मोदी सरकार 3.0 : अनुकूल हैं आर्थिक परिस्थितियां

अपने बूते पिछले दो बार पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली मोदी सरकार के लिए इस बार तीसरा कार्यकाल जो स्वयं के बजाय एनडीए के साये में शुरू हुआ है, उसकी राजनीतिक परिस्थितियां अभी भले उतनी खुशगवार न हों, मगर आर्थिक परिस्थितियां बेहद अनुकूल हैं। ऐसे में तीसरी मोदी सरकार की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण जब अपना वर्ष 2024-25 का अगले महीने जुलाई में पूर्ण बजट पेश करेंगी, तो उन्हें सरकार की आमदनी और खर्चे में संतुलन बिठाने में ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी। दूसरी तरफ वित्तमंत्री को नवगठित सरकार की बुनियादी क्षेत्र के विकास के नये विजन को बजट प्रावधान में डालने में भी ज्यादा सहूलियत होगी। बताते चलें कि भारतीय अर्थव्यवस्था को बीते वित्तवर्ष 2023-24 में करीब पौने सात प्रतिशत विकास दर हासिल होने जा रही है। यदि मौजूदा 2024 वर्ष की बात करें तो भारत की आर्थिक विकास दर अभी आठ प्रतिशत को छू रही है जो दुनिया में सर्वाधिक है। इसके बाद चीन और इंडोनेशिया का नंबर है जो लगभग पांच प्रतिशत विकास दर के आसपास हैं। 
भारतीय अर्थव्यवस्था की बात करें तो जीएसटी वसूली में पिछले साल के मुकाबले करीब दो लाख करोड़ की बढोत्तरी होने जा रही है। पिछले एक साल में देश के राज्यों के खाते में जीएसटी सहित सभी केन्द्रीय मदों से करीब 11.3 लाख करोड रुपये का स्थानांतरण हुआ है जो पहले के मुकाबले 1.8 लाख करोड़ ज्यादा है। भारत की विदेशी मुद्रा कोष में इधर लगातार इजाफा हुआ है और यह राशि अभी साढ़े छह खरब डालर के ऊपर जा चुकी है। इन सब बातों का नतीजा ये है कि कोरोना काल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में आयी भारी गिरावट से वित्तीय घाटे का आकार जो सकल घरेलू उत्पाद के छह प्रतिशत से ऊपर चला गया था, उसमें अब निरंतर गिरावट दर्ज होने लगी है। सीजीए द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2023-24 में वित्तीय घाटे का पुनरीक्षित अनुमान 5.8 प्रतिशत से और कम होकर 5.6 प्रतिशत होने का अंदाजा है; क्योंकि भारत सरकार का राजस्व संग्रह अनुमान से 1.2 प्रतिशत ज्यादा यानी कुल 23.3 लाख करोड़ प्राप्त हुआ है। 
आगामी पूर्ण बजट में बहुत संभव है कि वित्तीय घाटे का आंकड़ा जो वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट में 5.1 प्रतिशत निर्धारित किया गया था, उसे राजस्व संग्रह के बढ़ते ट्रेंड की वजह से और कम अनुमानित किया जाए और एफआरबीएम कानून के तहत वित्तीय घाटे को चार प्रतिशत तक ले आया जाए। इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के सेक्टरवार प्रदर्शन को देखें तो इस साल अप्रैल में आठ बुनियादी क्षेत्रों की उत्पादन वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत थी, जो गत वर्ष इस समय 4.6 प्रतिशत थी। आधार वर्ष 2011-12 के मूल्यों के अनुसार भारत की कृषि पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में आधी प्रतिशत, खनन 4.3 प्रतिशत, मैन्युफैक्चरिंग 8.9 प्रतिशत, बिजली 7.7 प्रतिशत, निर्माण 8.7 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। भारतीय अर्थव्यवस्था की भावी विकास दर को लेकर दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियों में अभी अनुमानों की बौछार लगी हुई है। भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर को लेकर ये सभी अनुमान साढ़े 6 प्रतिशत से साढ़े 7 प्रतिशत के बीच लगाए गए हैं। मगर तमाम विशेषज्ञों द्वारा ये भी माना जा रहा है कि पिछले कुल सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था में आधारभूत संरचना में बढ़ाये गए निवेश के नतीजे वर्ष 2025 से जो आने शुरू होंगे वे भारतीय अर्थव्यवस्था को 8 प्रतिशत की विकास दर की ट्रैजेक्टरी में स्थायी रूप से ले जाएंगे।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महंगाई और बेरोज़गारी दो ऐसी चुनौतियां हैं, जिनके मायने अब आर्थिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक हैं। अभी बीते लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने बड़े पुरजोर तरीके से इन दोनों मुद्दों को उठाया और इस वजह से सत्तारूढ़ दल को पूर्ण बहुमत हासिल करने में दिक्कत हुई। बहुत संभव है कि आगामी बजट में वित्तमंत्री पर स्फीति नियंत्रणकारी और रोजगारोन्मुखी नीतियों से युक्त बजट विजन निर्मित करने का दबाव होगा। यदि अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक स्थिति के अंदर झांका जाए तो मुद्रास्फीति अभी मौजूदा साल में 4.5 प्रतिशत के लगभग है, जो रिजर्व बैंक के 4 प्रतिशत के लक्ष्य से थोड़ा ज्यादा है। रिजर्व बैंक द्वारा पिछले तीन साल से निरंतर टाइट मौद्रिक नीति का अनुपालन भी इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है। मुद्रास्फीति की बात करें तो इसे लेकर अभी देश में एक नया विमर्श ये शुरू हुआ है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों में केवल कृषि जनित उत्पादों को क्यों शामिल कर उन पर मूल्य नियंत्रण का दबाव डाला जाता है जो कृषि क्षेत्र उत्पादकों के प्रति अन्याय है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में गैर कृषि तमाम उपभोक्ता वस्तुओं को शामिल करना इसलिए ज़रूरी है ताकि उनकी कीमतों के प्रति भी देश में संवेदनशीलता निर्मित हो। रोजगारोन्मुखी नीतियों की बात करें तो इसे लेकर केन्द्र व राज्य सरकार पर आगामी बजट के जरिये ये दबाव ज़रूर बनेगा कि वे अपने हिस्से में खाली पड़ी सभी 70 लाख रिक्त पदों को भरें और बेरोज़गारों के हाहाकार पर काबू पाएं चाहे इसके लिए रोज़गार व श्रम नीतियों को कांट्रेक्चुअल क्यों न करना पड़े।
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती मुफ्तखोरी यानी फ्री बीज की तमाम सामाजिक आर्थिक योजनाओं के वित्तीय परिचालन को लेकर मिलने वाली है। जिस तरह से बीते लोकसभा चुनाव में देश के तमाम राजनीतिक दलों में जनता को मुफ्त व नकद स्थानांतरण देने की तमाम घोषणाओं की होड़ लगी, उसे केन्द्र सहित सभी राज्य सरकारों के राजखजाने पर भारी दबाव पड़ने का दौर आएगा। मुफ्त अनाज, बिजली, पेयजल, बस यात्रा, तीर्थाटन, के अलावा लोन माफी व एनपीए की विशाल राशि तथा तरह-तरह की सब्सिडी के खर्च तथा भारी भरकम पुरानी पेंशन के खर्चे को इकट्ठा करें तो देश की मौजूदा तीव्र विकास दर से हासिल राजखजाने का कचूमर तो निकलेगा ही बल्कि देश में एक व्यापक अनुत्पादक व खैराती अर्थव्यवस्था का बीजारोपण होगा।
 शिक्षा, चिकित्सा व पोषाहार निर्धन वर्ग को पूरी तरह से मुफ्त तथा मध्य व उच्च मध्य दर को किफायती व निर्धारित दर से तथा बुनियादी व पूंजीगत वस्तुओं व सेवाओं की उपलब्धता लागत युक्त उचित दर पर तथा देश की सभी निरीह आबादी को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी ये सभी ऐसे व्यापक नीतिगत दिशा-निर्देश हैं, जिन पर भारत की सरकारें चलने को कितना तैयार होंगी ये देखा जाना दिलचस्प होगा? यह न केवल केन्द्र की मोदी सरकार की बल्कि देश के कई राज्य सरकारों के लिए भी एक तरह से यह उनकी आर्थिक अग्निपरीक्षा है।

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