कागज़ के टुकड़े पर शब्दों की जादूगरी की चिट्ठी

आज विश्व डाक दिवस पर विशेष

हमारे दैनिक जीवन में डाक के महत्व को दर्शाने तथा इसकी उपयोगिता साबित करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 9 अक्तूबर को ‘विश्व डाक दिवस’ मनाया जाता है जबकि भारत में 10 अक्तूबर को ‘राष्ट्रीय डाक दिवस’ मनाया जाता है। स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में 9 अक्तूबर 1874 को 22 देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके बाद ‘यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन’ का गठन किया गया था। भारत 1 जुलाई 1876 को यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनाए जो इसकी सदस्यता लेने वाला पहला एशियाई देश था। 1874 में बनी ‘यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन’ की याद में जापान के टोक्यो में 9 अक्तूबर 1969 को आयोजित विश्व डाक संघ के सम्मेलन में इसी दिन ‘विश्व डाक दिवस’ मनाए जाने की घोषणा की गई। तभी से प्रतिवर्ष 9 अक्तूबर को विश्व डाक सेवा दिवस मनाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य ग्राहकों के बीच डाक विभाग के उत्पादों के बारे में जानकारी देना, उन्हें जागरूक करना और डाकघरों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है।
ब्रिटेन में डाक विभाग की स्थापना 1516 में हुई थी, जिसे रॉयल मेल के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्यालय वहां की राजधानी लंदन में है। फ्रांस में डाक विभाग की शुरूआत 1576 में ‘ला पोस्ट’ के नाम से की गई थी, जिसका मुख्यालय वहां की राजधानी पेरिस में है। जून 1600 में जर्मन सरकार द्वारा ‘ड्यूश्च पोस्ट’ नाम से डाक सेवा की शुरूआत की गई, जिसका मुख्यालय बॉन में है। अमेरिका में ‘यूएस मेल’ नाम से डाक विभाग की स्थापना 1775 में हुई थी। श्रीलंका में 1882 में ‘श्रीलंका पोस्ट’ के नाम से डाक विभाग की स्थापना हुई, जिसका मुख्यालय कोलंबो में है। प्राचीन काल में डाक सेवा का उपयोग राजा-महाराजा अथवा शाही घरानों के लोग ही करते थे और तब पत्रों अथवा संदेशों को लाने-ले जाने का काम उनके विशेष संदेशवाहक या दूत अथवा कबूतर या अन्य पशु-पक्षी करते थे, जिन्हें बाकायदा इस काम के प्रशिक्षित किया जाता था लेकिन बाद में जब आम लोगों को भी इसकी ज़रूरत महसूस होने लगी तो तय किया गया कि पत्रों की आवाजाही के शुल्क का भुगतान या तो पत्र प्रेषक करेगा अथवा प्राप्तकर्ता से शुल्क लिया जाएगा लेकिन प्राय: होने यह लगा कि प्रेषक पत्रों को अग्रिम भुगतान किए बिना भेज देता और प्राप्तकर्ता उसे लेने के बजाय वापस लौटा देता तथा तब प्रेषक भी शुल्क के भुगतान से बचने के लिए उसे लेने से इन्कार कर देता। इससे सरकार को अनावश्यक आर्थिक क्षति झेलनी पड़ती थी।
डाक व्यवस्था की इन्हीं खामियों के कारण लगातार हो रहे आर्थिक नुकसान के मद्देनज़र ब्रिटिश सरकार को प्रसिद्ध आर्थिक सलाहकार रोलेण्ड हिल ने सलाह दी कि वह डाक व्यवस्था में मौजूद दोषों अथवा खामियों को दूर करने के लिए इसमें कुछ अनिवार्य संशोधन करे और डाक शुल्क के अग्रिम भुगतान के रूप में डाक टिकट तथा शुल्क अंकित लिफाफे जारी करे ताकि इनके जरिये अग्रिम डाक शुल्क प्राप्त हो जाने पर सरकार को घाटा न झेलना पड़े। ब्रिटिश सरकार द्वारा यह सुझाव स्वीकार किए जाने के बाद ठप्पा टिकटों के बजाय डाक टिकटें जारी करने का फैसला किया गया। इस प्रकार 10 जनवरी, 1840 को डाक टिकट का आविष्कार हो गया, जो एक पैनी मूल्य का था लेकिन इसको विधिवत 6 मई, 1840 को ही जारी किया गया। इस तरह वह विश्व का पहला डाक टिकट बना।
भारतीय डाक विभाग की स्थापना एक विभाग के रूप में 1 अक्तूबर 1854 को हुई थी। भारत में मनीऑर्डर प्रणाली की शुरूआत 1880 में ही हो गई थी जबकि त्वरित डाक सेवा प्रदान करने के लिए स्पीड पोस्ट की शुरूआत 1986 में की गई थी। भारतीय डाक विभाग में डाकघरों को चार श्रेणियों में बांटा गया है, प्रधान डाकघर, उप-डाकघर, अतिरिक्त विभागीय उप-डाकघर तथा अतिरिक्त विभागीय शाखा डाकघर। निर्धारित जनसंख्या, दूरी एवं आय से संबंधित मानकों के अनुरूप ही किसी क्षेत्र में डाकघर खोला जाता है। भारतीय डाक विभाग द्वारा देशभर में पिन कोड नम्बर (पोस्टल इंडेक्स नम्बर) के आधार पर ही डाक वितरण का कार्य किया जाता है। पिन कोड नम्बर की व्यवस्था की शुरूआत 15 अगस्त, 1972 को की गई थी, जिसके तहत विभाग द्वारा देश को नौ भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया। 1 से 8 तक की संख्या भौगोलिक क्षेत्र हैं जबकि संख्या 9 सेना डाक सेवा के लिए आवंटित की गई। छह अंकों वाले पिन कोड में पहला अंक क्षेत्र, दूसरा उपक्षेत्र, तीसरा ज़िले को प्रदर्शित करता है तथा आखिर के तीन अंक उस ज़िले के विशिष्ट डाकघर को दर्शाते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व तक डाकियों का कितना महत्व हुआ करता था, यह इसी से समझा जा सकता है कि डाकिये को देखते ही लोग उसकी साइकिल के पीछे-पीछे चलने लगते थे। दरअसल उन्हें लगता था कि उसके पास उनकी भी कोई चिट्ठी होगी। गांव के किसी खास स्थान पर डाकिये की साइकिल रूकते ही लोग उसे इस उम्मीद से घेर लेते थे कि उसके थैले से उनके किसी परिजन की चिट्ठी निकलेगी। तब डाकिया एक-एक का नाम लेकर उनकी चिट्ठियां बांटता था। उस जमाने में बहुत से लोग ऐसे होते थे, जिन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था, ऐसे लोग अपनी चिट्ठियां डाकिये से या गांव के ही किसी पड़े-लिखे व्यक्ति से पड़वाते थे और उसका जवाब भी उसी से लिखवाकर भेजा करते थे। हालांकि आज के आधुनिक तकनीकी युग में ई-मेल, व्हाट्सअप, ऑडियो या वीडियो कॉल ने चिट्ठी-पत्री के युग को लगभग खत्म कर दिया है और अब हजारों किलोमीटर दूर तक भी कोई संदेश पलभर में पहुंच जाता है जबकि चिट्ठियां कई-कई दिनों में पहुंचा करती थी लेकिन ये लंबी दूरियां खत्म होने और परिचितों की हर पल की खबर होने के बावजूद चिट्ठियों के समय का प्यार और अपनापन कहीं खोया हुआ सा लगता है।
जहां तक डाकघरों की महत्ता की बात है तो भले ही हाईटेक होती दुनिया में चिट्ठियों का अस्तित्व खत्म हो गया हो लेकिन डाकघरों की महत्ता कभी खत्म नहीं हो सकती। अब चिट्ठियों के बजाय विभिन्न प्रकार के दस्तावेजों की प्रतियां बड़ी संख्या में डाकघरों के जरिये भेजी जाती हैं। देश-विदेश तक सूचनाएं पहुंचाने का सर्वाधिक विश्वसनीय, सस्ता और सुगम साधन रहा डाक विभाग पिछले कुछ वर्षों में सूचना तकनीक के नए माध्यमों के प्रसार तथा डाक वितरण क्षेत्र में निजी कम्पनियों के बढ़ते प्रभुत्व के कारण भले ही पिछड़ता नज़र आया है लेकिन समय के बदलाव को भांपते हुए डाक विभाग मौजूदा सेवाओं में अपेक्षित सुधार करते हुए स्वयं को कुछ नई तकनीकी सेवाओं से जोड़ते हुए डाक, पार्सल, पत्रों इत्यादि को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक्सप्रेस सेवाएं शुरू कर चुका है। बढ़ती चुनौतियों के मद्देनज़र डाकघरों को भी ग्राहकों को बैंकों जैसी बेहतर सुविधाएं देने के लिए ‘इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक’ स्थापित किया जा चुका है। डाकघरों में अब बुनियादी डाक सेवाओं के अलावा बैंकिंग, वित्तीय तथा बीमा सेवाएं भी ग्राहकों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। स्पष्ट है कि डाक व्यवस्था पर डाक विभाग का एकाधिकार भले ही खत्म हो गया हो लेकिन इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है।

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