क्या राहुल की बातों को सुनेंगे भारत के पूंजीपति ?
पिछले दिनों विपक्ष के नेता राहुल गांधी, रिज़र्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर प्रोफैसर विरल आचार्य और भाजपा सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रह्मण्यम ने पिछले दिनों मीडिया में कुछ लेख लिख कर भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ गम्भीर प्रश्न उठाये हैं। इन तीनों की बातों पर मिला कर गौर किया जाए तो क्या तस्वीर उभरती है? हमारे यहां कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर हो रहा है जो पूंजीवाद के तहत इजारेदारियां बनने की स्वाभाविक प्रक्रियाओं के परे जाता है। अर्थव्यवस्था सरकार द्वारा पहले पांच नम्बर के कॉरपोरेट घरानों के हाथ में दे दी गई है। आचार्य और सुब्रह्मण्यम की भाषा और तर्क अर्थशास्त्रीय हैं। राहुल गांधी की भाषा और दावेदारियां राजनीतिक हैं। पर इन तीनों का मर्म एक है। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि राहुल गांधी को इसका क्या राजनीतिक लाभ होगा? हो सकता है कि उनकी बातों पर छह से दस नम्बर तक के बड़े औद्योगिक घराने गम्भीरता से गौर करके कुछ फैसले लें। हो सकता है कि वे अपने कुछ अंडे मोदी और भाजपा की टोकरी में रखने के बजाय कांग्रेस और राहुल की टोकरी में रखना पसंद करें। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा और मोदी के मौजूदा राजनीतिक वर्चस्व के लिए एक बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी।
राहुल गांधी के आलोचकों को अखबारों में छपे उनके हालिया लेख पर तरह-तरह की आपत्तियां हैं। मसलन, वे कह रहे हैं कि राहुल को राजे-रजवाड़ों द्वारा आज़ादी के आंदोलन में दिये गये योगदान की जानकारी नहीं है या उन्हें यह नहीं पता है कि हिन्दुस्तान आज़ाद होने के बाद उसके एकीकरण में देशी रियासतों ने कितना सहयोग दिया था। लेकिन, इन आलोचकों में से कोई उस मुद्दे को सम्बोधित करने के लिए तैयार नहीं है जो उस लेख की केंद्रीय विषयवस्तु है। राजे-रजवाड़ों के बारे में तो लेख की शुरुआत में केवल एक पंक्ति है। बाकी पूरे लेख में सवाल यह उठाया गया है कि भारतीय पूंजीवाद की समुचित संरचना क्या होनी चाहिए, और इस समय उसका जो ढांचा है वह उचित है या अनुचित? यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। देश में समाजवाद न तो कभी था, और न ही कभी आने वाला है। हमारा जो भी आर्थिक विकास होगा या हो रहा है, उसका संसाधन पूंजीवाद के ज़रिये ही होना है। कॉरपोरेट सेक्टर और सरकार के बीच बनने वाला समीकरण हमारी आर्थिक नीति की चालक-शक्ति है। इस विषय पर अर्थशास्त्री लोग तो यदाकदा लिखते-विचारते रहते हैं, परन्तु नेता लोग इसे छूने से आम तौर पर परहेज़ करते हैं। अब राहुल गांधी ने इस मसले को छेड़ दिया है। इस पर राजनीतिक पक्ष-विपक्ष से हट कर बहस होनी चाहिए।
राहुल गांधी का मुख्य तर्क यह है कि भारत का मौजूदा राजनीतिक निज़ाम आर्थिक धरातल पर सभी खिलाड़ियों और सभी टीमों के लिए समान अवसरो के नियम का पालन करने के बजाय तरह-तरह से पक्षपात कर रहा है, मैच-़िफक्सिंग की जा रही है। इसके कारण कॉरपोरेट जगत में असंतोष है, बेचैनी है, और कुल मिला कर सरकारी समर्थन का लाभ उठा कर अपनी इजारेदारी कायम करने वाली थोड़ी सी कॉरपोरेट त़ाकतों को छोड़ कर बाकी स्वयं को शोषित और वंचित जैसा महसूस कर रहे हैं। यह सरकारी रवैया भारत की समृद्धि के रास्ते में रोड़ा है। राहुल गांधी दावा कर रहे हैं कि उनकी राजनीति सरकार द्वारा प्रोत्साहित इस इजारेदारी के विरोध करने वाली है। उसका म़कसद सभी उद्योगपतियों को अर्थनीति में समान धरातल मुहैया कराने वाली है। प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में सरकारी नीतियों के दम पर भारत में इजारेदारियों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है? पूंजी का चरित्र केंद्रीकरण वाला होता है। इसलिए उसमें इजारेदारियां बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और आम तौर पर सरकारें इस रुझान को कमज़ोर करने के तरीकों पर विचार करती रहती है, लेकिन राहुल गांधी ने सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने न केवल इजारेदारी के पक्ष में नीतियां बनाई हैं, बल्कि सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल करके उद्योग-व्यापार के जगत में भय का माहौल तैयार किया है।
संसद में विपक्ष के नेता की तरफ से लगाया गया यह एक बेहद गम्भीर आरोप है। इसका तो सरकार की तरफ से बाकायदा अधिकृत जवाब आना चाहिए। इस आरोप से हाल ही में दो अर्थशास्त्रियों की बातें याद आ जाती हैं। दोनों ही मोदी सरकार के साथ नज़दीकी तौर पर काम करते रहे हैं। ये हैं प्रोफेसर विरल आचार्य जो दो साल तक रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर रहे, और अरविंद सुब्रह्मण्यम जो मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। विरल आचार्य का एक लेख इन दिनों बहुत चर्चा में है। इसमें उन्होंने देश के पांच बड़े उद्योग-व्यापार घरानों (अदाणी समूह, अम्बानी समूह, टाटा समूह, भारती एअरटेल समूह और आदित्य विरला समूह) को नैशनल चैम्पियनों (इजारेदार पूंजीपतियों के लिए नया नाम) की संज्ञा दी है। उनका कहना है कि अर्थव्यवस्था के मैदान में ये पांच कॉरपोरेट समूह ही खेल रहे हैं और खेल के सारे नियम इनके लाभार्थ ही बनाये जाते हैं। यही पांचों सारे देश में हर चीज़ के दाम तय करते हैं। इनकी ‘प्राइसिंग पॉवर’ ज़बरदस्त है। देश में जो मुद्रास्फीति या महंगाई है, उसका बुनियादी कारण इन पांच की इसी ‘प्राइसिंग पॉवर’ में निहित है। इसकी वज़ह से थोक मूल्य सूचकांक बढ़ता है, जिसका असर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर पड़ना लाज़िमी है। इसी कारण से महंगाई नियंत्रित नहीं हो पा रही है। विरल आचार्य ने यह भी कहा है कि ये पांच नैशनल चैम्पियन देश के अन्य बड़े छह से दस नंबर के उद्योग-व्यापार घरानों की कीमत पर बढ़ रहे हैं। इन पांच की सम्पूर्ण सम्पत्तियां पिछले कुछ सालों में दस से अठारह फीसदी तक बढ़ी हैं, और छह से दस नम्बर पर आने वालों को इनके बढ़ते हुए आकार के लिए जगह खाली करनी पड़ी है। विरल आचार्य की इन बातों का अभी तक किसी अर्थशास्त्री ने खंडन नहीं किया है।
आचार्य से कुछ पहले अरविंद सुब्रह्मण्यम ने दो लेख लिख कर बताया था कि भारत में निजी क्षेत्र निवेश के लिए अपनी तिजोरी क्यों नहीं खोलता। हम जानते हैं कि भारत के निजी क्षेत्र के पास कम से कम दो लाख करोड़ की रकम न जाने कब से पड़ी हुई है, पर वह उसे अर्थव्यवस्था में लगाना नहीं चाहता। निवेश की ज़िम्मेदारी केवल सरकार की रह गई है। वही आधारभूत सुविधाओं के क्षेत्र में पैसा लगाती है। निजी क्षेत्र मैन्यूफैक्चरिंग और अन्य क्षेत्रों में नया निवेश नहीं करता। सुब्रह्मण्यम का कहना है कि उद्योगपति डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे नया पैसा लगाएंगे तो सरकार की तरफ से उन्हें नीतिगत और संस्थागत समर्थन नहीं मिलेगा। कारण यह कि सरकार केवल ‘टू ए’ के हितों के लिए काम कर रही है। सुब्रह्मण्यम के मुताबिक ‘टू ए’ का मतलब है अदाणी-अम्बानी। वह कहते हैं कि अर्थशास्त्रियों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का यह ‘टू ए डिस्टॉर्शन’ काफी चर्चित है। सुब्रह्मण्यम के इस विश्लेषण का भी सरकार ने अभी तक कोई खंडन नहीं किया।
-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।