बजट से पहले बेरोज़गारी पर ज़रूरी है गम्भीर विमर्श
भारत में इस समय बेरोज़गारी को लेकर बड़ी विरोधाभासी तस्वीर है। एक तरफ एचएसबीसी सर्विस बिजनेस द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले 22 महीनों में सेवा क्षेत्र में सर्वाधिक रोज़गार सृजन हुआ है। जबकि एक-दूसरे के आंकड़े के मुताबिक भारत में फुटपाथ पर कारोबारियों की मौजूदगी करीब साढे छह करोड़ हो गई है जो कोविड काल के मुकाबले 1 करोड़ ज्यादा है। ये दोनों आंकड़े देश में निजी व बाज़ार आधारित रोज़गार सृजन की बढोत्तरी को भले दर्शा रहे हों, पर दूसरी तरफ ये बेरोज़गारी की भयावह जमीनी तस्वीर भी दिखा रहे हैं। यह तस्वीर हाल में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी दिखायी पड़ी थी। सत्तारूढ़ मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी इंडिया ब्लाक की हवा बनाने में जिस मुद्दे का सबसे बड़ा योगदान था, वह बेरोज़गारी का मुद्दा ही था। यूपी और बिहार जैसे राज्यों के युवा मतदाताओं में रोज़गार को लेकर सरकार के प्रति रोष साफ-साफ देखा जा सकता था।
बेरोज़गारी को लेकर देश में जहां आंकड़ों व जमीनी स्थिति में अंतर है, वहीं राजनीतिक दलों में भारत में रोज़गार सृजन को लेकर भी नीतिगत अंतरविरोध है। भारत सरकार जहां मुद्रा लोन, कारोबार व स्टार्ट-अप व्यवसाय जैसे स्वरोज़गार कदमों को बेरोज़गारी दूर करने का प्रमुख जरिया मानती है, वहीं विपक्षी दल सीधे तौर पर लाखों की संख्या में सरकारी भर्तियां निकालने की बातें करते हैं। जैसा कि लोकसभा चुनाव के दौरान भी ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से तीस लाख सरकारी नौकरी देने की घोषणा की गई। सत्तारूढ दल यह सोचता है कि सरकार नौकरियों को बतौर खैरात में देने से प्रशासनिक व्यय में बढोत्तरी व राजकोष पर बोझ बढेगा तो दूसरी तरफ विपक्ष के लिए लाखों में नौकरी बांटना एक राजनीतिक एडवेंचरिज्म लगता है। इन दोनों नजरियों से इतर भारत में रोज़गार की वस्तुस्थिति पर व्यापक गौर करें तो हम पाते है कि सरकार और बाज़ार जो दो प्रमुख रोज़गार प्रदाता हैं, जबकि ये दोनों अंतरविरोध व व्युत्क्रम क्रम के शिकार हैं। ये बात सही है कि बाज़ार में रोज़गार की संभावना आर्थिक विकास की बढ़ती दर व प्रभावी मांग से सीधे प्रभावित होती हैं। कोविडकाल के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी तक यह स्थिति ज़रूर आयी है, पर उत्पादन के सभी सेक्टरों में ये स्थिति समरूप नहीं है। दूसरी बात कि भारत के असंगठित निजी क्षेत्र के अंतरगत श्रम, रोज़गार व सामाजिक सुरक्षा के कानून व कार्य परिस्थितियों का अनुपालन लगभग नदारद है या एक बराबर बिल्कुल नहीं है।
यहां कामगारों की न्यूनतम वेतन नीति, भत्ते, कार्य अवधि व तमाम कार्य परिस्थितियों को लेकर सरकार के तमाम विहित श्रम नियमन यहां पूरे तौर पर निष्प्रभावी हैं। यदि संगठित निजी क्षेत्र की बात करें तो अर्थव्यवस्था की मंदी की स्थिति में गाज उन पर भी गिरती है और सरकार का कोई श्रम कानून उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान नहीं कर पाता। पर अर्थव्यवस्था की तेज़ी के दौरान निजी क्षेत्र के संगठित श्रम शक्ति के ज़रूर पौ बारह होते हैं, परंतु मौजूदा स्थिति में अर्थव्यवस्था के फायनेंस, मैन्युफैक्चरिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को छोड़ दें तो बाकी क्षेत्रों में अभी भी मंदी का आलम है। मिसाल के तौर पर भारत में सूचना प्रौद्योगिकी व्हाइट कालर रोज़गार प्रदान करने का सबसे बड़ा जरिया है जिसमे कम से कम 50 लाख व्हाइट कालर कार्य शक्ति बढ़िया रोज़गार पाती है। पर कोविडकाल के बाद वर्क फ्राम होम की स्थिति कम होने तथा आईटी इनबेल्ड सेवाओं की मांग पर्याप्त नहीं होने से वहां भी बेरोज़गारी की स्थिति आ गई है। पहली बार ये सुना जा रहा है, आईआईटी जैसे प्रसिद्ध संस्थानों के पास आउट बच्चों के केवल 60 प्रतिशत को प्लेसमेंट हासिल हो पा रहा है। भारत में आर्थिक विकास दर की बढोत्तरी से निजी व बाज़ार क्षेत्र से रोज़गार सृजन की संभावनाओं के आगे एक और बड़ी रुकावट कुशल श्रम शक्ति का पर्याप्त रूप में उपलब्ध नहीं होना है। हम कुशल व प्रशिक्षण प्राप्त कामगारों की मांग व उनकी बेहतर मजूदरी को लेकर सही वस्तुस्थिति का अंदाजा भी नहीं लग पा रहे।
प्रधानमंत्री मोदी की कौशल विकास योजना भारत में श्रम विकास की एक दूरदर्शी योजना है पर इसके नतीजे क्या निकले इस पर पक्का कुछ नहीं कहा जा सकता। पिछले दस सालों में अर्थव्यवस्था की मांग को यह कितना पूरा कर पाया और श्रमिकों की मजूदरी बढाने में इसकी कितनी भूमिका रही बता पाना मुश्किल है। अभी आंध्रप्रदेश के मुखयमंत्री व केन्द्र सरकार के प्रमुख साझीदार चंद्रबाबू नायडू द्वारा देश में कुशल कामगारों की सही गणना कर उनके नियोजन की जो बात कही गई है वह बेहद सराहनीय है। दूसरी बात ये कि निजी क्षेत्र में अपने मुनाफे बढाने के लिए अधिमानित श्रम ज़रूरतों के हिसाब से कम संख्या में नियुक्ति की जाती है, जबकि इसके विपरीत सरकारी संस्थानों में जितनी वास्तव में ज़रूरत है, उससे ज्यादा संख्या में नियुक्ति कर दी जाती है।
दूसरी तरफ केंद्र में अभी भी नयी पैंशन नीति के बावजूद इसके कार्यरत कर्मचारियों की संख्या पैंशनधारियों से भी कम चल रही है। जाहिर है केंद्र सरकार पैंशनधारियों के वित्तीय बोझ से इतनी तबाह है कि अपनी करीब 60 लाख की कार्य शक्ति के बदले 40 लाख से काम चला रही है। केंद्र के बड़े विभागों मसलन रेलवे, रक्षा, पैरा मिलिट्री, बैंक, स्वास्थ्य व शिक्षा व सामान्य प्रशासन में करीब 15 लाख की रिक्तियां मौजूद हैं। पर वह इनकी भर्ती करने से इसलिए बच रही है; क्योंकि वह यह तय नहीं कर पा रही हैं कि इन रिक्तियों की नियुक्ति स्थायी की जाए या संविदा पर की जाए। केंद्र व राज्य सरकारों के कई महकमों में संविदा पर नौकरी का प्रावधान ज़रूर शुरू किया गया है पर इसे एक राष्ट्रीय श्रम नीति का रूप देने में केंद्र सरकार अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं दिखा पाई है।
रोज़गार जब बिहार में एक राजनीतिक मुद्दा बना तो दस लाख सरकारी नौकरी देने की घोषणा की गयी। इस क्रम में वहां पिछली सरकार में दो लाख भर्तियां की गयीं और अब वहां मौजूदा सरकार द्वारा 15 लाख सरकारी नौकरी देने की बात कही जा रही है। जाहिर है देश में बाज़ार के अलावा सरकार एक बड़ी रोज़गार प्रदाता है तो वह संविदा के आधार पर जो करीब 70 लाख रिक्त पद हैं, उसे भरें तो कितने सरकारी नौकरी के इच्छुक बेरोज़गारों को रोज़गार मिलेगा। दिक्कत तब होती है जब सरकार स्वयं नौकरी देती है, तो वह उसे उत्पादक रोज़गार में तब्दील नहीं कर पाती है और जब निजी क्षेत्र को आउटसोर्स करती है तो वह मनमानी कार्य परिस्थितियों में रोज़गार आपूर्ति करती हैं। ऐसे में देश में एक समान श्रम नीति व कार्य परिस्थितियों के अनुपालन की सार्वभौम व सर्वत्र गारंटी तथा हर श्रेणी के बेरोज़गारों के रोज़गार व स्व-रोज़गार की समुचित नीति लाई जाए तो यह न केवल देश की अर्थव्यवस्था को बड़ा संबल देगा बल्कि देश में आर्थिक गैर-बराबरी दूर करने में महती भूमिका निभाएगा।
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