नई शुरुआत

पिछले दशकों में जम्मू-कश्मीर में ऐसा घटनाक्रम घटित होता रहा है, जो बेहद दुखद, उदास करने वाला एवं अद्भुत था। यह प्रदेश पाकिस्तान से लगती सीमाओं के कारण पिछले 7 दशकों से अधिक समय तक बेहद चुनौतियों में से गुज़रता रहा है। इसका शरीर लगातार छलनी होता रहा है। पिछले 8 वर्ष यहां राष्ट्रपति शासन रहा है तथा वर्ष 2019 में इस राज्य को  विशेष अधिकार देने वाली धारा 370 को खत्म कर दिया गया। मोदी सरकार की ओर से उठाये गये एक कदम पर विश्वास नहीं होता था, परन्तु शुरू से ही भाजपा के एजेंडे में यह धारा शामिल थी। इसमें सन्देह नहीं कि लगातार घटित होती हिंसक घटनाओं के दृष्टिगत यहां चुनाव करवाना एक बेहद दृढ़तापूर्ण काम था। आतंकवाद की लगातार ज़द में आए लोगों के लिए भी यह परीक्षा की घड़ी थी। फिर वह भी उस समय जब केन्द्र सरकार ने इस राज्य का स्वरूप ही बदल दिया था। इसे दो क्षेत्रों में विभाजित करके लद्दाख को अलग इकाई तथा जम्मू-कश्मीर को दूसरी इकाई बना कर यहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था।
जम्मू-कश्मीर में हुये चुनावों एवं नई सरकार बनने के बाद भी यह अभी तक केन्द्र शासित क्षेत्र ही बना हुआ है, जबकि कांग्रेस सहित यहां के क्षेत्रीय दल जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा देने की मांग करते रहे थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की ओर से यहां चुनाव प्रचार के दौरान इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वायदा किया गया था। अब नई सरकार के अस्तित्व में आने के बाद जहां इसके राज्य बनने की सम्भावनाएं उजागर हो गई हैं, वहीं जिस उत्साह से आम लोगों ने इन चुनावों में भाग लिया, उससे इस बात को भी पूरा सम्बल मिला है कि यहां के लोग भारत के साथ भी जुड़ा रहना चाहते हैं तथा यहां हर पक्ष से अधिक से अधिक विकास हुए भी देखना चाहते हैं।
अब आए चुनाव परिणाम कई पक्षों से आश्चर्यजनक ज़रूर हैं। फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नैशनल कान्फ्रैंस ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़े थे। दूसरी ओर भाजपा भी दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। यहां महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी भी मैदान में थी। जम्मू-कश्मीर में 90 सीटे हैं। चुनावों में नैशनल कान्फ्रैंस को भारी समर्थन मिला तथा इसे 42 सीटें प्राप्त हुईं। दूसरे स्थान पर भारतीय जनता पार्टी रही जिसे 29 सीटें प्राप्त हुई हैं तथा कांग्रेस के हिस्से मात्र 6 सीटें ही आई हैं। चाहे नैशनल कान्फ्रैंस एवं कांग्रेस ने ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ मिल कर चुनाव लड़े थे, परन्तु कांग्रेस उमर अब्दुल्ला के मंत्रिमंडल में यह कह कर शामिल नहीं हुई कि जब तक जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिलता, तब तक वह इस नये मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगी। इससे पहले ़गैर-पारम्परिक बातचीत में कांग्रेस मंत्रिमंडल में दो सीटों की मांग करती रही थी। उमर अब्दुल्ला ने अपने सहित मंत्रिमंडल में अभी पांच मंत्रियों को शामिल किया है, जिनमें जम्मू क्षेत्र को बड़ा प्रतिनिधित्व दिया गया है।
सुरिन्दर चौधरी जोकि पहले पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के नेता थे तथा जम्मू के राजौरी ज़िले से संबंध रखते हैं, को उमर ने उप-मुख्यमंत्री बनाया है। इसी तरह जम्मू क्षेत्र के कांग्रेस पृष्ठभूमि वाले सतीश शर्मा को भी मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है तथा मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि वह जम्मू क्षेत्र के लोगों को मंत्रिमंडल में समानता का अहसास देने के लिए वचनबद्ध हैं। सम्पन्न हुये इन चुनावों में एक बात और उभर कर सामने आई है कि कट्टर जमात-ए-इस्लामी पार्टी को एक तरह से लोगों ने नकार दिया है, जिसकी ओर से खड़े किए गए ज्यादातर उम्मीदवारों की ज़मानतें ज़ब्त हो गई हैं। शेख अब्दुल्ला के पौत्र एवं फारुख अब्दुल्ला के पुत्र उमर अब्दुल्ला के समक्ष मुख्यमंत्री के रूप में अनेकानेक चुनौतियां खड़ी हैं। उन्होंने मीर वाइज़ उमर फारूक एवं शेख अब्दुल रशीद जैसे तीव्र स्वर तथा गतिविधियों वाले नेताओं को कैसे मुख्य धारा के साथ जोड़ना है, किस तरह केन्द्र के साथ संबंध स्थापित करके इस क्षेत्र के विकास को गति देनी है तथा किस तरह लोगों के विश्वास को पुन: बहाल करना है तथा इसके साथ ही पाकिस्तान एवं वहां के आतंकवादी संगठनों के साथ कैसे निपटना है, ये ऐसे मामले हैं, जिनसे आगामी समय में नई सरकार को निपटना पड़ना है। नि:संदेह यह उमर अब्दुल्ला एवं उनके साथियों के लिए अग्नि-परीक्षा वाली बात होगी, जिसकी तपिश नई सरकार को सहन करनी पड़ेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द