ढेर सारे वोट पाने वाले कांग्रेस के ब़ागी किसने खड़े किये थे ?

हरियाणा में कांग्रेस के चुनाव हार जाने पर तरह-तरह के कारण बताये जा रहे हैं, और किस्म-किस्म की दलीलें दी जा रही हैं। मेरा ़ख्याल है कि इधर-उधर की बातें करने के बजाये सीधे तथ्यों पर चर्चा की जानी चाहिए। कम से कम 16 ऐसी सीटें थीं जिन पर अगर कांग्रेस अपने बागियों को नियंत्रित कर लेती तो इस समय उसके पास न केवल बहुमत होता, बल्कि वह एक शानदार जीत हासिल करती नज़र आती। ये सीटें थीं— कालका, पुंडरी, राइ, गोहाना, सफीदों, दादरी, टिगांव, अम्बाला कैंट, असंध, उचाना कलां, बध्रा, महेंद्रगढ़, सोहना, डबवाली और रनिया। इन पर खड़े कांग्रेस के बागियों कांग्रेस को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ी और जीत कार में फर्क 32 वोटों से लेकर 17000 वोटों तक ही रहा। वोटों के समीकरण को देख कर साफ लगता है कि अगर टिकट उम्मीदवार की ताकत देख कर बांटे जाते, या बागियों को पटा लिया जाता तो कांग्रेस कम से कम दस सीटें जीत जाती। लेकिन, ऐसा न हो सका। ये बागी आये कहां से थे? क्या इन्हें भाजपा ने खड़ा किया था? हो सकता है कि कुछ के पीछे भाजपा का हाथ हो। पर ज्यादातर ब़ागी कांग्रेस की भीतरी गुटबाज़ी का परिणाम थे। इन्हें कांग्रेस के विभिन्न नेताओं ने खड़ा किया था, उनकी चुनावी मुहिम चलवाई थी, उसमें पैसा लगाया था। प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए कि आलाकमान की तरफ से ऐसा कौन सा नेता था जो इन सब बातों पर निगाह रख रहा था? आलाकमान इस तरफ से अनजान क्यों था? 
कांग्रेस मान कर चल रही थी कि हरियाणा चुनाव की पटकथा उसके हाथ से लिखी जा रही है। उसे यकीन था कि चुनाव नतीजों के दिन इस पर बनी फिल्म सुपरहिट साबित होगी। लेकिन, जैसा कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री में कहावत है कि फिल्म हिट होगी या ़फ्लॉप यह कोई नहीं जानता। बहरहाल, हरियाणा का चुनाव एक बहुत बड़ा सबक है। ़खासकर उन लोगों के लिए जो संख्याबल और सामाजिक रुतबे के दम पर चुनावी मुहिम में ज़बरदस्त शोरगुल के ज़रिये अक्सर अपनी हवा बनाते हैं। लेकिन उनकी हवा के जीत में बदलने की कोई गारंटी नहीं होती। हरियाणा के संदर्भ में ऐसे लोगों को जाट समुदाय के रूप में देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के संदर्भ में यह भूमिका यादव समुदाय निभाता रहा है। पहले से बेहतर प्रदर्शन, लेकिन चुनावी जीत से दूर। बिहार में तेजस्वी की पार्टी और उत्तर प्रदेश में अखिलेश की पार्टी का जो हश्र हुआ था, वही हश्र हरियाणा में कांग्रेस का हुआ। 
दूसरा सबक उन लोगों के लिए है जिन्होंने एगज़िट पोल करने वाली एजेंसियों पर एक बार फिर भरोसा करने की गलती की। सवाल यह है कि इन लोगों ने लोकसभा चुनाव में मुंह के बल गिरने वाली इन एजेंसियों की बात पर भरोसा क्यों किया? दरअसल, एगज़िट पोल ठीक वही कह रहे थे जो हरियाणा का प्रभुत्वशाली जाट समुदाय कह रहा था या चाह रहा था। दोनों की भविष्यवाणियां मिल गईं, और उसका असर इतना ज़बरदस्त हुआ कि खुद भाजपा के भीतर चुनाव जीतने का य़कीन कमज़ोर पड़ गया। और तो और, एक एजेंसी ने तो समाज के प्रत्येक वर्ग में कांग्रेस को भाजपा से बहुत-बहुत आगे दिखाया था। इसका असर यह हुआ कि मीडिया मंचों पर भाजपा के प्रवक्ता सहमे हुए दिखने लगे। तीसरा सब़क उन राजनीतिक त़ाकतों के लिए है जो दलित जैसे कमज़ोर समुदायों के मतदाताओं को अपना जेबी वोट मान कर चलते हैं। इस चक्कर में वे इस मतदाता मंडल के  नेताओं का तिरस्कार करने से भी नहीं हिचकते, और अंत में मुंह की खाते हैं। चौथा सबक मेरे जैसे राजनीतिक समीक्षकों के लिए है जो अपने सयानेपन के बावजूद शोरगुल और तथाकथित हवा के फेर में फंस कर अपनी शुरुआती संतुलित राय बदल देते हैं और फिर बाद में पछताते हुए दिखते हैं। 
भाजपा चुनाव जीत चुकी है। लेकिन क्या उसे ठीक-ठीक पता है कि वह क्यों जीती? कांग्रेस चुनाव हार चुकी है। लेकिन, क्या उसे साफ-साफ पता है कि वह क्यों हार गई? एक बड़ा कारण ज़रूर साफ लगता है कि कांग्रेस ने जाट-दलित-मुसलमान का ऊपर से प्रभावशाली लगने वाला जो सामाजिक गठजोड़ बनाया था, उसने सौ प्रतिशत काम नहीं किया। दलित वोटों का एक हिस्सा ज़रूर छिटक कर भाजपा में गया है। भाजपा को वोट देने वाले दलितों ने स्वयं को ़गैरजाट मान कर वोट दिया। ओबीसी समुदाय का रुझान भी भाजपा के पक्ष में दिख रहा है। भाजपा के नेतृत्व में जाट प्रभुत्व को तोड़ने की जो मुहिम दस साल पहले शुरू हुई थी, वह अभी भी जारी है। यह शायद उस कांग्रेसी रणनीति की सज़ा है जिसके तहत पार्टी के टिकट बंटवारे (90 में से 72) पर हुड्डा की पसंद की खुली छाप लगी हुई थी। 
चुनाव प्रचार के दौरान यह फिकरा खूब दोहराया गया कि कांग्रेस में भले ही कुमारी शैलजा और भूपिंदर सिंह हुड्डा के बीच खींचतान मची हो, पर जब जनता ही कांग्रेस को चुनाव जिताने पर अड़ गई है तो इस अदरूनी फूट से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। हकीकत यह निकली कि जनता ने एकतरफा वोट देने से इंकार किया। चुनाव आयोग के मुताबिक करारी टक्कर वाले इस चुनाव में दोपहर तीन बजे तक दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को त़करीबन बराबर-बराबर (39 से 40 प्रतिशत के बीच) वोट मिले थे। स्थानीय पेचीदगियां किसी निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में गईं, और कहीं कांग्रेस तरफ झुक गईं। हमारी चुनाव प्रणाली जिस ़िकस्म की है, उसमें कभी-कभी आधा-एक प्रतिशत वोट ज्यादा मिलने पर भी कोई पार्टी सीटों में पीछे हो जाती है। हरियाणा में मुसलमान-प्रधान क्षेत्रों में कांग्रेस के उम्मीदवार बहुत बड़े अंतराल (एक-डेढ़ लाख वोट) से जीते। शायद इसीलिए कांग्रेस का वोट प्रतिशत के भाजपा के नज़दीक तो दिखा, पर सीटों को जिताने में उतना सक्षम नहीं निकला।  
जम्मू-कश्मीर में भाजपा अपनी सरकार बनाने की मुहिम में नाकाम हो गई है। वह घाटी में वोटों की गोलबंदी बिल्कुल नहीं कर पाई, और जम्मू में भी उसे आशा के अनुरूप समर्थन नहीं मिला। अगर भाजपा ने साल-दो साल पहले ही वायदे के मुताबिक कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया होता, तो वह जम्मू में बड़ी जीत (35-36 सीटें) जीत कर अपनी दावेदारी मज़बूत कर सकती थी। भाजपा ने घाटी में किसी स्थानीय त़ाकत से गठजोड़ भी कर लिया होता तो वह वहां कुछ कर पाटी। लेकिन, उसने स्वयं को अलगाव में रखना पसंद किया। यह उसकी बड़ी चूक हुई। इसके उलट राहुल गांधी ने चुनाव घोषित होते ही मौका ताड़ा और श्रीनगर जाकर नैशनल कांफ्रैंस से गठजोड़ कर लिया। इस समय दोनों के वोट मिल कर 35 प्रतिशत को पार कर चुके हैं। भाजपा करीब 9-10 प्रतिशत पीछे है। धारा 370 का 35ए वाला हिस्सा हटा कर भाजपा ने इतिहास ज़रूर बनाया था, पर वह न तो कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास कर पाई, और न ही जम्मू में आतंकवाद के नये उभार को रोक पाई। पांच साल तक चली नौकरशाहाना सरकार के कारण भी भाजपा की राजनीतिक धार कुंद हुई। उसके नेता ़फाइल बगल में दबा कर सचिवालय के चक्कर लगाते ही रह गए। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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