पाकिस्तान में क्यों बह रहा है शिया मुसलमानों का खून ?
मोहम्मद अली जिन्ना ने जिस इस्लामिक देश पाकिस्तान को बनवाया था, वहां मुसलमान ही अब मुसलमानों की जान के दुश्मन हो गये हैं। वहां सुन्नी और शिया समुदायों के बीच हुए हालिया संघर्ष में 100 से ज्यादा लोगों का खून बहा। हिंसा खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में अफगानिस्तान की सीमा से लगे कुर्रम ज़िले में हुई। सुन्नी बहुल पाकिस्तान में 24 करोड़ की आबादी में शिया मुस्लिम लगभग 15 प्रतिशत ही हैं। पाकिस्तान में शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच का हालिया संघर्ष जटिल है, जिसके जड़ें सदियों पुरानी धार्मिक व राजनीतिक विभाजन के इतिहास पर टिकी हैं। वैसे तो कुछ कट्टरपंथी समूह तो दोनों पक्षों में ही मौजूद हैं जो हिंसा का इस्तेमाल करके ही अपने धार्मिक विचारों को आगे बढ़ाने में विश्वास रखते हैं। ये समूह साम्प्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं व हिंसा को सही ठहराते हैं। पाकिस्तान में सुन्नी समुदाय कतई शिया मुसलमानों को पसंद नहीं करते। इससे साफ है कि इस्लाम अपने मानने वालों को भी नहीं जोड़ता। हालांकि बातें बहुत होती हैं कि सारी दुनिया के मुसलमान एक हैं। लेकिन, ये अपनी इस बात को तो स्वयं ही बार-बार गलत साबित करते रहते हैं।
पाकिस्तान में शिया मस्जिदों में धमाके और विस्फोट होना भी आम बात हो चुकी है। पेशावर में मई, 2022 में शुक्रवार को जुमे की नमाज़ के दौरान हुए दिल दहलाने वाले आत्मघाती बम विस्फोट में लगभग 60 से अधिक शिया नमाजी मारे गए थे। हमलावरों ने निशाना बनाया था शिया मुसलमानों और उनकी इबादतगाह को। यह भी याद रखा जाए कि एक इस्लामिक मुल्क में ही शिया मुसलमानों का जीना मुश्किल हो गया है। वे हर वक्त डर-भय के साए में जीने को मज़बूर बने रहते हैं। यह हाल उस पाकिस्तान का है जो मुसलमानों के वतन के रूप में बना था।
पेशावर की शिया मस्जिद में हुआ हमला कोई अपने आप में पहली बार नहीं हुआ था। वहां पर शिया मुसलमानों पर लगातार जुल्मों-सितम होते रहे हैं। पाकिस्तान में लगातार प्रतिबंधित संगठन शियाओं के खिलाफ खुलेआम प्रदर्शन भी करते हैं। इस तरह के ज्यादातर प्रदर्शन लाहौर, क्वेटा, पेशावर वगैरह शहरों में देखने को मिलते हैं। वहां पर शिया मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने वाला साहित्य भी हर जगह आसानी से वहां पर आम लोगों को आसानी से उपलब्ध है।
तालिबान और इसी तरह के अन्य आतंकी समूहों के विचारों का प्रभाव पाकिस्तान में है, जो साम्प्रदायिक संघर्षों को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। यह समूह अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए शिया-सुन्नी संघर्ष का उपयोग आमतौर पर करते हैं। पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक नेता साम्प्रदायिक तनाव को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे मतदाताओं को लुभाने के लिए और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करने के लिए साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काते हैं। बेशक, पाकिस्तान सरकार की सुन्नी परस्त नीति के कारण साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में नाकामी या यहां तक कि कुछ मामलों में इसमें सहयोग करने से, इस समस्या को और बढ़ावा मिलता है। पाकिस्तान में कुछ सुन्नी जिन्ना को भी शिया बताते हैं। कौन जाने की एक बार जिन्ना शिया साबित कर दिए गए तो उनकी विरासत को भी बिना कुछ जाने समझे ही पाकिस्तान में धूल में मिला दिया जायेगा।
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों, विशेषकर शिया मुसलमानों, हिंदुओं, ईसाइयों और सिखों के साथ भेदभाव के कई जटिल कारण हैं, जिनमें धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक उद्देश्य और कई सामाजिक-आर्थिक कारक शामिल हैं। कोई एकल कारण नहीं है, बल्कि ये कारक आपस में जुड़े हुए हैं। पाकिस्तान में कुछ आतंकी धार्मिक समूहों का प्रभाव काफी है, जो सुन्नी इस्लाम के एक विशेष व्याख्या का प्रचार करते हैं जो अन्य धर्मों और शिया इस्लाम के प्रति असहिष्णुता को बढ़ावा देता है। कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं ने अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के लिए धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल किया है। वे अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ‘दूसरे’ के रूप में चित्रित करते हैं, जिससे सामाजिक विभाजन बढ़ता है।
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को अक्सर सामाजिक व आर्थिक रूप से वंचित किया जाता है। उन्हें अच्छी शिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुंच होती है, जिससे वे और भी हाशिए पर आते ही चले जाते हैं। यह आर्थिक असमानता सामाजिक भेदभाव को और बढ़ाती है। एक समस्या यह भी है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले अपराधों में अक्सर अपराधियों को सजा नहीं मिलती है, जिससे उन्हें अन्याय का सामना करना पड़ता है और भेदभाव जारी ही रहता है। पाकिस्तान में हिन्दुओं को भी नफरत की निगाह से देखने वाले भी कम नहीं हैं। हालांकि लगभग सारे पाकिस्तानियों के पुरखे हिन्दू ही तो थे। पाकिस्तान का इतिहास हिन्दुओं के खिलाफ नाइंसाफी और खून से लथपथ है। हालांकि 11 अगस्त,1947 को मोहम्मद अली जिन्ना ने एक भाषण में यह कहा था कि पाकिस्तान में सभी धर्मों के मानने वालों को अपने धार्मिक स्थानों में जाने की अनुमति होगी। यानी पाकिस्तान के विश्व मानचित्र में आने से सिर्फ तीन दिन पहले। उन्होंने अपनी कैबिनेट में जोगिन्दर नाथ मंडल नाम के एक हिन्दू को शामिल भी किया था। वे पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से थे। मंडल को जिन्ना ने अपनी कैबिनेट में विधि मंत्री की जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा था कि इस्लामिक पाकिस्तान में सबके हक सुरक्षित हैं। पर हुआ इसके ठीक विपरीत। मंडल पाकिस्तान के पहले और शायद आखिरी हिन्दू मंत्री बने। वे वहां पर अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के नेता थे। मंडल अपने को बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों से बहुत प्रभावित बताते थे। वे दलित समुदाय से आते थे। वे 1946 में पंडित नेहरू के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार में भी विधि मंत्री थे। जिन्ना की 11 सितम्बर, 1948 को मौत के साथ ही मंडल की वहां पर दुर्गति चालू हो गई थी। उनकी हर सलाह को नामंजूर कर दिया जाता। नतीजा यह हुआ कि वे पाकिस्तान को छोड़कर भारत आ गए। ये 1951 के आसपास की बातें हैं। उन्होंने आरोप लगाया था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ नाइंसाफी होती है। इसलिए उनका पाकिस्तान में रहना मुमकिन नहीं होगा। मंडल उसके बाद कोलकत्ता आ गए। उनका 1968 में निधन हो गया। मंडल ने जो कहा था, वह अक्षरश: सही निकला। पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ कभी न्याय नहीं हुआ। इसी का नतीजा था कि जिन्ना का करीबी एक दलित हिन्दू मंत्री तक पाकिस्तान में नहीं रह सका। कुल मिलाकर बात यह है कि पाकिस्तान में अभी तो सिर्फ सुन्नी ही सुरक्षित हैं। आगे क्या होगा शायद खुदा को खुद भी पता न हो। आगे-आगे देखिये होता है क्या?