटें हराई हैं जो पिछली बार उसने जीती थीं। उसे उम्मीद थी कि मायावती के समर्थन आधार से कुछ न कुछ वोट तो मिलेंगे ही, पर सारे वोट साइकिल या हाथ पर गये। 
हिंदू राजनीतिक एकता के बिखरने का एक बड़ा परिणाम यह निकला कि मुसलमान वोटरों की ़खत्म हो चुकी प्रभावाकारिता ने अपनी वापिसी कर दिखाई। इसी प्रभावकारिता को भाजपा वाले ‘मुस्लिम वीटो’ के नाम से पेश करते रहे हैं। क्या भाजपा हिंदू राजनीतिक एकता के अपने प्रोजेक्ट को फिर से खड़ा कर पायेगी? उसे समझना होगा कि प्रधानमंत्री द्वारा ़खुद को ओ.बी.सी. कहने, या पार्टी या मंत्रिमंडल के ओ.बी.सी. सदस्यों की संख्या गिनाने से काम नहीं चलने वाला है। पार्टी के कथित ओबीसीकरण की आड़ में ऊंची जातियों को लाभ पहुंचाने के हथकंडे का ही यह कुल जमा परिणाम है।


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।