हार से सबक
हरियाणा के चुनाव ने यह ज़रूर सिद्ध कर दिया है कि चुनावी राजनीति में ज़रूरत से अधिक विश्वास से परिणाम नहीं निकाले जा सकते। इस बार हवा कांग्रेस के पक्ष में थी। 10 वर्ष तक की लोगों की अधूरी रह गई आशाओं तथा उमंगों संबंधी शिकायतें भी भाजपा की झोली में ही पड़ी दिखाई देती थीं। सरकार में रह गई विफलताओं की ज़िम्मेदारी भी उसकी थी। पिछले वर्षों में भाजपा के प्रशासन का लगातार प्रभाव भी कम होता दिखाई दे रहा था। पहली बार इसे बहुमत प्राप्त हुआ था। दूसरी बार इसे सरकार बनाने के लिए अन्य पार्टी का सहारा लेना पड़ा था। विगत में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीटें भी कम हो गई थीं। पहले इसके पास प्रदेश में लोकसभा की 10 में से 10 सीटें थीं तथा फिर यह 5 पर सिमट गई थीं। पांच इसके विरोधी गुट कांग्रेस के हिस्से में आई थी। दूसरी पारी के दौरान अधर में ही इसका भागीदार पार्टी के साथ समझौता टूट गया था।
अपने विरोध में चलती हवा के रुख को अपनी ओर करने के यत्न में इसने लगभग सात मास पहले अपना मुख्यमंत्री ही बदल दिया था। भाजपा सरकार की हालत को भांपते ही कांग्रेस पूरे हौसले में आ गई थी। चुनावी समय के दौरान चुनावों का माहौल इसके पक्ष में बनने लगा था जो मतदान होने तक बना दिखाई दे रहा था, परन्तु चुनावों में जीत प्राप्त करके भाजपा तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है। यह बात बड़ी आश्चर्यजनक भी है तथा आंकड़ों की जुगलबंदी करते दिलचस्प भी बन गई है। इसे भारतीय लोकतंत्र का अद्भुत रंग भी कहा जा सकता है। जहां तक चुनावी वायदों का सवाल है, तो इन दोनों ही पार्टियों ने ये बड़े ज़ोर-शोर से किए थे।
कांग्रेस ने पांच गारंटियों की घोषणा की थी, जिनमें 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 25 लाख रुपए तक मुफ्त इलाज, गरीबों के लिए 100 गज़ के प्लाट एवं महिलाओं के लिए प्रत्येक मास 2000 रुपए देने की बात की गई थी। भाजपा ने भी कम नहीं किया था। उसने भी वायदों की झड़ी लगा दी थी, जिनमें लाडो लक्ष्मी योजना के तहत प्रत्येक परिवार को 2100 रुपए महीना, 10 लाख रुपए तक मुफ्त इलाज, ग्रामीण क्षेत्रों में कालेज जाने वाली छात्राओं को मुफ्त स्कूटर, प्रदेश के हर अग्निवीर के लिए सरकारी नौकरी की गारंटी आदि शामिल थे। कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में तीन मुख्य मुद्दे उभारे थे— जोकि किसानों, जवानों तथा पहलवानों संबंधी भाजपा की केन्द्र सरकार की नीतियों के इर्द-गिर्द केन्द्रित थे। चाहे चुनाव लड़ने वाली अन्य पार्टियों में इनैलो (इंडियन नैशनल लोकदल), जे.जे.पी. (जननायक जनता पार्टी), आम आदमी पार्टी, बसपा एवं कुछ अन्य छोटी पार्टियां भी शामिल थीं, परन्तु उम्मीद के अनुसार इन्हें चुनावों में बहुत कम समर्थन मिला है। कांग्रेस, जाट बिरादरी, दलितों एवं मुसलमानों पर टेक रख रही थी। भाजपा अन्य पिछड़ी जातियों एवं सवर्ण जातियों को आधार बनाये बैठी थी। हरियाणा में जाट बिरादरी 27 प्रतिशत है, जिसका प्रभाव 35 से 40 सीटों पर माना जाता है।
कांग्रेस ने इस बार इस बिरादरी के 35 उम्मीदवारों को टिकट दी थी परन्तु कांग्रेस निचले स्तर तक चुस्त चुनाव नीति बनाने में भाजपा से पिछड़ गई। कांग्रेस ने पूरी टेक जाट नेता भूपिन्द्र सिंह हुड्डा पर रखी जबकि उसने प्रदेश की बहु-चर्चित दलित नेता कुमारी सैलजा को एक तरह से दृष्टिविगत ही कर दिया था। इस पार्टी में आपसी खींचतान ने भी चुनावों को भारी सीमा तक प्रभावित किया है। इस हुई हार के संबंध में कांग्रेस को अपने भीतर झांकने की ज़रूरत है परन्तु वह बौखहालट में आई प्रतीत होती है। इससे किसी भी राष्ट्रीय पार्टी का प्रभाव ही कम होता है, क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सहनशीलता और परिपक्वता का प्रकटावा किया जाना चाहिए। आगामी समय में इस हार से कांग्रेस को अपने भीतर झांक कर बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत होगी।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द