संविधान की भावना

26 नवम्बर, 1949 को भारत का संविधान पूर्ण हुआ था तथा इस तरह इसने अपने अस्तित्व के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। 26 जनवरी, 1950 को इसे देश में बाकायदा लागू किया गया था। विश्व भर में इसे सबसे लम्बा लिखित संविधान माना जाता है, जिससे देश संघीय संसदीय गणराज्य बन गया था। इसे तैयार करने के लिए एक संविधान सभा बनाई गई थी, जिसका चयन उस समय प्रदेश विधानसभाओं के चुने हुए सदस्यों द्वारा किया गया था। 389 सदस्यीय इस सभा ने संविधान का प्रारूप लगभग तीन वर्षों में तैयार किया था। इसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष भीम राव अम्बेदकर थे। इसे तैयार करने के लिए बनाई गई अन्य समितियों के अध्यक्षों के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू, स. वल्लभ भाई पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, जी.वी. मावलंकर तथा के.एम. मुंशी ने विशेष भूमिका अदा की थी।
इसे तैयार करने में उस समय इंग्लैंड, अमरीका, आयरलैंड, सोवियत यूनियन तथा जर्मन आदि देशों में लागू हुए संविधानों को आधार बनाया गया था। गणराज्य की मुख्य एवं प्राथमिक भावना समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक गणराज्य की मानी गई थी, जिसमें नागरिकों को न्याय एवं समानता के साथ-साथ उनमें भ्रातृत्व साझेदारी बढ़ाने की प्रतिबद्धता भी स्वीकार की गई थी। इसके मुख्य स्तम्भ कार्य-कालिका, विधान-पालिका एवं न्याय-पालिका माने गए थे। इसे समय के अनुकूल बनाये रखने के लिए इसमें बदलाव या वृद्धि करने के लिए भी वैधानिक व्यवस्था तय की गई थी। इसीलिए पिछले 75 वर्षों में इसमें अब तक लगभग 106 संशोधन किये जा चुके हैं। 
विगत दिवस संसद भवन में आयोजित एक समारोह को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जहां भारतीय संविधान को देश के प्रतिभाशाली लोगों की देन बताया, वहीं इसकी अनेकता को इसकी विश्वसनीयता के साथ जोड़ा। यही कारण रहा है कि विगत लम्बी अवधि से यह अब तक भी समय के समकक्ष एवं भारत के विकास का वाहक बना रहा है। पुराने संसद भवन में हुए इस समारोह में सभी राजनीतिक पार्टियों का भाग लेना भी इसके प्रभाव का साक्षी बना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले देश की भावना को उजागर करते हुए कहा कि संविधान ने उन्हें जो कार्य दिया है, उन्होंने वही किया है तथा उन्होंने कभी भी इसकी मर्यादा का उल्लंघन करने का यत्न नहीं किया। समय-समय पर उठते विवादों के दृष्टिगत सर्वोच्च अदालत ने भी इसकी शक्तियों एवं सीमाओं की रक्षा के लिए बखूबी अपनी ज़िम्मेदारी निभाई है।
हम महसूस करते हैं कि ऐसा प्रभावशाली संविधान होते हुए भी विगत लम्बी अवधि से इसका उल्लंघन होता रहा है। यदि आज देश में जाति-बिरादरियों की बात अधिक चर्चा में है, धर्मों एवं विश्वासों के विवादों से क्रियात्मक रूप में तराज़ू का संतुलन बदला है, साम्प्रदायिक भावनाओं में अधिक उभार आया है, तो इसमें दोष संविधान का नहीं है, अपितु उन व्यक्तियों या संगठनों का है, जो अपने-अपने प्रभाव को बढ़ाने एवं बनाये रखने के लिए उत्सुक रहते हैं। अनेक बार क्रियात्मक रूप में भी अक्सर संविदान की भावनाओं को दर-किनार किया जाता रहा है। इसलिए हर स्थिति में कानून के शासन पर पहरा देने की ज़रूरत होगी। ऐसी नीति ही संविधान की भावनाओं की रक्षा करने के योग्य हो सकेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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