सिर्फ कानून बनाने से नहीं रुकेगा बच्चों का यौन शोषण 

माननीय उच्चतम न्यायालय ने पिछले दिनों एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर अपना निर्णय सुनाया है। बच्चों की यौन शोषण सामग्री सोशल मीडिया के विभिनन्न माध्यमों से दिखाकर कुछ लोगों के लिए पैसा कमाने का साधन है। असल में आज भद्दी और अश्लीलता से भरी कोई भी चीज़ दिखाने से मालामाल हुआ जा सकता है। इससे चिंता तो होती है, लेकिन क्या इसे कानूनन रोकना संभव है या कहें कि कितना उचित है? 
बाल यौन शोषण 
असली मुद्दा यह है कि बच्चों के साथ गलत काम करते हुए, उनके कोमल मन से खिलवाड़ और उन्हें एक वस्तु की तरह इस्तेमाल कर उनके शोषण की फिल्म बनाने पर रोक लगनी चाहिए या नहीं, और क्या यह संभव है? आज इंटरनेट पर दुनिया भर से सभी तरह के वीडियो देखने को मिल जाएंगे। सामान्य उपभोक्ता के फोन या मेल पर इस तरह की अनचाही सामग्री की भरमार रहती है। कौन भेज रहा है, इसका स्रोत तक पता नहीं चल पाता। यह हज़ारों, लाखों लोगों को एक साथ भेजी जाती है। जिसे यह मिली है, वह यह सोचकर कि शायद उसके काम का कोई संदेश तो नहीं है, परन्तु जैसे ही खोलता है तो अश्लीलता से भरा वीडियो दिखाई देता है। आम तौर पर भेजने वाले का संदेश यह होता है कि यह उपभोक्ता के लिए बहुत ही उपयोगी है और साथ में बहुत से लालच भी दिये जाते हैं। एक तरह से काम या बिज़नेस में मदद के नाम पर कुछ टिप्स देने की बात कही जाती है।
प्रश्न यह है कि जिसने उत्सुकतावश या मुनाफा कमाने के नज़रिए से भेजे गये संदेश पढ़ने के बाद वह लिंक खोल और देख लिया तो वह अपराधी कैसे हो गया? यदि उसने देख लिया और फिर उसे हटा दिया क्योंकि इस तरह की चीज़ों को देखने में कोई रुचि नहीं है तो उसकी यह ज़िम्मेदारी कैसे हो गई कि वह इसकी रिपोर्ट पुलिस थाने में करे? वह अपना काम धंधा, नौकरी या व्यवसाय छोड़कर थाने में हाज़िरी दे या ऑनलाइन शिकायत करने में अपना समय लगाये। यदि वह ऐसा नहीं करता है या कर पाता है तो उस पर जुर्माना या उसे जेल की सज़ा क्यों मिलनी चाहिए? जो लोग बाल यौन शोषण की सामग्री तैयार करते हैं, उन पर सख्त कार्यवाही करने के लिए पहले से ही हमारे यहां कानून हैं। पॉक्सो एक्ट की अगर धाराओं को पढ़ें तो देश में बच्चों के साथ किसी भी तरह का अपराध या उनका शोषण बिलकुल बंद हो जाना चाहिए था। चाइल्ड पोर्नोग्राफी एक्ट तो बहुत ही कड़ा है। इन दोनों कानूनों के हिसाब से तो बच्चों के साथ कुकर्म करने का तो छोड़िए, कोई उनकी तरफ आंख उठाकर भी नहीं देख सकता।
कानून और समाज 
यह एक वास्तविकता है कि हमारे यहां कानून तो एक से एक बढ़िया वन जाते हैं लेकिन उनकी व्यावहारिकता की जांच परख और इन्हें लागू करने की मंशा अक्सर नहीं होती। सरकार हो या समाज अथवा हमारी न्याय व्यवस्था ही क्यों न हो, गंभीरता से सोचा नहीं जाता। आवश्यक प्रबंध नहीं होते, योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं होती और फैसलों पर अमल नहीं होते। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि बचपन की छेड़छाड़ के मामले की सुनवाई और फैसला तब हुआ हो जब दोनों बूढ़े हो चुके हों। इंटरनेट, सोशल मीडिया और आईटी सेक्टर द्वारा सब कुछ आनन-फानन में हर चीज़ उपलब्ध हो रही है।
पहले के दौर के बारे में सोचिए कि जब यह सब कुछ नहीं था, तब क्या होता था? बचपन का दौर तब भी आता था, तब भी ऐसे लोग होते थे जो छोटे बच्चों को अपनी हवस का शिकार बना लेते थे। समाज पता चलने पर इन दुष्कर्मियों को अपने हिसाब से सज़ा भी देता था। कानून भी अपना काम करता था। समाज अपनी ज़िम्मेदारी समझकर बच्चों की परवरिश इस तरह करने पर ज़ोर देता था और समझाता था कि बचपन की नादानियां हैं, उसके लिए मारने पीटने या सज़ा देने का कोई फायदा नहीं है, ठीक से समझा दिया जाये, इतना ही बहुत था। कानून अपनी जगह सही है और माननीय न्यायाधीशों के निर्णय पर भी कोई टिप्पणी नहीं है, लेकिन अच्छा यह रहता कि कोई ऐसा आदेश भी पारित होता कि समाज को बाल यौन शोषण से सावधान करने की ज़िम्मेदारी प्रशासन और सरकार की है। ‘गुड टच, बैड टच’ तथा किसी की बातों को मानने से पहले अपने मां-बाप को बताने जैसी बातें सही हैं, लेकिन इस बात का आकलन कौन करेगा कि बच्चों का सही पालन पोषण हो रहा है या नहीं।
यदि ऐसा नहीं हो रहा तो क्या कानून में कोई ऐसा प्रावधान है कि बच्चों को यौन आकर्षण और उनका यौन शोषण किए जाने का वातावरण बनाने वालों को अपराधी माना जा सके। इस परिधि में माता-पिता और अन्य परिवार जन भी आने चाहिए। 
सिस्टम की कमी 
हमारा जो सिस्टम है, वह बाल यौन शोषण के अपराधी को पकड़ कर सज़ा तो दिलाता है लेकिन जो बच्चा इसका शिकार हुआ है, उसे अपने बालपन के उत्पीड़न या उसके साथ हुई ज़बरदस्ती और उसे उसके मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने की बात कोई कानून नहीं करता। इसी के साथ यह भी तथ्य है कि चाहे चाइल्ड पोर्नोग्राफी का नाम बदलकर उसे बच्चों के यौन अंगों का शोषण दिखाती सामग्री कर दिया गया हो लेकिन तब इस हकीकत पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए था कि क्या हमारे सिस्टम के पास कानून लागू करने की इच्छा और संसाधन भी हैं? यदि इस ओर ध्यान दिया जाता तो बजाय अश्लील सामग्री देखने और रखने वाले निरीह व्यक्ति को सज़ा देने के स्थान पर सिस्टम की असफलता के ज़िम्मेदार लोगों के लिए सज़ा का प्रावधान होता। यह सिर्फ कानून का मसला नहीं है, बल्कि प्रत्येक बालक को उसकी उम्र के अनुसार शरीर में होने वाले परिवर्तनों के प्रति जागरूक करने के लिए सही प्रबंध करने का है। अदालत को यह भी देखना चाहिए कि जो पीड़ित बालक या बालिका है, उसके साथ कौन खड़ा है, अक्सर परिवार वाले ही उसमें अपराध भावना भर देते हैं। क्या पीड़ित के लिये केवल पुलिस में रिपोर्ट करने का ही विकल्प है, वह क्यों जाये थाने में या उसके माता-पिता जायें, क्या सिस्टम को उनके पास नहीं जाना चाहिए और सभी तरह की राहत पहुंचाने का पुख्ता इंतज़ाम करने चाहिए?
इंटरनेट से इस तरह का कंटेंट हटाने की बात सही कदम है लेकिन हरेक को एक ही लाठी से हांकने की बात गलत है। जो ऐसी सामग्री रखते या देखते और दूसरों को भेजते हैं, उनकी भी तो काउंसलिंग की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है या इसके लिये विवश किया जा सकते हैं कि वे इस तरह की हरकतों की नज़ाकत को समझते हुए स्वयं इन्हें हटा दिया करें। आम तौर से अधिकतम लोग ऐसी सामग्री तुरंत हटा देते हैं तो फिर वे मुट्ठी भर लोग, जो इस अश्लील सामग्री के व्यापार से अमीर बन रहे हैं, केवल उन्हीं की पहचान कर उन्हें ही सख्त सज़ा देना सही नहीं होगा, ज़रा सोचिए