देवताओं के गढ़ देवगढ़ में दशावतार मंदिर के दर्शन
ललितपुर से मुझे दूसरी ट्रेन में सवार होना था, लेकिन स्टेशन पर पहुंचने के बाद मुझे मालूम हुआ कि वह छह घंटे देर से चल रही है। मैं इस समय का सदुपयोग करना चाहता था, इसलिए मैंने एक टैक्सी हायर की और निकल पड़ा देवगढ़ की ओर जो ललितपुर के दक्षिण में लगभग 30 किमी के फासले पर है। टैक्सी से यह आधा घंटे से भी कम का सफर था, लेकिन क्या सफर था- पहाड़ों पर प्राचीन मंदिर और ऊंची चट्टानों के नीचे घूमती हुई बेतवा नदी, मैं इस सुंदर नज़ारे को देखता ही रहा और मेरी पलकें झपकने के लिए भी तैयार न थीं कि कहीं कुछ छूट न जाये। इस तरह का दिलकश नज़ारा मैंने एक जगह और देखा था- सांची के पास सतधारा में जहां पहाड़ियों के ऊपर से नीचे बेस नदी बहती हुई दिखायी देती है।
बहरहाल, पहाड़ी के ऊपर की समतल ज़मीन पर दर्जनों मंदिर बने हुए हैं, जिनमें से अधिकतर तो अब अपनी पहली जैसी अवस्था में नहीं हैं। एक तरफ वराह मंदिर के भग्नावशेष हैं, सिर्फ चबूतरा बचा हुआ है। यहां कभी कुल 40 जैन मंदिर थे, लेकिन आज कुल 31 ही बचे हुए हैं, जिनमें छोटे मंदिर भी हैं और बड़े मंदिर भी हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय शांतिनाथ जी का मंदिर है, जहां मन्नत के तौर पर ‘मनस्तंभ’ बनवाने की रिवायत रही है। यहां ‘सर्वतोभद्र’ प्रतिमा है, जो चारो तरफ से दिखायी देती है और ‘सहस्त्रकूट’ खम्बे विशिष्ट हैं, जिन पर 1000 जैन मुनियों की आकृति उकेरी हुई हैं। आठवीं से 17वीं शताब्दी तक यह दिगम्बर जैनियों का केंद्र था। यहां चट्टानों को काटकर गुफा मंदिर (सिद्ध की गुफा) राजघाटी, नहरघाटी आदि भी हैं। बेतवा नदी पहाड़ियों के नीचे बहती है और नीचे जाने के लिए पत्थरों को काटकर सीढ़ियां बनायी गई हैं, जिनकी बाईं तरफ चट्टानों को तराशकर छोटे-छोटे कमरे बनाये गये हैं, जिनमें जैन मुनि प्राकृतिक वातावरण में अपनी साधना में लीन हुआ करते थे। चट्टानों पर अनेक जगह 8वीं शताब्दी की ब्राह्मी लिपि में लेख भी खुदे हैं।
मैं नीचे नदी तक जाकर वापस ऊपर लौट आया और इधर-उधर देखने लगा। रख-रखाव कुछ ठीक न लगा, हर तरफ ऊंची-ऊंची घास व झाड़-झंखाड़ ही दिखायी दे रहा था। मैं यहां से आगे बढ़ गया। थोड़ी दूर चलने पर एक अन्य मंदिर दिखायी दिया, जो गुप्तकाल का है। इसके शिखर के कई पत्थर धराशायी हो चुके हैं। देवगढ़ का यह लाल बलुआ पत्थर से बना मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और दशावतार मंदिर कहलाता है। यह शिखरयुक्त पंचायतन शैली में निर्मित मंदिरों में प्राचीनतम है, जिसे संभवत: सन 470 के आसपास बनाया गया है।
एक ऊंचे चबूतरे पर चढ़कर मैं मंदिर के प्रवेशद्वार तक पहुंचा। द्वार के दोनों तरफ बनीं गंगा और यमुना की मूर्तियों ने अपनी ओर आकर्षित किया। गर्भगृह में प्रवेश करना संभव न था, इसलिए केवल मंदिर की परिक्रमा की। मंदिर के चारों ओर पौराणिक कथाओं को अभिव्यक्त करती हुई मूर्तियां हैं, जिनमें गजेन्द्र मोक्ष, नर नारायण तपस्या और शेषसाईं विष्णु की प्रतिमाएं विशेषरूप से आकर्षित करती हैं। आश्चर्य में डालने वाला फलक विष्णु का है। विष्णु अपनी चिर परिचित मुद्रा में शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं। ऊपर की ओर कार्तिकेय अपने मयूर पर आरूढ़, ऐरावत पर बैठे इंद्र, कमल पर ब्रह्मा और नंदी पर उमा महेश्वर बैठे हुए दिखायी दे रहे हैं। शैय्या के नीचे पहली बार पांचों पांडवों को द्रौपदी के साथ दर्शाया गया है। इससे पहले किसी अन्य मंदिर में ऐसा नहीं किया गया था। सातवीं आठवीं सदी के कुछ शिव मंदिरों में केवल पांडवों को अवश्य दर्शाया गया है। देवगढ़ में दशावतार विष्णु भगवान का मध्ययुगीन मंदिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
यह मंदिर उस समय का है, जब गुप्त वास्तुकला अपने पूरे शबाब पर थी। हालांकि इस समय मंदिर भग्नप्राय अवस्था में हैं, लेकिन इतना तय है कि शुरू में इसमें अन्य गुप्तकालीन देवालयों की तरह गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ अवश्य रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाय चार प्रवेशद्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप और सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक मिले हैं। हर सीढ़ी के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियां मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों और अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित हैं। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी बड़ी मात्रा में प्रयोग किया गया था। देवगढ़ में इनके अतिरिक्त भी अनेक मंदिर हैं जैसे गोमटेश्वर, भरत, चक्रेश्वरी आदि और जैन व तांत्रिक मूर्तियां भी हैं, लेकिन इन सबके दर्शन करने का मेरे पास समय न था, मेरी ट्रेन का समय हो रहा था और मैं वापस ललितपुर के रेलवे स्टेशन लौट आया, गुप्तकाल की यादों के साथ।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर