स्वतंत्रता सेनानी गज़ल-गो वीर सावरकर

देश प्रेम व देश भक्ति और देश के लिए अपना सब कुछ नौछावर करने के जज़्बे से लबरेज़ यह उर्दू ़गज़ल किसकी है, यह जानकर आपको निश्चितरूप से आश्चर्य होगा। इस ़गज़ल के रचनाकार हैं विनायक दामोदर सावरकर। जी, आपने सही सुना, वही स्वतंत्रता सैनानी सावरकर जो देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने के लिए वर्षों तक काला पानी यानी अंडमान की सेलुलर जेल में कैद रहे। हालांकि सावरकर की मातृभाषा मराठी थी, लेकिन उनकी अनेक भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी, मसलन, उन्होंने 1857 में देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी पुस्तक अंग्रेज़ी में लिखी थी। सेलुलर जेल में रहते हुए उन्होंने उर्दू भाषा न सिर्फ सीखी बल्कि उसमें इतनी महारत भी हासिल कर ली कि उच्च स्तर की शायरी भी करने लगे, जैसा कि ऊपर दी गई ़गज़ल से स्पष्ट है। इससे सावरकर की बुद्धिमता का स्वत: ही अंदाज़ा हो जाता है। 
संभवत: देश की आज़ादी में अति व्यस्त होने के कारण सावरकर अपने शायरी के शौक पर जेल से बाहर आने के बाद अधिक ध्यान न दे सके और इसलिए उनके अधिकतर करीबियों को भी मालूम न हो सका कि वह ख़ुद भी ़गज़ल कहते हैं। उनके व्यक्तित्व का यह पहलू शायद पर्दे में ही रहता अगर स्वतंत्रतवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक की ट्रस्टी मंजरी मराठे ने 2013 में एक अति असाधारण खोज न की होती। उन्हें अपने पिता के पुस्तक संग्रह में सावरकर की एक नोटबुक मिली। यह बात अपने में ़गज़ल की थी, लेकिन इससे भी गज़बनाक यह रहा कि उस नोटबुक के पांच पन्नों में सावरकर द्वारा रची गई ़गज़लें थीं, जो उर्दू लिपि में उन्हीं के हाथ की लिखी हुई हैं। देश प्रेम से ओत-प्रोत ये ़गज़लें, जैसा कि ऊपर बताया गया, अंडमान कारावास के दौरान लिखी गईं। यहां यह बताना भी दिलचस्प रहेगा कि सावरकर अरबी भी जानते थे और उन्होंने कुरान मूल अरबी में पढ़ा। यह बात सावरकर ने अपनी ‘माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ’ में लिखी है और यह भी कि अरबी भाषा उन्होंने अपने मुस्लिम दोस्तों की मदद से जेल में सीखी। भाषा जानना एक बात है और उसमें शायरी करना दूसरी बात है। इसलिए सावरकर की उर्दू शायरी की खोज से मालूम होता है कि वह अनेक प्रतिभाओं के धनी थे। 
सावरकर की यह नोटबुक प्यारे मोहन ने आरपी परांजपे को दी थी, जिन्होंने इसे सावरकर के सहयोगी एसपी गोखले को दे दी। गोखले का 2006 में निधन हो गया। गोखले की बेटी मंजरी मराठे को इतिहासकार निनाद बेडेकर ने बताया कि उनके पिता के कलेक्शन में सावरकर की उर्दू रचनाओं को देखा है। चूंकि इस कलेक्शन में हज़ारों कागज़ात व पुस्तकें थीं, इसलिए मंजरी मराठे को अनेक बार कोशिश करनी पड़ी और आखिर उनकी मेहनत रंग लायी और उन्हें संबंधित नोटबुक मिल ही गई। नोटबुक को मुंबई के शिवाजी मैदान के सामने स्वतंत्रतवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक में पहले डिसप्ले पर रखा गया। सावरकर अंडमान के सेलुलर जेल में 1911 से 1921 तक कैद थे। ये ़गज़लें उसी दौर की रचनाएं हैं। इनकी गुणवत्ता उच्च स्तरीय है, इस बात की पुष्टि विख्यात शायर निदा फाज़ली ने अपने लेखों में भी की है। ़गज़लों में कहीं-कहीं फारसी के शब्द भी प्रयोग किये गये हैं, मसलन- ‘मुनव्वर अंजुमन होती है, महफिल गरम होती है/मगर कब जब के ख़ुद जलती है शमा-ए-अंजुमन पहले।’ इस शेर का अर्थ यह है कि जिस तरह शमा (मोमबत्ती) पहले ख़ुद जलकर महफिल (अंजुमन) में रोशनी (मुनव्वर) करती है उसी तरह देशभक्तों को देश को गुलामी के अंधकार से निकालकर रोशनी (यानी आज़ादी) में लाने के लिए शमा की तरह खुद जलना (यानी कुर्बानी) पड़ता है। 
इससे अगले शेर में वह कहते हैं - ’हमारा हिंद भी फूले फलेगा एक दिन लेकिन/मिलेंगे खाक में लाखों हमारे गुल बदन पहले।’ फारसी अल़्फाज़ का प्रयोग उस दौर के लिए आम बात थी, फिर भी सावरकर की शायरी आसानी से समझ में आने वाली है और पाठक को अपने विचारों से प्रभावित भी करती है। सावरकर की शायरी की विशेषता यह है कि उन्होंने लबो-रुखसार (प्रेयसी के होंठ व गालों) और जुल्फों की शायरी नहीं की है बल्कि अवाम में देश से प्रेम करने, उसके लिए कुर्बानी देने वाली प्रेरणादायक शायरी की है। एक शेर में कहते हैं- ‘उन्हीं के सर रहा सेहरा, उन्हीं पे ताज कुरबां हो/जिन्होंने फाड़कर कपड़े रखा सर पर क़फन पहले।’ इसी तरह का एक अन्य शेर है - ‘न सेहत की करें परवा, न हम दौलत के तालिब हों/करें सब मुल्क पर कुर्बान तन मन और धन पहले।’ सावरकर यह भी चाहते थे कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाएं (जन) भी बराबर की हिस्सेदार बनें, इसलिए उन्होंने कहा- ‘हमें दु:ख भोगना लेकिन हमारी नस्लें सुख पायें/ये मन में ठान लें अपने ये हिंदी मर्दों-ज़न पहले।’  
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