सीतारमण के समक्ष होगी विरोधी हितों के बीच संतुलन बनाने की चुनौती

आज वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे कार्यकाल का पहले साल का बजट पेश करेंगी। खुद को एक निर्णायक मोड़ पर पाते हुए, उन्हें एक ऐसा बजट तैयार करने का काम सौंपा गया है जो गठबंधन सहयोगियों को खुश करे, जनता के असंतोष को दूर करे और आर्थिक विकास को बनाये रखे। उनकी भूमिका अभूतपूर्व जटिलता को ग्रहण करती है और उन्हें राजनीतिक सुविधा और वित्तीय समझदारी के बीचसर्कस की रस्सी पर चलने जैसा काम करना है। महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों के साथ, बदलते राजनीतिक परिदृश्य, जो खुद को भाजपा के लिए भारी चुनावी झटकों के रूप में प्रकट करता है, निश्चित रूप से बजट निर्माण में अपनी झलक पायेगा। चंद्रबाबू नायडू और नितीश कुमार जैसे विभिन्न गठबंधन सहयोगियों के साथ गठबंधन करने की अनेक महत्वपूर्ण शर्तें होती है, जैसे प्रभावशाली केन्द्रीय कैबिनेट पदों पर छोड़े गये दावों की भरपाई के लिए पर्याप्त बजटीय आवंटन। गठबंधन की राजनीति की पेचीदगियां केवल अंकगणित के बारे में नहीं हैं। नायडू और कुमार, दोनों प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता, अपने-अपने क्षेत्रों में काफी प्रभाव रखते हैं और सरकार के भविष्य पर लगभग नियंत्रण रखते हैं। भारी आवंटन की उनकी मांग न केवल राजनीतिक लाभ की इच्छा को बल्कि प्रतिस्पर्धी चुनावी परिदृश्यों के बीच निरंतर समर्थन सुनिश्चित करने के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्रों को खुश करने की व्यावहारिक आवश्यकता को भी दर्शाती है।
फिर भी इन राजनीतिक चालों के बीच निर्मला सीतारमण को आर्थिक मोर्चे पर समान रूप से कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। विकास को बढ़ावा देते हुए राजकोषीय अनुशासन बनाये रखने की अनिवार्यता एक पहेली प्रस्तुत करती है, जिस पर ध्यान देने के लिए विभिन्न प्रकार की आवाज़ें उठ रही हैं। सामाजिक कल्याण योजनाएं, जिनका लंबे समय से विपक्षी दलों द्वारा समर्थन किया जाता रहा है, अब भाजपा के अपने खेमे में भी गूंज रही हैं, क्योंकि आर्थिक लाभ के समान वितरण की मांगें तेज़ होती जा रही हैं। इसलिए बजट एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरता है जिसमें लोक लुभावन मांगों को पूरा करने और आर्थिक बुनियादी ढांचे को बनाये रखने के बीच संतुलन बनाने का कार्य करना होगा। भाजपा की चुनावी असफलताओं में प्रकट होने वाले लोकप्रिय असंतोष के साथ लक्षित हस्तक्षेपों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने का दबाव बढ़ गया है। इसमें न केवल मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं को बढ़ाना, बल्कि समावेशी विकास के लिए नये रास्ते भी तलाशना शामिल है।
सीतारमण की दुविधा के केंद्र में व्यापक आर्थिक स्थिरता से समझौता किये बिना इन प्रतिस्पर्धी मांगों को समेटने की आवश्यकता है। भारत का विकास पथ, मज़बूत होने के बावजूद, घरेलू और वैश्विक दोनों तरह की चुनौतियों से घिरा हुआ है, जिसके लिए राजकोषीय संसाधनों का सावधानीपूर्वक प्रबंधन आवश्यक है। इसलिए वित्त मंत्री का कार्य केवल संख्या-गणना से बहुत आगे तक फैला हुआ है जिसके लिए सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता की सूक्ष्म समझ और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक लीवर को कुशलता से संभालने की आवश्यकता है।
इसके अलावा बजट को न केवल समाज के मुखर वर्गों को बल्कि उस बहुसंख्यक वर्ग को भी ध्यान में रखना होगा, जिसकी बेहतर आजीविका की आकांक्षाएं अक्सर सत्ता के गलियारों में अनकही रह जाती हैं। इस संबंध में, समावेशी विकास न केवल एक आर्थिक अनिवार्यता, बल्कि एक नैतिक अनिवार्यता भी बन जाता है। यह बयानबाजी और वास्तविकता के बीच की खाई को पाटने का एक अवसर है, यह सुनिश्चित करते हुए कि भारत की प्रगति का लाभ इसके विशाल और विविध आबादी के बीच समान रूप से साझा किया जाये। इन चुनौतियों के बीच सीतारमण का वित्त मंत्रालय का नेतृत्व न केवल तात्कालिक आर्थिक भाग्य के लिए बल्कि दीर्घकालिक के लिए भी महत्वपूर्ण है। उन्हें जो नाजुक संतुलन कार्य करना होगा, उसमें कठिन विकल्प चुनना शामिल है, जैसे आवंटन को प्राथमिकता देना, कर संरचनाओं में सुधार करना और निवेश को प्रोत्साहित करना।  यह सब चुनावी कैलेंडर और गठबंधन राजनीति की अनिवार्यताओं पर नज़र रखते हुए किया जाना है। यह कार्य लोकतंत्र में शासन की दोहरी अनिवार्यताओं को समाहित करता है। इसके तहत तात्कालिक राजनीतिक आवश्यकताओं को दीर्घकालिक आर्थिक विवेक के साथ संतुलित करना होगा।
अपने सभी पूर्ववर्तियों की तरह उन्हें व्यापक सरकारी कार्यों को वित्तपोषित करने के लिए कर राजस्व पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ेगा। हालांकि, कराधान का बोझ, विशेष रूप से वेतन भोगी मध्यम वर्ग पर, असंतोष का एक आवर्ती स्रोत रहा है। हाल के वर्षों में पेश किया गये बजटों में व्यक्तिगत करदाताओं पर कर का बोझ कम करने वाले प्रगतिशील सुधारों की उम्मीदें अक्सर धराशायी हो गयी हैं। परिस्थितियां यथास्थिति बनाये रखने या सीमित राहत प्रदान करने वाले मामूली समायोजन शुरू करने की ओर झुकी है। अनुचित कर बोझ की धारणा ने प्रणाली में विश्वास को खत्म कर दिया है। प्रत्येक बजटीय घोषणा से पहले अधिक निष्पक्ष और अधिक न्यायसंगत कर व्यवस्था की वकालत करने वाली आवाजें तेज़ होती जाती हैं। कर स्लैब को कम करने, छूट सीमा बढ़ाने और बोझिल अनुपालन प्रक्रियाओं की फिर से समीक्षा करने की मांग व्यापार मंचों, मीडिया प्लेटफार्मों और नागरिक समाज संगठनों में गूंजती है। आज एक ऐसी कर प्रणाली की आवश्यकता है जो आम करदाता के हितों की रक्षा करते हुए उत्पादकता और उद्यमशीलता को पुरस्कृत करे। (संवाद)