सक्रिय राजनीति में प्रियंका का होना ?

कांग्रेस राजनीति में परम्परागत सक्रिय राजनीति में भागीदारी के लिए इस बार प्रियंका गांधी को मैदान में उतारा गया है। उन्हें वायनाड से चुनाव लड़ाया जा रहा है। इसे कांग्रेस पार्टी सुरक्षित सीट मानती है। यानी 99 प्रतिशत सुरक्षा की गारंटी। हार-जीत के अनुमान से परे। वह अपनी मां और भाई के लिए चुनाव प्रचार में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करती रही हैं। अब तक अनुभव में भी कोई कमी नहीं नज़र आती। पहले पहल लोग उनमें दादी इंदिरा गांधी की छवि देखने लगे थे। 
हिन्दी बोलने में कहीं कोई झिझक नहीं है। साफ आवाज़, सुन्दर चेहरा, भाषण देने की कला से भरपूर। इसलिए लोग उनमें दादी इंदिरा गांधी की छवि देखने लगे हैं। हो न हो पार्टी चुनाव के दिनों में यह सब कुछ होना एक आकर्षण का केन्द्र बनाता है, जिसका लाभ चुनाव प्रचार में होता ही है। कम या ज्यादा, यह सुनने-देखने वालों पर भी निर्भर करता है, लेकिन इससे एक ज़ोरदार आवाज़ तो बनती ही है। एक सांसद के रूप में अगर प्रियंका तथ्यों और आंकड़ों के साथ सदन में कुछ ढंग के मुद्दों पर बात करेंगी, तो भारतीय जनता पार्टी सरकार के लिए एक समस्या हो सकती है। उन्हें इस पर सावधान होकर तर्कपूर्ण ढंग रूप से जवाबदेही देनी पड़ेगी। वे इसे अगम्भीर ढंग से टाल नहीं पाएंगे। भारतीय राजनीति को देखते हुए तीन बिन्दू परखने में बड़े काम के लगते हैं। पहला है संगठनिक कार्य, दूसरा गठजोड़ की राजनीति में सूक्ष्म दृष्टि, तीसरा प्रचार का कार्य और जन-सम्पर्क। इस तीसरे काम को प्रियंका ने अपनी मां और भाई के निर्वाचन क्षेत्रों में लगभग 1990 से ही कर रही हैं और अब तक अनुभव सम्पन्न और माहिर हो गई हैं। संगठनिक कार्य और गठजोड़ का कार्य उन्होंने पिछले पांच वर्षों में किया है। 2019 में वह एक रोड शो में अपने भाई राहुल गांधी की मौजूदगी में राष्ट्रीय राजनीति में लखनऊ में उतरी थीं। तब उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला था। केवल हाथ हिलाकर मुस्करा कर अभिवादन स्वीकार करती रही थीं। केवल राहुल गांधी ही अवाम से और पत्रकारों से मुखातिब होते रहे।
उत्तर प्रदेश जब कांग्रेस के लिए कठिन प्रश्न था और अखिलेश की पार्टी के साथ कांग्रेस का कोई समझौता नहीं था, तब एक कठिन प्रश्न का उत्तर खोजने का दायित्व प्रियंका ने ही सम्भाला था। यहां उनकी सफलता की राह लगभग असम्भव ही थी। उन्हें और पार्टी को तब वहां निराशाजनक स्थितियों का ही सामना करना पड़ा था। उनका प्रयत्न लगभग शून्य परिणाम देने वाला साबित हुआ था। इसके पश्चात 2022 में जब विधानसभा के चुनाव थे तब उनके पास आकर्षक नारा था-‘लड़की है, लड़ सकती है’ परन्तु यह नारा भी ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया। वोटों में नहीं बदल पाया। विफलता को पचाना भी इतना आसान नहीं था। वहां कांग्रेस का प्रभाव पहले से ही काफी क्षीण था। कमज़ोर जनाधार की ओट में प्रियंका की निराशा छुप गई थी। प्रियंका कोई जादू की छड़ी लेकर नहीं आई थी कि यकायक परिस्थितियां कांग्रेस के हक में बदल जातीं। 
पंजाब ने एक बार फिर असफलता की राह थमा दी। तब उनकी पार्टी का संगठन मजबूत था। वहीं सत्ता सम्भाल रही थी। विपक्षी दल अकाली पार्टी ही थी जो उस समय उतनी लोकप्रिय नहीं रही, जितनी पहले थी। यहां एक प्रकार से खुला मैदान था रणनीतिक और संगठनिक कौशल के लिए। प्रियंका गांधी ने उस समय के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को हटाने का अभियान चलाया वह जगह नवजोत सिंह सिद्धू को देना चाहती थी। सिद्धू का बड़बोलापन रुकावट बन गया। आगे का रास्ता वह किस तरह तय करती हैं, इसी बात का सवाल उनके सक्रिय राजनीति में होने को तय कर सकता है।

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