श्रीलंका में दिसानायके की जीत का भारत के लिए निहितार्थ

भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका ने 21 सितम्बर को हुए राष्ट्रपति चुनावों में मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेता अनुरा कुमार दिसानायके को अगला राष्ट्रपति चुना है। मतदान करने वाली कुल 1700 लाख आबादी में से लगभग 75 प्रतिशत ने वर्षों से चली आ रही दो राजनीतिक संरचनाओं के द्विभाजन से निर्णायक रूप से अलग होकर नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी) को सत्ता में लाने का अज्ञात मार्ग चुना, जो 28 सीमांत वामपंथी दलों और नागरिक समाज समूहों का गठबंधन है, ऐसे समय में जब श्रीलंका की अर्थव्यवस्था एक बड़े संकट का सामना कर रही है। 
2020 में श्रीलंका में पिछले संसदीय चुनावों में जेवीपी को कुल 225 में से केवल तीन सीटें मिलीं थी, लेकिन 2022 में भारी उछाल के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके परिवार के सदस्यों को सरकार से बाहर कर दिया गया और राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के शासन के दौरान नागरिक समाज आंदोलन की निरन्तरता ने दिसानायके को विपक्षी दलों का एक व्यापक मंच बनाने में मदद की जिसने 2024 के राष्ट्रपति चुनावों में दोनों स्थापित दलों को चुनौती दी। 
श्रीलंका में शासन परिवर्तन का भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दक्षिण एशिया नीति पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है, यह भविष्य में पता चलेगा। श्रीलंका हिंद महासागर क्षेत्र में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र है और पिछले एक दशक से श्रीलंका सरकार अमरीका, चीन और भारत से अपनी-अपनी एशिया-प्रशांत नीतियों के अनुरूप दबाव में रही है। श्रीलंका को चीन और भारत दोनों की ज़रूरत है। हालांकि मार्क्सवादी होने के नाते दिसानायके अपनी विदेश नीति के नज़रिये से भारत की तुलना में चीन के प्रति अधिक मैत्रीपूर्ण रहेंगे, लेकिन व्यवहारवादी होने के नाते उनसे चीनी दबाव के आगे बहुत अधिक झुकने की उम्मीद नहीं है। श्रीलंका पहले से ही चीन प्रायोजित बीआरआई पहल में भागीदार है। इसे चीन के लाभ के लिए विस्तारित किया जा सकता है। लेकिन दिसानायके निश्चित रूप से श्रीलंकाई क्षेत्र के हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुविधा के लिए अमरीका के किसी भी प्रस्ताव पर सहमत नहीं होंगे। उनका कार्यक्रम इसके खिलाफ प्रतिबद्ध है। उम्मीद है कि वह वियतनाम के उदाहरण का अनुसरण करते हुए केवल देश के हित में कार्य करेंगे और चीन और अमरीका दोनों के साथ व्यापारिक संबंध बनाये रखेंगे। वियतनाम को दक्षिण चीन सागर के जल में चीनी राष्ट्रवादी महत्वाकांक्षाओं को जानने का अच्छा अनुभव है, जिसमें आधिकारिक तौर पर वियतनाम से संबंधित क्षेत्र भी शामिल हैं। इस तरह से दिसानायके से उम्मीद है कि वह शीजिनपिंग के नेतृत्व में चीन से सम्बंधों में सतर्क रहेंगे।
भारत के संबंध में यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि भारत नये नेतृत्व के साथ अपने संबंधों को कैसे देखता है। भारत ने 2022 के संकट के दौरान और बाद में पिछले दो वर्षों में कोलंबो की बहुत मदद की है। वामपंथी राष्ट्रपति से भारत के लिए कोई समस्या पैदा होने की उम्मीद नहीं है क्योंकि भारत-श्रीलंका सहयोग कोलंबो को अधिक मदद करता है, लेकिन एक छोटी सी समस्या है। एनपीपी गठबंधन सहयोगियों और जेवीपी सदस्यों में भी भारत विरोधी भावना है। इसका कारण यह है कि मोदी एक दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा के नेता हैं और वह सार्क सदस्यों में अमरीका के सबसे करीब हैं। जेवीपी सदस्य आम तौर पर अमरीका विरोधी हैं और वे भारत के हिंद महासागर में अमरीकी रणनीति का हिस्सा बनने के खिलाफ हैं।  भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नये श्रीलंकाई राष्ट्रपति से खुले दिमाग से सम्पर्क करना चाहिए तथा यह नहीं सोचना चाहिए कि दिसानायके चीन के प्रति नरम हैं। चीन के प्रति घृणा को किसी भी दक्षिण एशियाई देश के साथ संबंधों के बारे में प्रभावी नहीं होने देना चाहिए। भारत आर्थिक सहयोग के क्षेत्रों का विस्तार करके और अधिक वित्तीय सहायता देकर श्रीलंका का एक महान मित्र बन सकता है। अंतत: अर्थव्यवस्था मायने रखती है। भारत को यह एहसास तब हुआ जब मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जू ने भारत विरोधी रुख को त्याग दिया और जल्द ही कई समझौतों को पूरा करने के लिए भारत आने का प्रस्ताव रखा। मालदीव को वह नहीं मिला जिसकी राष्ट्रपति मुइज्जू को चीन से वित्तीय मदद की उम्मीद थी और इसी बात ने सारा अंतर पैदा कर दिया। भारत और नरेंद्र मोदी के लिए श्रीलंका में नये राष्ट्रपति के आने के बाद दक्षिण एशियाई देशों के बीच भारत का अलग-थलग पड़ जाना एक अहम मुद्दा है। सार्क के आठ देशों— अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भारत, भूटान, पाकिस्तान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका में से दो देशों नेपाल और श्रीलंका का नेतृत्व अब जाने-माने मार्क्सवादी कर रहे हैं। बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ भारत के रिश्ते सामान्य नहीं। भूटान, नेपाल और मालदीव के साथ रिश्ते अब पहले के तनाव से मुक्त हैं, लेकिन पूरी तरह सामान्य नहीं हैं। 
अब देखना यह है कि कोलंबो में अनुरा दिसानायके के सत्ता में आने के बाद आने वाले महीनों में श्रीलंका के साथ रिश्ते कैसे बनते हैं। पाकिस्तान के साथ तनाव के कारण 2016 में इस्लामाबाद में आयोजित सार्क शिखर सम्मेलन का भारत द्वारा बहिष्कार किये जाने के बाद से पिछले आठ वर्षों में सार्क का कोई शिखर सम्मेलन आयोजित नहीं हुआ है। हालांकि सार्क के विभिन्न पैनलों की नियमित बैठकें जारी हैं। बांग्लादेश के अंतरिम प्रमुख डॉ. मोहम्मद यूनुस इस सप्ताह संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के दौरान न्यूयॉर्क में भारतीय प्रधानमंत्री से मिलना चाहते थे।  (संवाद)