सिस्टम के विपरीत जाना है लेटरल एंट्री 

आखिरकार 17 अगस्त 2024 को जारी वह विज्ञापन रद्द हो गया, जिसमें ज्वाइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल के 45 सरकारी पदों पर यूपीएससी के जरिये लेटरल एंट्री की जानी थी। लेटरल एंट्री का मतलब है बिना किसी परीक्षा के पास किए प्राइवेट सेक्टर के विशेषज्ञ जनों की इन बड़े पदों पर सीधी भर्ती लेकिन विपक्ष के साथ जब सत्ता पक्ष के कुछ सहयोगी भी सरकार के इस कदम का खुलेआम विरोध करने लगे, तो आखिरकार तीन दिन के आरोप प्रत्यारोपों के बाद 20 अगस्त, 2024 को दोपहर में कार्मिक विभाग के मंत्री जितेंद्र सिंह ने यूपीएससी के चेयरमैन प्रीति सूदन को पत्र लिखकर ये वेकैंसी रद्द करने के निर्देश दिए। 
इस तरह तीन दिनों के भीतर वह फैसला वापस हो गया, जिसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष शुरू से एक-दूसरे के आमने सामने थे। मोदी सरकार के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल के जोरदार अंदाज में किये गये इस हमले के बावजूद कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पूर्व रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन और प्लानिंग कमीशन के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भी कांग्रेसी सरकारें इसी रास्ते महत्वपूर्ण पदों पर लाई थीं, अंतत: सरकार को पीछे हटना पड़ा। लेकिन सभी तर्कों के बावजूद अगर केंद्र सरकार को इस मामले में पीछे हटना पड़ा, तो इसके पीछे आरक्षण की राजनीतिक ताकत थी। मौजूदा संसद में एनडीए की तरफ से 26.2 प्रतिशत और ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से 30.7 प्रतिशत सांसद ओबीसी हैं यानी भारतीय संसद में इस समय करीब 57 प्रतिशत सांसद ओबीसी हैं। 
यही वह राजनीतिक ताकत है, जिसके कारण मोदी सरकार को लेटरल एंट्री के जरिये भर्ती के अपने इरादे से कदम पीछे खींचन पड़े। उत्तर प्रदेश में तुरंत ही 10 सीटों पर उपचुनाव होने हैं और अकेले उत्तर प्रदेश में ही इस समय 34 सांसद चाहे वे सत्तापक्ष के हों या प्रतिपक्ष के, ओबीसी हैं। ऐसे में कोई भी सरकार ओबीसी को नाराज़ करने का रिस्क नहीं ले सकती। इसलिए अगर कहा जाए कि राहुल गांधी से ज्यादा यह आने वाले हरियाणा और जम्मू व कश्मीर तथा इसके बाद महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों के संतुलन का डर था, जिसकी वजह से लेटरल एंट्री को रोक लगवाने में विपक्ष को विजय हासिल हुई तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। मगर सवाल यह है कि क्या यह भर्ती सही है? क्या वाकई इससे एक वैध सिस्टम की बनी बनायी व्यवस्था ध्वस्त नहीं होती? इसे समझने के लिए हमें लेटरल एंट्री के इस मुद्दे को कदम दर कदम तथ्यों और तर्कों से समझना होगा।
विपक्ष के नेता राहुल गांधी, कांग्रेस के मुखिया मल्लिकार्जुन खड़गे और तेजस्वी यादव से लेकर चिराग पासवान तक ने अगर इसका खुला विरोध किया तो इसके पीछे तर्क यह था कि इन भर्तियों के चलते एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय का हक छीना जायेगा। हालांकि इस सवाल के डैमेज कंट्रोल के लिए भाजपा के आईटी सेल के प्रभारी अमित मालवीय ने कहने कि कोशिश की, कि यूपीएससी की किसी भी दूसरी परीक्षाओं में लागू होने वाला आरक्षण का नियम इन भर्तियों पर भी लागू होना था। लेकिन जब यूपीएससी को परीक्षा ही नहीं लेनी थी, तो वह नियम कैसे लागू होता? दूसरी बात यह थी कि भारत सरकार का डिपार्टमेंट ऑफ पर्सन एंड ट्रेनिंग एक आरटीआई के चलते यह खुलासा कर चुका था कि सरकारी नौकरियों में 13 रोस्टर प्वाइंट के ज़रिये रिजर्वेशन लागू होता है और इन भर्तियों में इसलिए रिजर्वेशन लागू होने की कोई बात ही नहीं थी, क्योंकि इसी डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग की एडीशनल सेक्रेटरी सुजाता चतुर्वेदी ने यूपीएससी के सेक्रेटरी राकेश गुप्ता को लिखे गये पत्र में स्पष्ट कहा था कि लेटरल एंट्री के लिए कैंडीडेट्स का चुनाव प्राइवेट कम्पनियों, राज्य सरकार, स्वतंत्र निकाय और यूनिवर्सिटी से किया जाना चाहिए जिसका क्राइटेरिया यह हो कि चुने जाने वाले व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र में एक्सपर्ट हों। 
ये भर्तियां कॉन्ट्रैक्ट के तौर पर 3 से 5 साल के लिए होनी थीं और इस लिखे गये पत्र में यह बात भी साफ शब्दों में कही गई थी कि इन भर्तियों के लिए रिजर्वेशन लागू करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सरकार की दिक्कत यह थी कि यह लेटर मीडिया को लीक हो चुका था, जिससे अमित मालवीय जैसे लोग चाह कर भी इस बात से कोई जवाबी तर्क नहीं खड़ा कर सके कि नियम के अनुसार इन भर्तियों में भी रिजर्वेशन लागू होना था। बहरहाल रिजर्वेशन लागू होता तो 25 पद विभिन्न आरक्षित कैटेगरीज को चले जाते और 20 पद ही जनरल के लिए होते, जिनमें कोई प्रतिस्पर्धा भी हो सकती थी। मगर सवाल यह नहीं है कि सरकार तीन और पांच सालों के शॉर्टकट के जरिये बिना खुद तैयार किए एक्सपर्ट बाहर से हासिल कर सकती है? सवाल यह है कि आखिर इस लेटरल एंट्री का वैधानिक और मॉरेल स्टेट्स ही क्या है? साल 2018 में ऐसी ही कुछ भर्तियों के लिए 6000 से ज्यादा उच्च शिक्षित और उच्च अनुभवी विशेषज्ञों ने आवेदन किया था, जिसमें सिर्फ 9 लोगों की नियुक्ति की गई थी।
सवाल है, जब परीक्षा होनी नहीं, मैरिट बननी नहीं, तो फिर 6000 से ज्यादा लोगों में ये 9 लोग कैसे चुने गये होंगे? जाहिर है यह एक बड़े धर्मसंकट और तनावभरी असहजता का विषय है कि एक तरफ हम कितने अनुभवी और अपने विषयों के विशेषज्ञों के चुनाव की बात करते हैं और उन्हें चुने जाने का कोई व्यवहारिक या निर्णायक आधार भी नहीं है। जाहिर है सरकार ने उन्हीं लोगों को चुना होगा, जिन्हें वो चाहती रही होगी क्योंकि अगर वे लोग जो सरकार द्वारा चुने गये, उनमें आवेदन करने की योग्यता थी और इसके बाद योग्यता परखने का कोई पैमाना नहीं था, लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि उनकी योग्यता कम रही हो मगर क्या उनकी योग्यता जिन लोगों को नहीं चुना गया, उनसे ज्यादा रही होगी? शायद हां, शायद नहीं। शायद हां इसलिए कि जिन्हें चुना गया था, आखिरकार सरकार ने उन्हें चुना था। इसलिए वे सरकार की नज़रों में योग्य साबित हुए और जो नहीं चुने गये थे, वो फेल नहीं हुए थे, बस वो सरकार को पसंद नहीं थे, वजह कुछ भी हो। इसलिए देखा जाए तो बुनियादी स्तर पर तीन से पांच सालों की यह भर्ती अनैतिक है और सिर्फ भर्ती ही अनैतिक नहीं, जो लोग वर्तमान में सरकार के इतर महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं, अनुभवी हैं, उन्हें सरकार उन जगहों से तोड़ने के लिए कैसे आकर्षित कर सकती है?
यहां पर इन पदों को पाने के लिए वरिष्ठ जनों की जो बेहद पढ़े लिखे और अनुभव के हिसाब से वरिष्ठ हैं, की ललक भी सवालों के घेरे में आती है। आखिर ये रिटायर लोग तो नहीं हैं? महत्वपूर्ण पदों पर हैं और सक्रिय हैं। फिर सवाल है महज तीन या पांच सालों के लिए अपने महत्वपूर्ण पदों और सम्मान की अनदेखी करके यहां क्यों आना चाहते हैं? सवाल है कि क्या उनका कोई दीर्घकालिक लक्ष्य है? तीन या पांच सालों बाद अगर किसी सीईओ की, किसी योग्य व्यक्ति की नौकरी जाती रहती है तो सवाल है आखिर इतने कम समय के लिए अपने सारे कॅरियर को दांव पर लगाकर उसके यहां आने का अर्थ क्या रहा है? यह तो नहीं कह सकते कि वरिष्ठजन सरकारी जगह पर काम करने का अनुभव लेने के लिए आ रहे हैं; क्योंकि अनुभवी तो वो पहले से ही हैं और इसी अनुभव की यूएसपी के चलते ही तो उनका चयन किया जा रहा है और यह चयन यह मानकर किया जा रहा है कि जिनका चयन हो रहा है, वो ज्यादा समझदार हैं। फिर भी अगर ये लोग सब कुछ छोड़-छाड़ कर इन पदों पर आने के लिए लालायित हैं तो लगता है उनका कोई और ही मकसद है। लेटरल एंट्री इसलिए अनैतिक है, क्योंकि यह देश की सबसे कठिन परीक्षा को पास कर आये लोगों को बिना परीक्षा दिए पास करने की कोशिश है। इससे उनका तो अपमान होता ही है, युवाओं का वह ख्वाब भी चकनाचूर होता है कि वे अपनी मेहनत और मेधा के जरिये यहां पर पहुंच सके हैं। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर