सुप्रीम कोर्ट ने लगायी बुल्डोज़र न्याय पर रोक
बुल्डोज़र के माध्यम से चुनावी संदेश देने व बुल्डोज़र को चुनावी प्रतीक बनाने के प्रयास में तथाकथित ‘त्वरित बुल्डोज़र न्याय’ संवैधानिक अधिकारों के लिए चुनौती बन गया था। लेकिन हमारे हाईकोर्ट्स खामोश बैठे हुए थे, जैसे कोई खास बात हुई ही न हो। सरकारों के असंवैधानिक बल प्रयोग के समक्ष यह व्यवस्थित आलस्य की स्थिति थी। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, असम, त्रिपुरा व दिल्ली के नागरिक प्राधिकरण जैसे-जैसे बुल्डोज़र क्लब में शामिल होते गये, वैसे-वैसे ही गिराये गये घरों की संख्या में वृद्धि होती गयी और बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन भी व्यापक होता रहा। लेकिन न्याय के पहिये बुल्डोज़र के पहियों की तुलना में धीमे घूमते हैं। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और 2 सितम्बर, 2024 को एक जनहित याचिका की सुनवायी करते हुए न्यायाधीश बी.आर. गवई व न्यायाधीश के.वी. विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा कि एक अपराधी द्वारा किया गया अपराध उसके घर पर बुल्डोज़र चलाने का आधार नहीं बन सकता। अब सुप्रीम कोर्ट अपराधों के विरुद्ध निवारक के रूप में ‘बुल्डोज़र न्याय’ अपनाने को रोकने के लिए दिशा-निर्देश गठित करेगा जोकि पूरे देश के लिए होंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने जहां यह स्पष्ट किया कि एक व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध उसकी आवासीय ईकाई को ढहाने का आधार नहीं हो सकता, वहीं यह भी कहा कि अवैध निर्माण या अतिक्रमण को अदालत न कभी प्रोत्साहित करेगी और न बचाव। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘अदालत कभी भी अवैध निर्माण या अतिक्रमण का प्रोत्साहन या बचाव नहीं करेगी और इसमें मंदिर भी शामिल हैं। लेकिन तोड़फोड़ सख्ती के साथ पूर्णत: नियमों व प्रक्रियाओं के अनुरूप होनी चाहिए। इस संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश क्यों नहीं होने चाहिए? वह सभी राज्यों के लिए होंगे.. एक पिता का आज्ञा न मानने वाला बेटा हो सकता है, लेकिन इस आधार पर उसका मकान नहीं तोड़ा जा सकता। यह सही तरीका नहीं है।’ उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की तरफ से अदालत में अपनी बात रखते हुए सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण का ही समर्थन किया। उन्होंने यह दोहराते हुए कि उत्तर प्रदेश सरकार आपराधिक गतिविधि के विरुद्ध शून्य सहिष्णुता की नीति अपनायेगी और अपराधों को सख्ती से कानून व संविधान के अनुसार नियंत्रित करेगी, अपराधी के उस घर को गिराये जाने का विरोध किया जिसका निर्माण नगरपालिका नियमों के अनुसार किया गया हो।
तुषार मेहता ने कहा, ‘व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप उसकी अचल सम्पत्ति को तोड़ने का आधार नहीं हो सकता। अचल सम्पत्ति तभी तोड़ी जा सकती है, जब वह संबंधित नगरपालिका या उस क्षेत्र के विकास प्राधिकरण के नियमों व कानूनों का अनुरूप निर्मित न करायी गई हो। दूसरे शब्दों में किसी भी अचल सम्पत्ति को केवल इस आधार पर नहीं तोड़ा जा सकता कि उसका मालिक या किरायेदार आपराधिक गतिविधियों में लिप्त है। तोड़फोड़ चाहे पूर्ण हो या आंशिक इसी आधार पर की जा सकती है कि नगरपालिका के वैध निर्माण नियमों का उल्लंघन किया गया है और वह भी संबंधित प्रक्रियाओं का पालन करते हुए।’ खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार के दृष्टिकोण की सराहना की और इस मुद्दे पर अखिल भारतीय दिशा-निर्देश गठित करने के लिए केस की पार्टियों व उनके वकीलों से सुझाव देने को कहा। खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि वह चूंकि दिशा-निर्देश गठित करने जा रहा है, जिनका राज्यों को सख्ती से पालन करना पड़ेगा, इसलिए तोड़फोड़ की व्यक्तिगत शिकायतों को वह नहीं देखेगा।
जनहित याचिका दायर करने वाले संगठन जमात-ए-उलमा-ए-हिंद ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का स्वागत किया है कि सभी राज्यों के लिए दिशा-निर्देश गठित किये जायेंगे और आशा व्यक्त की है कि जब अंतिम निर्णय आयेगा तो ‘सभी पीड़ितों को न्याय मिलेगा’। तथाकथित ‘बुल्डोज़र न्याय’ पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक देर से अवश्य लगायी है, लेकिन एकदम सही लगायी है; क्योंकि इससे न सिर्फ दोष अदालतों के बाहर निर्धारित किया जा रहा था बल्कि सज़ा आरोपी के परिवार को दी जा रही थी। सामूहिक सज़ा का विचार मध्ययुगीन है, जब इसे कानून में कोडिफाई तक किया हुआ था। ज़ाहिर सी बात है कि इस पुरातनपंथी विचार के लिए संवैधानिक लोकतंत्रों में कोई स्थान नहीं है। घर व दुकान गिरा देने से पूरा परिवार प्रभावित होता है। अगर किसी परिवार का कोई सदस्य अपराध में शामिल भी था या मकान/दुकान अवैध थी तो भी कानूनी प्रक्रिया (जैसे नोटिस आदि) का पालन करना आवश्यक है; क्योंकि व्यक्ति जब तक अदालत द्वारा दोषी साबित न हो तब तक वह निर्दोष होता है। मकान/दुकान गिराने से पूरा परिवार पीड़ित हो जाता है, जबकि उसका अपराध या अवैध निर्माण से कोई लेना देना नहीं होता है।
इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों के दौरान राज्यों के अधिकारियों द्वारा बुल्डोज़र चलाने के दिए गये आदेश कानून के शासन के लिए गंभीर सवाल बन गये थे। राजस्थान में तो एक ऐसे मकान पर बुल्डोज़र चलाया गया जिसमें आरोपी का परिवार किराये पर रहता था। राजस्थान के ही एक कलेक्टर को वायरल वीडियो में यह कहते हुए सुना जा सकता है कि वह केवल एक विशेष समुदाय के मकानों पर ही बुल्डोज़र चलायेंगे। अगर बुल्डोज़र तथाकथित अपराधियों को ‘सबक’ सिखाने के लिए चलाये जा रहे थे, तो क्या जांच व साक्ष्यों के आधार पर यह अदालत के फैसले थे? नहीं। तो फिर खुद ही मुद्दई, खुद ही मुंसिफ बनने की अनुमति स्थानीय प्रशासन को कौन और क्यों दे रहा था? इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि अनेक राज्यों में जो यह बुल्डोज़र चलाने का चलन चल रहा था, उसे किसी भी सूरत में कानूनन उचित नहीं ठहराया जा सकता था। मसलन, दिल्ली में अप्रैल 2022 में जहांगीरपुरी में हुई कार्यवाही को ही लें।
एमसीडी एक्ट में एकदम स्पष्ट प्रावधान हैं कि सेक्शन 317 के तहत कमिश्नर की यह ज़िम्मेदारी है कि वह सड़कों पर आने वाले प्रोजेक्शंस (स्ट्रक्चर या फिक्सचर) हटाने के लिए नोटिस जारी करे (जहांगीरपुरी में कोई नोटिस जारी नहीं किया गया बल्कि तत्कालीन मेयर ने टीवी चैनलों से कहा कि नोटिस की कोई आवश्यकता नहीं थी); सेक्शन 343 के तहत बिल्डिंगों को तोड़ने के लिए 5-15 दिनों की नोटिस अवधि न्यूनतम है। सिर्फ सेक्शन 322 के तहत नोटिस जारी करना ज़रूरी नहीं है; क्योंकि उसके अधीन अस्थाई निर्माण हटाना है जैसे ठेले जो पब्लिक स्ट्रीट पर अतिक्रमण कर रहे हों। गौरतलब है कि इस कानून के तहत एक अपीलेट ट्रिब्यूनल की व्यवस्था भी है, जो नोटिस के विरुद्ध अपील सुनता है। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तथाकथित ‘बुल्डोज़र न्याय’ पर रोक लगाना व इस संदर्भ में सभी राज्यों के लिए दिशा-निर्देश गठित करने का फैसला स्वागतयोग्य है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर