उत्सव-धर्मी लोगों का नया चेहरा

कुछ बातें अपने देश के बारे में बहुत सही रूप से बैठती हैं। वही बातें हमारे शहर, कालोनी या परिवार के बारे में सही रहती हैं। अभी सूचना मिली है कि इस देश में लोग काम नहीं, आराम करना अधिक पसंद करते हैं। बिल्ली के भागों छींका टूटा का सपना यहां इतना प्रबल हो गया है कि लोगों को निस्तेज धीरज से अपने अपने बेर के वृक्ष के नीचे लेटा हुआ पाते हैं। उनमें यह उम्मीद पैदा कर दी गई है कि ‘बेर वृक्ष से गिरेगा, नीचे उनकी छाती पर आ जाएगा। रहगुज़र कृपा कर उसे उठा उनके मुंह में डाल जाएगा।’ यह दीगर बात है कि राह चलते उसके बेर को आपकी छाती से उठाकर अपने मुंह में डाल कर चलते बनते हैं, और आप अपनी भाग्य रेखाओं के वाचाल हो जाने का रोना रोते नज़र आते हैं।
आजकल अचानक श्रम से अधिक भाग्य का लिखा प्रबल हो गया है, और जीवन को सितारों का खेल कह कर उसे रहस्यमय ही नहीं, फिसड्डी बना दिया गया।
उम्र भर टूटी हुई सड़क पर चलते मास्टर  माता दीन को एक बात समझ नहीं आती। जो विज्ञापित किया जाता है, घोषित किया जाता है, या जिसे कर देने का दावा करके उसके वोट बटोरे जाते हैं, वह कभी होता क्यों नहीं है? टूटे सपने अब मात्र एक उदास दास्तां नहीं, उसका रोज़ का संग साथ बन गये हैं। उन्हें वह बेताल के शव की तरह अपने कन्धों पर ढोने के लिए मज़बूर है। हर बार असफल रहने के बाद वह इसे कर्क की रेखा नहीं, भाग्य का लेखा कह देता है।
शीरीं फरहाद से लेकर जितेन मांझी तक की श्रम साध्य कहानियां उसके लिए अजनबी हो गई हैं। अली बाबा और चालीस चोर उसके आदर्श पुरुष हैं। ये लोग उसे हथेलियों पर सरसों की तरह उग आने का दिलासा देते हैं और अपने पराजित युद्ध में ये उसे हर गली और हर मोड़ पर मिल जाते हैं। अली बाबा अपने चालीस चोरों में नौजवानों को शामिल हो जाने का सन्देश दे, उन्हें चोर गलियों का पता बताते हैं। यूं पुस्तक संस्कृति खत्म हो जाती है। नये बने विद्यालयों के परिसर खाली नज़र आने लगते हैं, और भगौड़े हो गये छात्र विदेशों के पार-पत्र पाने के लिए आईलेट अकादमियों के आगे कतार लगाते हैं। मेहनत की की छुट्टी खत्म होती है, और एक नई संस्कृति जन्म लेती है, ‘शार्ट कर संस्कृति’। इसमें सब चलता है मूल मंत्र है, और मुख्य सड़क की जगह उनकी सत्तावन गलियों की तलाश में लगे लोग नज़र आते हैं।
यहां सफलता के बाज़ार सजते हैं और हर चीज़ बिकाऊ हो गयी है। धर्म, राजनीति और आम आदमी के जीवन में चन्द धन कुबेरों का सिक्का चलता है और मुखौटा धारी हो जाना फैशन हो गया है। छद्म जीवन ही सच्चा जीना हो गया है। कला संस्कृति के क्षेत्र में अनाधिकारी लोग गिरोह बांध कर घुसपैठ कर गये हैं और अपने लिए अमर कृतियां लिखने, अमर चित्रों को पेपर करवाने और अमरधुनों को गाने के लिए उपयुक्त परन्तु उपेक्षित लोगों को खरीद रहे हैं। लोग बिकते हैं इस उम्मीद के साथ कि कल वे भी दबे रह गये लोगों को खरीद सकेंगे। यूं खरीद दर खरीद का सिलसिला चलता है, और जानकार लोग उस बिकाऊ युग को तरक्की युग कह देते हैं, और इसकी विकास दर निकालने लगते हैं।
इस विकास दर की घोषणा भी मोहित कर देती है जनाब! आप कहते हैं, आपके देश की विकास दर दुनिया में सबसे अधिक हो गयी है। उसने दुनिया की मन्दी को पछाड़ दिया लेकिन आपके देश की शेयर मार्कीट गिरती है तो गिरती ही चली जाती है। यहां एक बार जो बंटा है बंटा ही रह जाता है। चाहे महंगाई हो या भ्रष्टाचार। अफसरों की अकड़ हो या धन कुबेरों का सात मंजिला व्यवहार।
पहले इस धन कुबेरों की बहुमंज़िली इमारतों के बीच फुटपाथ पर लोग डफली बजा गाते नज़र आते थे। आज आपका दिल का हाल कोई नहीं सुनता, क्योंकि दिल का हाल सुने  दिल वाला का गीत गाने वाले लोग इन नवधनिकों की कृपा कांक्षा के लिए प्रार्थना गीत गाते नज़र आते हैं।
साहित्य का हाल बेगाना है। किसी उदास शाम को राहत दे देने वाले मधुर गीतों की जगह डिस्को और रैप गीतों के कोलाहल ने ले ली है। लोक जीवन नहीं रहा, तो लोक कलाओं की वापसी कैसे हो जाएगी? इन्हें अब वह सच नहीं मिलता जो इन्हें पल्लवित होने को आर्थिक आधार दे कलाकारों को उनकी साधना के लिए लम्बी अवधि दे सके।
आज तो बरसों की साधना, बरसों की जनसेवा बीते युग की बातें लगती हैं। लोग तत्काल कॉफी बना देने की तरह तत्काल परिणाम चाहते हैं? इंतज़ार शब्द, शब्द कोशों से गायब हो गया है। इंतज़ार करने वाला बस ज़िंदगी भर इंतज़ार ही करता रह जाता है। उसे काहिल और जाहिल कह कर नकार दिया जाता है। सफल वह जो आज पैदा हो,  और पैदा होते ही उपलब्धि बन जाये। इसीलिये लोग आज अपनी पहली कृति का प्रायोजित अभिनन्दन करवा उसी में अभिनंदित और पुरस्कृत हो जाते नज़र आते हैं।
प्रायोजित एक पेशा बन गया है। आप अपनी गोष्ठियों से लेकर अपनी पुस्तकों का प्रकाशन तक इनमें करवा सकते हैं बल्कि पिछले दिनों इन्हें करने वाले पेशेवर लोगों के बाकायदा विज्ञापन भी सामाजिक माध्यम में नज़र आये हैं। पहले डिग्री की जगह मानद डिग्रियां प्राप्त करने का युग आया था। आज उन पर बाकायदा कीमती टैग लगा बेचने का जमाना आ गया। तभी तो ऐसी खबरें सच होती नज़र आती हैं कि 12वीं पास छोकरा भी साधारण जमा या गुणा नहीं कर सकता।
लेकिन चिंता क्यों? अब तो कम्प्यूटर युग आ गया न! आपको कष्ट करने की क्या ज़रूरत है? कम्प्यूटर आपके लिए यह कष्ट साध्य काम करके आपकी अज्ञानता को कष्टहीन बना रहा है। पहले बच्चा मूर्ख पैदा हो जाये, तो अभिभावक उसे बुद्धिहीन कह माथा पीट लेते थे। अब चिंता क्या, कृतिम मेधा खरीदने का युग आ गया। ये मेधा उपकरण आपके लिए कहानियों कविताओं से लेकर भाषण तक लिख देते हैं। तभी तो आजकल नई घोषणाओं और दावों से आसमान भर गया है। आओ, इसका उत्सव मना लें। 

#उत्सव-धर्मी लोगों का नया चेहरा