देश की अस्सी प्रतिशत आबादी पर महंगाई की मार
देश में सरकार किसी भी पार्टी की रही हो, उसने हमेशा ही बीस और अस्सी के हिसाब से आकलन करते हुए आंकड़े पेश किये। इसका परिणाम यह हुआ कि अल्प आय एवं मध्यम वर्गीय परिवारों को हमेशा ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ा है। वर्तमान समय में देश की 80 प्रतिशत जनता को भोजन की थाली महंगी पड़ रही है। इसके पीछे वही कारण सामने आ रहे हैं जिनकी हमेशा चर्चा होती रही। महंगाई को लेकर विपक्ष तो हमेशा महौल बनाता रहा, लेकिन सत्तारूढ़ दल या उनके नेता वही 20 प्रतिशत धनी और सरकारी सेवारत संख्या के आधार पर महंगाई को नकार देते हैं। उनके सामने देश की लगभग आधी आबादी जिसकों गरीबी के आधार पर गेहूं, चावल और मोटा अनाज नि:शुल्क देने वाली सरकारों ने उसके अलावा उनकी अन्य ज़रूरतों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।
भारत में मुद्रास्फीति की दर सितम्बर में बढ़कर 5.49 प्रतिशत हो गई। जो अगस्त 2024 में 3.65 प्रतिशत थी। एनएसओ के डेटा के मुताबिक, खाने-पीने की चीज़ों की महंगाई सितम्बर महीने में उछलकर 9.24 प्रतिशत हो गई, जो इससे पिछले महीने यानी अगस्त में 5.66 प्रतिशत और एक साल पहले 6.62 प्रतिशत के थी। सबसे खास बात तो यह कि किसी भी सरकार ने खुदरा बाज़ार में नियंत्रण के लिए कोई मज़बूत तंत्र नही बनाया जिससे खुदरा बाज़ार की मनमानी पर रोक लगाई जा सके। इसका परिणाम यह होता है कि साल की शुरूआत, मध्य या अंत में किसी भी समय आम आदमी की भोजन की थाली ही उसे भारी पड़ने लगती है।
कुछ आंकड़ों के आधार पर हमारे देश में 65 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवनयापन कर रहे हैं। खासकर गांवों में 72 प्रतिशत अधिक गरीब लोग रहते हैं क्योंकि ये लोग थोड़ी-सी ज़मीन पर खेती कर के अपना जीवनयापन करते हैं और कृषि मानसून पर निर्भर है। देखा जाए तो सरकार के अनुसार 81.35 करोड़ भारतीय मुफ्त अनाज पाते हैं और इस योजना का नाम प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना है। अर्थात सरकार स्वयं 81.35 करोड़ लोगों को गरीब मानती है। अगर सरकार के इस आंकड़े को ही सही मान लिया जाए तो आज इस जनसंख्या के लोगों को भोजन की थाली भारी पड़ रही है। अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों की खबरें सबको अच्छी लगती हैं, लेकिन अगर इस चकाचौंध के बीच बहुत सारे लोगों को खाने-पीने के सामान में भी कटौती करनी पड़े, तब यह सोचने की ज़रूरत है कि आर्थिक विकास के दावों के दायरे में कौन है! अन्य ज़रूरी सामान के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की चढ़ी हुई कीमतों ने पहले ही आम लोगों की दैनिक ज़रूरतों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था, लेकिन इस बीच पिछले कई महीनों से सब्ज़ियों के दाम लगातार इस स्तर पर बने हुए हैं कि लोगों की थाली से सब्ज़ियां भी गायब रहने लगी हैं। मुश्किल सिर्फ सब्ज़ियों तक नहीं सिमटी है, इसका असर दूसरे खाद्य पदार्थों पर भी पड़ा है और अनाज की खरीदारी के वक्त भी लोगों को अब थोड़ा रुक कर सोचना पड़ जाता है।
पिछले दिनों को जारी एक एजेंसी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक शाकाहारी थाली की कीमत में एक वर्ष पहले की समान अवधि की तुलना में बीस फीसदी तक की बढ़ोतरी हो गई है। दरअसल, कम आय वर्ग के लोगों के लिए पिछले कई महीनों से खाने-पीने का सामान सहजता से खरीदना मुश्किल ही था। मगर अब स्थिति यह हो गई है कि ऐसे लोग अक्सर दिख जाते हैं, जो बाज़ार में सब्ज़ियों की कीमतें पूछते हैं और बिना खरीदे मायूस मन के साथ आगे बढ़ जाते हैं। दरअसल, कम आय वाले लोगों के लिए पिछले कई महीनों से खाने-पीने का सामान सहजता से खरीदना मुश्किल था। रिपोर्ट के मुताबिक, अक्तूबर में प्याज़ की कीमतें सालाना आधार पर 46 फीसदी बढ़ीं जबकि आलू के दाम में 51 फीसदी का इजाफा हुआ। इसी तरह टमाटर के भाव 29 रुपये प्रति किलोग्राम से आगे बढ़ते हुए एक वर्ष पहले की समान अवधि के मुकाबले 80 और 100 रुपये प्रति किलोग्राम हो गए। टमाटर 100 रुपये प्रति किलो या इससे ज़्यादा भाव पर भी बिका। अन्य कई हरी सब्ज़ियां भी आम तौर पर 80 या 100 रुपए प्रति किलो बिक रही हैं। यही नहीं जिस प्याज़ के बढ़े दाम से कई बार सरकार हिल चुकी है, वही प्याज़ एक बार फिर 100 के करीब चल रहा है जबकि भोजन की थाली में सब्ज़ियां एक तरह का संतुलन बनाती हैं। अब इनके लगातार महंगे बने रहने का असर दालों की कीमतों पर भी पड़ा है। सच यह है कि महंगाई आम जन के लिए एक गंभीर समस्या बनती जा रही है और एक समय तात्कालिक कारणों से बाज़ार में उतार-चढ़ाव के तौर पर देखी जाने वाली स्थितियां अब आम रहने लगी हैं। एक समय कई बार लोग कुछ समय तक समझौता करके महंगाई की चुनौतियों का सामना कर लेते थे लेकिन अब निरन्तर बढ़ती महंगाई से संतुलित भोजन पहुंच से बाहर हो रहा है। एक ओर, रिज़र्व बैंक महंगाई को काबू में रखने के लिए कुछ कदम उठाता रहता है, तो दूसरी ओर सरकार आए दिन लोगों को भरोसा देती रहती है। हकीकत यह है कि पिछले कुछ वर्षों से रोज़ी-रोजगार की चिन्ता में लोग यह भी भूलते जा रहे हैं कि उनकी थाली में न्यूनतम चीजें क्या-क्या होनी चाहिए। ज्यादातर लोगों की आय में कमी होने या काम-धंधे में मंदी की स्थिति कायम रहने की वजह से उनकी क्रयशक्ति लगातार कम होती गई है। कई मामलों में सामान की खरीदारी में कटौती की आंच अब थाली तक भी पहुंच चुकी है। यह एक दुखद स्थिति है कि आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर कदम बढ़ाने का दावा करने के क्रम में इस पक्ष की अनदेखी की जा रही है कि लोग जीने के लिए जो भोजन कर रहे हैं, उसके लिए उन्हें कितना सोचना पड़ रहा है। हालात यह है कि निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के लिए भी खाने-पीने के सामान की कीमतें पहुंच से बाहर हो रही हैं। ऐसे में देश की गरीब आबादी के सामने किस तरह की चुनौतियां खड़ी हैं। यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।