पराली जलाने की घटनाओं पर पूर्ण रोक लगाने की ज़रूरत

किसान प्रत्येक विपरीत मौसम में देश की जनता का पेट भरने के लिए अपने श्रम से फसल का उत्पादन करता है, किन्तु उसे पराली जलाने के अपराध में जेल भेजने की धमकियां दी जा रही हैं। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने पराली जलाने की घटनाओं को पूर्णतया रोक लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। आयोग ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के ज़िला अधिकारियों को विशेष अधिकार प्रदान किए हैं। कहीं भी पराली जलाई गई तो किसान के विरुद्ध न केवल कानूनी कार्यवाही की जाएगी, बल्कि उसे हिरासत में भी लिया जा सकता है। यह कार्यवाही राष्ट्रीय राजधानी और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिनियम 2021 की धारा.14/2 के तहत की जाएगी। 15 सितंबर से 9 अक्तूबर 2024 तक पराली जलाने की 454 घटनाएं घटी हैं, इनमें 267 पंजाब में और 187 हरियाणा में दर्ज की गई हैं। जबकि पराली से ज्यादा प्रदूषण दिल्ली और समूचे एनसीआर में कारों और दो पहिया वाहनों से होता है। 
 मौसम के करवट लेते ही देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण का हल्ला शुरू हो जाता है। इस प्रदूषण के कारण तो कई हैं, लेकिन प्रमुख कारण पराली जलाना बताया जाता रहा है। लेकिन नए शोधों से पता चला है कि पाकिस्तान में बड़ी मात्रा में पराली जलाई जाती है, जिसके लिए हमारे किसान दोषी नहीं हैं। पंजाब रिमोट सेंसिंग सेंटर (पीआरएससी) द्वारा लिए उपग्रह चित्रों से पता चला है कि सीमा पार का धुआं भी दिल्ली की आबो-हवा खराब कर रहा है। अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पंजाब के खेतों में जलती पराली की तस्वीरें जारी करके यह जताने की कोशिश की थी कि वायु प्रदूषण के लिए पराली ही दोषी है। इसके जवाब में पंजाब सरकार का तर्क था कि यह धुआं सिर्फ पराली का नहीं है, इसमें कचरा घरों, शमशान और भोजन पकाने का धुआं भी शामिल है। फसलों के अवशेष के रूप में निकलने वाली पराली को हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में जलाया जाता है। इससे दिल्ली की आवोहवा में धुंध छा जाती है। हर साल सितंबर-अक्तूबर-नबम्वर माह में फसल कटने के बाद देश बचे दंठलों को खेतों में ही जलाया जाता है। इनसे निकलने वाला धुआं वायु को प्रदूषित करता है। वायु गुणवत्ता सूचकांक के आंकड़े बताते हैं कि मानसून खत्म होते ही दिल्ली में वायु प्रदूषण तेज़ी से बढ़ने लगता है। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि देश में हर साल 70 करोड़ टन पराली निकलती है। इसमें से 9 करोड़ टन खेतों में ही छोड़नी पड़ती है। हालांकि 31 प्रतिशत पराली का उपयोग चारे के रूप में, 19 प्रतिशत जैविक ऊर्जा के रूप में और 15 प्रतिशत पराली खाद बनाने के रूप में इस्तेमाल कर ली जाती है। बावजूद 31 प्रतिशत बची पराली को खेत में ही जलाना पड़ता है,, जिसे वायू प्रदूषण का बड़ा कारण एजेंसियां जताती हैं।
अकेले पंजाब में इस बार 15 लाख मीट्रिक टन पराली खेतों में जलाने की आशंका है। एक हेक्टेयर धान के खेत में औसतन 3 से 5 मीट्रिक टन पराली निकलती है। पंजाब में इस बार 30 लाख 10 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि में धान रोपी गई है। फसल आने के बाद इसमें से पांच लाख मीट्रिक टन पराली का इस्तेमाल चारा, खाद एवं उद्योगों में ईंधन के रूप में हो जाएगा। उपयोग की जाने वाली पराली की यह मात्रा महज 20 प्रतिशत है, जबकि 80 प्रतिशत पराली का कोई उपयोग नहीं है। इसलिए किसानों के पास इसे सरलता से नष्ट करने का  जलाने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है। केंद्र व राज्य सरकारें भी पराली नष्ट करने की सस्ती व सुरक्षित तकनीक ईजाद करने में नाकाम रही हैं। ऐसी कोई तकनीक नहीं होने के कारण किसान को खेत में ही दंठल जलाने पड़ते है। जलाने की उसे जल्दी इसलिए भी रहती है, क्योंकि खाली हुए खेत में गेहूं और आलू की फसल बोनी होती है। इस लिहाज से ज़रूरी है कि राज्य सरकारें पराली से जैविक खाद बनाने के संयंत्र जगह-जगह लगाएं और रासायनिक खाद के उपयोग को प्रतिबंधित करें। हालांकि कृषि वैज्ञानिक पराली को कुतरकर किसानों को जैविक खाद बनाने की सलाह देते हैं, किन्तु यह विधि बहुत महंगी है। कर्ज में डूबे देश के किसान से यह उम्मीद करना नाइंसाफी है। हालांकि कुछ छोटे किसान वैकल्पिक तरीका अपनाते हुए धान को काटने से पहले ही आलू जैसी फसलें बो देते हैं। इसका फायदा यह होता है कि पराली स्वाभाविक रूप में जैविक खाद में बदल जाती है।
यह सही है कि पराली जलाने के कई नुकसान हैं। वायु प्रदूषण तो इतना होता है कि दिल्ली भी उसकी चपेट में आ जाती है। अलबत्ता एक एकड़ धान की पराली से जो आठ किलो नाइट्रोजन, पोटाष सल्फर और करीब 3 किलो फास्फोरस मिलती है, वह पोशक तत्व जलने से नष्ट हो जाते हैं। आग की वजह से धरती का तापमान बढ़ता है। इस कारण खेती के लिए लाभदायी सूक्ष्मजीव भी मर जाते हैं। इस लिहाज से पराली जलाने का सबसे ज्यादा नुकसान किसान को ही उठाना पड़ता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि पराली के उपयोग के भरपूर उपाय किए जाएं। बावजूद ऐसे कई कारण हैं, जो वायु को प्रदूषित करते है। भारत में औद्योगीकरण की रफ्तार भूमंडलीकरण के बाद तेज़ हुई है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बड़ा तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋतु दस्तक देती है तो वायुमंडल में आर्द्रता छा जाती है। 
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने पराली जलाने पर पाबंदी लगा दी है। पंजाब और हरियाणा सरकारों ने पराली जलाने पर जुर्माने का प्रावधान भी किया है। इससे यह उम्मीद बंधी थी कि पराली जलाने की घटनाएं कम होंगी, लेकिन नहीं हुईं। एनजीटी ने इस पर नियंत्रण को लेकर नाराजगी जताते हुए कहा है कि जिस तरह से अपराधों को रोकने के लिए कानून लागू किए हैं, उसी तरह इस जवाबदेही के लिए अधिकारियों पर जिम्मेदारी डाली जाए। दंडात्मक कार्यवाही करने की रणनीति भी अपनाई जाए। लेकिन एनजीटी का यह निर्देश व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जब पिछले 500 साल से फसलों के अवशेषों को जलाए बिना नष्ट करने की कोई तकनीक संपूर्ण रूप में सामने नहीं आई है तो फिर किसान या अधिकारियों को एकाएक दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? वैसे पराली जलाने की समस्या केवल भारत में ही नहीं है,  दुनिया के अनेक देश इससे दो-चार हो रहे हैं।