प्रेरक प्रसंग-स्वाभिमान

बात उस समय की है, जब बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष की कठोर कारावास की सजा हुई थी। इस फैसले के विरोध में इलाहाबाद में सभा का आयोजन किया गया। इस सभा की अध्यक्षता पं. बालकृष्ण भट्ट ने की। इस सभा में भट्ट जी के सुपुत्र पं. लक्ष्मी कांत भट्ट भी वक्ता थे। सभी वक्ताओं के बोलने के बाद लक्ष्मी कांत भट्ट अपना व्याख्यान देने को खड़े हुए। उन्होंने बड़ी निर्भीकता से कहा, ‘हमें तिलक के कारावास होने का उतना दुख नहीं है, जितना उन अधखिले फूलों का है, जो खिलने के पूर्व ही तोड़ लिए गये। नदी पार करने को कूदे ही थे कि निष्ठुर नाविक ने पत्थर बांधकर जल में उन्हें डुबो दिया। वे खुदीराम सरीखे बच्चे अब कहां मिलेंगे? तिलक तो फिर आएंगे और जाएंगे।’
अंग्रेजों के राज्य में इतनी निर्भीकता मामूली बात नहीं थी। उनकी इस निर्भीकता से बोलने का फल उन्हें शीघ्र ही मिल गया। अगले ही दिन खुफिया पुलिस चील की तरह उनके मकान के इर्द-गिर्द मंडराने लगी। सरकारी कायस्थ पाठशाला के अधिकारियों को आदेश दिया कि वे भट्ट जी को तत्काल सेवा से हटा दें। पाठशाला की ओर से भट्ट जी को कहा गया कि उन्हें प्रोफेसर के पद से हटाकर हेड पंडित कर दिया गया है और वेतन भी पांच रुपये कर दिया गया है। 
यह व्यवस्था कुछ समय तक लागू रहेगी। बाद में वह पुन: अपने पुराने स्थान पर नियुक्त कर दिये जाएंगे। भट्ट जी को यह बात अत्यंत अपमानजनक लगी। वह अपने स्वाभिमान की बात समझकर प्रोफेसर के पद से त्याग पत्र देकर अपने घर चले आये और फिर कभी कायस्थ पाठशाला नहीं गये।

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