फिर याद नहीं आई वह भूली दास्तां
कभी-कभी लगता है, कि अपने देश के लोग बहुत अच्छे हैं। परमात्मा की शक्ति पर विश्वास करते हैं, और फटते बादलों में, उ़फनती बाढ़ में, सरकते पहाड़ों में उस अपार शक्ति का नाम ले कर तीर्थ स्थलों की ओर चल देते हैं। दर्शन करके सुरक्षित लौट आते हैं चाहे बाद में कालरात्रि अपना ताण्डव नाचती रहे। ऐसी भली मानुस जनता और कहां मिलेगी? उनका जमाजत्था किसी आपद में नष्ट भी हो जाये, तो वे हरि इच्छा कह आगे चल देते हैं। क्षतिपूर्ति के लिए समय के मसीहाओं का घेराव नहीं करते। मुआविज़ा अगर मिल जाये तो उसे मध्यजनों के साथ मिल बैठ कर खाने में तनिक भी झिझक नहीं करते। ‘जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया’, कह वे कृत्य-कृत्य हो जाने की भावना से भरे रहते हैं, बन्धु!
अपनी सरकार, अपने सिंहासनधारियों को वे खुदा का दर्जा देते हैं। वे अगर आंकड़ों से समझा देते हैं, कि देखो महंगाई नियंत्रित हो गई है, तो वे हर पल उछलती कीमतों और अपनी जेब काटती मंडियों को नज़र अन्दाज़ करके इसे सच मान लेते हैं। कह देते हैं, उनकी ज़रूरी वस्तुएं कौड़ियों के दाम मिल रही हैं, जनाब! जब नहीं मिलतीं तो वे इसे किस्मत का दोष और पिछले जन्म का अपना कोई कुफल बताने लगते हैं। इच्छित वस्तु तक जेब में नहीं पहुंचती तो सब्र का घूंट पी लेते हैं, और उस वस्तु के प्रयोग को अपनी ज़िन्दगी से बाहर कर देते हैं, कि ‘अहा, यह तो उनकी सेहत बिगाड़ रही थी। फिर बलिदानी हो जपने लगते हैं, त्याग तप का मूल है।’
अहा! उनके त्याग और बलिदान का क्या ठिकाना? वस्तु महंगी होकर उनकी जेब की तौफीक से बाहर हो गई। उसे प्राप्त करने के लिए कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं। बस यही मान लिया कि ऊंची अटारियों वालों की चाह थी, उन्हें ही मिलेगी। हमारी बस्ती की ओर कहां भटक कर चली आई, कम्बख्त!
यहां क्रांति की बातें नहीं होतीं, बदलाव के सपने नहीं देखे जाते। नई दुनिया का अर्थ यहां संशोधित दुनिया है। जितनी चादर देख उतने पांव पसार उनका प्रिय सूत्र वाक्य है। कई लोग तो अपनी कमीज़ से ही पांवों को ढकते देखे जाते हैं। ऐसे लोगों को दयनीय नहीं, चमत्कारी माना जाता है। जादू टोने, चमत्कारों और झाड़-फूंक में हमारा शुरू से विश्वास रहा है, इसलिए सुबह उठ कर अपने जन-धन खाते एक बार खोल कर अवश्य देख लेते हैं, कि इनमें महामनों के वचनानुसार पन्द्रह लाख रुपये आये कि नहीं। बरसों बीत गये, वह नहीं आये। अब ताज़ा ़खबर यह है कि उनकी आमद का इन्तज़ार पच्चीस बरस के लिए टाल दिया गया है। जब अपना देश विकसित हो जाएगा, खोये धन सा पन्द्रह लाख रुपया सब पायेंगे।
यहां मेहनत से नहीं ऊपर वाले की कृपा से भाग्य की लाटरी खुल जाने की उम्मीद होती है। यहां ऊपर वाले से अर्थ सातवें आसमान पर बैठी वह अपार शक्ति नहीं, बल्कि उन स्व-घोषित छोटे नवाबों से है, जो आपके जीवन के संचालन का दम भरते हैं। काम की नहीं, अनुसरण की प्रेरणा देते हैं। ‘बिल्ली भागों छींका टूटा’, खुशकिस्मती की रेखा का आकस्मिक रूप से चमक उठना नहीं, बल्कि दल बदल कर मसीहा का पुराना चेहरा भूल कोई नया चेहरा अपना लेना है।
चेहरे बदलने में अपने लोग इतने माहिर हो गए हैं, कि किसी एक दिन की सुबह, दोपहर, शाम को तीन-तीन चेहरे भी बदलते देखे जाते हैं। चेहरे बदल कर होने वाली भाषण नौटंकी में जनता की चिन्ता के संवाद वही रहते हैं। हां जिसके भरोसे अपनी नय्या पार करनी है, उसका खवैया बदल जाता है।
खवैया बदल कर यहां कोई शर्मिन्दा नहीं होता। पूरा-पूरा दल पांसा पलट लेता है, और उसी तर्क के साथ कि ‘जनता का भला हो रहा है।’ भला यही होता है कि आपके चहेते को चुनाव की टिकट मिल गई, और अपने बाद उसने बेटे से लेकर नाती-पोतों तक की टिकट का इंतज़ाम कर दिया। अगर यह नहीं हो पाता, तो यह देश के दुर्भाग्य के लक्षण हैं, और अब ‘इस बेचारी अभागी बहुसंख्या के संकट कौन हारेगा?’ दर्द भरे अंदाज़ से सवाल पूछा जाता है, और स्व-घोषित नेता पार्टी बदल जाता है।
इस देश में उत्सव बहुत मनाये जाते हैं। खुशी के असल मौके तो कम आते हैं, इसलिए सफलता की उम्मीद या सम्भावना के पैदा होने पर ही उत्सव मना लिये जाते हैं।
इस देश की अधिकांश जनता वंचित प्रवंचित है, और अधिकांश नौजवान विदेश पलायन के लिए चाहवान ही नहीं, उतारू हैं। लेकिन जब यह चाह पूरी नहीं होती, तो अपने ही देश में वे नशा दारू के माफिया के हथियार उठा उनके पीछे-पीछे चलना उन्हें अच्छा लगता है। चन्द पैसे जब इकट्ठे हो जाएं तो वे केंचुल बदल लेते हैं। कुर्ता पायजामा या शाल वाल ओढ़ वे देश का मार्ग-दर्शन करने लगते हैं, और अपनी पंचवटी को किसी प्रासाद में बदलते हुए तनिक भी झिझकते नहीं। बस इसे ही वे जन-क्रांति का नाम देते हैं, और अपने पीछे चलती जनता को जयघोष बना देते हैं। चलता फिरता, सजीव जयघोष। जी हां, मैंने कहा न कि इस देश के बाशिन्दे अपने कमाया कल्प के लिए ऊपर वाले की शक्ति पर अगाध विश्वास रखते हैं। जी नहीं वह आसमानी खुदा नहीं, आपके मुहल्ले, नगर या राजधानी में दरबार सजा के बैठा खुदा।
अभी नई ़खबर आई है कि जिन देशों में खाने-पीने का ठिकाना नहीं, चमकते चांद को पा लेने का वसीला नहीं। जो अंधेरे में पैदा हुए और अंधेरे में ही मरे, वे प्राय: स्मृति लोप या स्मृति भ्रम की बीमारी का शिकार हो जाते हैं।
जी नहीं, इस असाहृय से रोग के लिए मुफ्त उपचार की कोई नई ‘आयुष्मान योजना’ चलाई नहीं जाती। पुरानी तो बिना भुगतान के कराहने लगी, लेकिन देश के कर्णधारों की सेहत के लिए यही माफिक है कि जनता का उनको लेकर यह स्मृति भ्रम या स्मृति लोप बना रहे। वे हर चुनाव पारी से पहले ही अनुदान और अनुकम्पा के सब्ज़बाग उनके लिए खिला देने की नई गारंटियां दें। दल विभिन्न प्रतियोगी हैं, और सत्ता के एक ही अनार के लिए सौ बीमार लालायित हैं। इसलिए सब्ज बागों के इस मुकाबले में ज़मीन आसमान के कुलाबे भी वे मिला दें तो कोई हज़र् नहीं। इस कुलाबा दौड़ में उनको अपनी जाति और वर्ग का संरक्षण देना है। चुनावी समर में अपने आदमियों के जत्थों की सेना तैयार करनी है। दावे जो वे कर रहे हैं, उनको भूलने वाले ही बेहतर। यह स्मृति लोप ही तो उत्सव धर्मी होने में मदद करता है, और हर भूली दास्तां आपको विजय ध्वज प्रदान करती है।