विपक्ष के हाथ लग गया ‘पेपर लीक’ का बड़ा मुद्दा

एन.डी.ए. सरकार ने 9 जून को शपथ ली और कांग्रेस ने उसके 15 दिन पूरे होते-होते उसके खिलाफ सड़कों पर आंदोलन छेड़ दिया है। यह एक बानगी है, जिसके ज़रिये समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री को किस तरह के विपक्ष का सामना करना पड़ सकता है। नयी लोकसभा में जो विपक्ष चुन कर आया है, वह भारत के संसदीय इतिहास का सबसे मज़बूत और संख्या बल के कारण विश्वास से भरा हुआ विपक्ष है। कांग्रेस नीट परीक्षा से जुड़े जिस घोटाले के संदर्भ में आंदोलन कर रही है, उसके कारण भाजपा के भीतर भी तनाव और अंतर्विरोध पैदा हो गये हैं। इस समय टीवी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नुमाइंदगी करने वाले कथित संघ विचारक भी इस मसले पर सरकार की आलोचना कर रहे हैं। सरकार पूरी तरह से बचाव की मुद्रा में है। पिछले दस साल से संघ इस समझदारी के साथ काम कर रहा था कि वह शिक्षा के क्षेत्र को नियंत्रित कर रहा है। इस दौरान होने वाले पेपर लीक की तरफ उसने ध्यान नहीं दिया। लेकिन डॉक्टरी की परीक्षा के पर्चे लीक होने से उसका दिमाग भी ठनका है। उसे लग रहा है कि सरकार ठीक काम नहीं कर रही है। संघ भी ‘संकल्प’ नाम से एक कोचिंग इंस्टीट्यूट चलाता है। वह सोच सकता है कि अगर उसके यहां से तैयार किये गये प्रतियोगियों को इस तरह के पेपर लीक का सामना करना पड़े तो उनके लिए कितनी मुश्किल आ सकती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भाजपा की सरकार ने विपक्ष को प्लेट में रख कर यह मुद्दा दे दिया है।   
नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने अपने प्रेरक संकल्पों की सूची में एक इजाफा और कर दिया है। उन्होंने भारत को ज्ञान और शिक्षा का वैश्विक केंद्र बनाने की शपथ ले ली है। उनके वक्तव्य की पृष्ठभूमि दोहरी और एक-दूसरे को काटने वाली है। एक तरफ हमारे एक प्राचीन विश्वविद्यालय के आधुनिक जीर्णोद्धार की महत्वाकांक्षी योजना है। दूसरी तरफ डॉक्टरी की नीट परीक्षा और यूजीसी-नेट परीक्षा के बहुचर्चित और बहुविवादित घोटालों के कारण मचा हुआ हंगामा है। इसी समय 12वीं तक पढ़ाई कर चुकी केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक सदस्य द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे चार आसान शब्द भी ठीक से न लिख पाने का प्रकरण भारतीय शिक्षा के एक दुखद रूपक की तरह हमारे सामने आ गया है। ज़ाहिर है कि आज की तारीख में हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली के स्तर पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है। इसलिए इस विरोधाभास की रोशनी में प्रधानमंत्री के संकल्प और ज़मीनी ह़क़ीकत के संबंधों पर ़गौर करना ज़रूरी हो गया है। 
मोटे तौर पर हम शिक्षा की व्यवस्था को तीन चरणों में बांट कर समझ सकते हैं। पहला चरण प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को मिला कर बनता है। बुनियादी शिक्षा के लिए ज़रूरी इस दौर को पार करते-करते विद्यार्थी बचपन से किशोर अवस्था के आखिर में पहुंच जाता है। फिर शुरू होता है विश्वविद्यालय प्रणाली के तहत उच्च शिक्षा का दौर। इसके तहत बी.ए., एम.ए. और पी.एच.डी. वगैरह की डिग्रियां मिलती हैं। दरअसल, माध्यमिक शिक्षा खत्म होते-होते हमारे युवा और युवतियां तय करने लगते हैं कि वे शिक्षक बनेंगे या व्यापारी, पुलिस में जाएंगे या ़फौज में, वकील बनेंगे या न्यायाधीश, क्लर्क बनेंगे या नौकरशाह। या फिर वे डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टेड एकाउंटेंट और मैनेजर आदि बनना पसंद करेंगे। यहीं से तरह-तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं के चरण की निर्णायक भूमिका शुरू होती है। 
ये तीनों चरण संसाधनों की कमी, बदइंतज़ामी और भ्रष्टाचार की बहुतायत और परले दर्जे की स्तरहीनता से बेहाल पड़े हुए हैं। प्रधानमंत्री जिस अर्थव्यवस्था का पिछले दस साल से संचालन कर रहे हैं, उसके तहत शिक्षा पर जीडीपी का केवल तीन प्रतिशत के आसपास निवेश हो रहा है। जैसा पवित्र संकल्प उन्होंने नालंदा में लिया है, उसी तरह के एक पवित्र संकल्प के मुताबिक इसे दोगुना यानी 6 प्रतिशत होना चाहिए था। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की हालत यह है कि छात्र उत्तीर्ण हो कर आगे की कक्षाओं में पहुंच जाते हैं लेकिन उनमें नीचे की कक्षाओं के बराबर पढ़ने और गणित लगाने की क्षमता नहीं होती। डिग्रियां पा लेने के बावजूद उनकी अकादमिक क्षमताएं बेहद निचले स्तर की होती हैं। ज्यादातर 10वीं पास नौजवान बाज़ार के मानकों के लिहाज़ से रोज़गार पाने लायक नहीं होते। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी का मार्किट पूरी तरह से निजी क्षेत्र में है। पुलिस या ़फौज के सिपाही से लेकर आई.ए.एस.-डॉक्टर-इंजीनियर-मैनेजर तक की कोचिंग निजी ़खर्चे पर उपलब्ध है। लेकिन जैसे ही ट्रेनिंग लेकर हमारा युवावर्ग प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता है, वह पिछले 20 साल से लगातार चल रहे एक राष्ट्रीय घोटाले की भेंट चढ़ जाता है। इस स्केंडल का नाम है पेपर लीक। चुटकुला यह चल रहा है कि किसी ज़माने में भारत में गैस लीक होती थी, अब पेपर लीक होते हैं। 80 के दशक से पहले पेपर लीक की ऐसी घटना अपवादस्वरूप ही होती थी। आज पेपर लीक न हो, यह अपवाद है। प्रधानमंत्री दस साल से इस शिक्षा-व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने नयी शिक्षा नीति भी लागू करने का अभियान चला रखा है। मौजूदा शिक्षा मंत्री 2021 से इस सब के इंचार्ज हैं। राज्यों में ज्यादातर उसी पार्टी की सरकार है जिसकी केन्द्र में है।
हम सब जानते हैं कि बरसों से शिक्षा का एक भूमिगत बाज़ार है। संगठित होकर नकल कराने वाले म़ािफया के बारे में सभी को पता है। पर इस तथ्य से लोग जानते हुए भी अनजान  बने रहते हैं कि पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में न जाने कितने ऐसे अध्यापक हैं जिनकी जगह कोई और पढ़ाता है। नियुक्ति पाने वाला केवल तनख्वाह उठाता है और अपनी जगह पढ़ाने वाले को उसका एक हिस्सा दे देता है। ज़ाहिर है कि उस विद्यालय के प्रधानाचार्य की भी इसमें मिली भगत होती है। मोटी रकम देकर किसी भी विषय में पीएचडी की थीसिस लिखवाने का एक पूरा कुचक्र मुद्दतों से चल रहा है। हज़ारों-लाखों में कोई-कोई थीसिस ही ढंग की होती है। बाकी सभी स्तरहीन, घिसे-पिटे शोध, कटपेस्ट या खानापूरी वाले ़फील्डवर्क पर आधारित होती हैं।
हमारे विश्वविद्यालय ज्ञानार्जन के केंद्र नहीं रह गये हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कोर्स पूरा कराने के लिए होने वाली टीचिंग की ज़िम्मेदारी ही पूरी कर पाते हैं। उन्हें मिलने वाली रेटिंग एक धोखा है, क्योंकि वह पीएचडी की डिग्रियां बांटने की संख्या पर आधारित होती है। मौलिकता और अकादमिक श्रेष्ठता से पूरी तरह से वंचित शोध-प्रबंधों के आकलन की इस रेटिंग में कोई भूमिका नहीं होती। उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र जब मुंह खोलता है तो दिल्ली जैसे महानगरीय शिक्षा संस्थानों के अपवाद को छोड़ कर उसके मुंह से न हिंदी निकलती है, न अंग्रेज़ी। वह एक निहायत ही गिरी हुई खिचड़ी भाषा (पिडगिन या क्रियोल) बोलता है। शिक्षा का अधिकांश हिस्सा सरकारी क्षेत्र में है, पर उसका तेज़ी से निजीकरण किया जा रहा है। यह मानना खुद को धोखा देना है कि निजीकरण होने से उसकी खस्ता हालत ठीक हो जाएगी। केवल बड़े-बड़े संकल्प लेने और आकर्षक लगने वाले दावे करने से काम नहीं चलने वाला है। शिक्षा की बदहाली का सीधा संबंध देश में बेरोज़गारी की समस्या से है। फिर भी शिक्षा हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नीचे है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।