एक प्रश्न-सूचक क्रांति
कभी दादी मां एक कहानी सुनाया करती थीं। ‘एक टोकरे में बहुत से मेंढक बन्द कर दिये गये। हर मेंढक उस टोकरे से बाहर आने के लिए उछलता, दूसरा उसकी टांग खींच कर उसे फिर उसी टोकरे में फेंक लेता। दिन बीतते चले गये। मेंढक उसी टोकरे में रह गये। धीरे-धीरे उसी टोकरे को अपनी दुनिया मानने लगे। ऐसी दुनिया को ही ब्रह्मांड मानने वाले लोग इसी में यूं रसे कि हर आदमी वहां नेता बना, और अपने आपको किसी जगत सम्राट से कम नहीं समझता था।’ बरसों वहां रहते हुए उन्हें प्रलाप रोग भी हो गया। जो उनके टोकरे में नहीं थे, उनका वजूद भी मानने से उन्हें इन्कार था। वह खुश थे अपने टोकरे में। पूरी दुनिया की गतिमान और बदलती चाल को नकारते हुए। अपना महिमा-मण्डन स्वयं ही करने में व्यस्त।
यही कहानी घटती देखते हैं। इक्कीसवीं सदी बदलाव की सदी बन गई। इन्टरनैट की दुनिया उनके सामने खुल गई। वहां लोगों ने कृत्रिम मेधा का विकास कर लिया, रोबोटिक्स का एक नया युग शुरू हो गया। सोशल मीडिया की ताकत ने पी.डी.एफ. दे दिये, किण्डल दे दिया। उनकी मदद के लिए रोबोट बना दिया जो उनका हर असहज काम करते हुए सहज रहता है। भला यंत्र चालित कठपुतले के लिए क्या सहज और क्या असहज?
दुनिया ने अपनी मेहनत और जनूनी लग्न से इतनी तरक्की कर ली। अब भला वह टोकरी वाली मेंढक प्रवृत्ति कैसे सहन करती क्योंकि उन्हें अजनबी बना दुनिया इतनी तरक्की कर जाती?
परन्तु टोकरावाद चौंका। उसने इस बदलती दुनिया के मुक्त होते वातावरण का मुकाबिला करने की ठान ली? भई टोकरा तो टोकरा होता है। उसकी अपनी विशेषताएं, अपने साम, दाम और दण्ड भेद होते हैं। टोकरे के लोगों को शासन की आदत हो गई थी। उन्होंने अपने चिरजीवी होने के लिए सुरक्षित दीवारें खड़ी कर ली थीं। इन दीवारों से किसी को बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी। ज़िन्दगी बस टोकरों की कतार हो गई थी। एक टोकरे से दूसरे टोकरे में छलांग लगाना मान्य कर दिया गया था। इसे अब कोई ‘आया राम गया राम’ कह कर नकाराता नहीं है। बस इसे दुनिया का चलन कह दिया जाता है। मंतव्य एक ही रहता है। गुट बने या टूटे। हमारी सत्ता हाथ से नहीं जानी चाहिए। बस सफलता चाहिये, चाहे किसी भी तरीके से मिले।
लेकिन तरीके तो वही पुराने रहे, जिससे वे आज तक अपना अस्तित्व बचाते रहे थे। बस रंग बदल गये। वे लोग परिवारवाद को गाली देते थे, लेकिन अपने परिवार को अपवाद बना कर। घोषित करते थे कि उनके राज्य में भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर ही सहन किया जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से अगर कहीं सत्ता उनके हाथ से छिन जाती, तो सबसे अधिक उनके ही भ्रष्टाचार बेनकाब होते। लेकिन अब बदली सत्ता के इस रहस्योद्घाटन से निपटने का भी उनका अपना ही तरीका था। वह अपनी विरोधी सरकार के इस भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को राजनीतिक बदलाखोरी का नाम दे देते। अपने आपको उनके राजनीतिक वैमनस्य का शहीद करार दे देते। कानून के प्रांगण में आरोपित बने रहने के लिए तारीख-दर-तारीख का जाना पहचाना पथ अपना लेते। उनका आरोपित से अभियुक्त कहला दण्ड प्रक्रिया से बचे रहने का पूरा प्रयास होता। दण्ड प्रक्रिया के चलते रहने से उनका जमानत पा जाना जैसे उनके लिए मुक्ति प्रसंग बन जाता। अदालत के प्रांगण में उनके आरोपों की सुनवाई चलती रहती, और अपनी दागदार छवि पर बलिदान, अनुभव या सेवा का मुलम्मा चढ़ा वे नेतागिरी की कमान अपने हाथों से नहीं जाने देते। आरोपित अभियुक्त नहीं होता, के स्वर्णिम सिद्धांत की सहायता से वह जन-प्रतिनिधित्व का हर सदन अपनी द़ागदार छवियों से भर देते। जन-दायित्व का मुखौटा ओढ़ जनता के भाग्य के फैसले करते रहते।
यहां वक्त बीतता है, तो उसके साथ पुराने चोले भी करवट बदल कर नये हो जाते हैं। जो पहले उनके लिए टोकरों में जीने का आकर्षण था, वह अब शार्टकट संस्कृति बन गया। नाम बदल कर नया शीर्षक अपना लेने का चलन अब सांस्कृतिक गरिमा का पुनर्जन्म बन गया। शहरों और मोहल्लों के नाम बदल कर गरिमापूर्ण इतिहास को पुन: ज़िन्दा कर देने की बात होने लगी, और मुखौटा बदल कर कल के दुर्जन आज सज्जन हो गये, और वे जनता का दर्द अपने सीने में पलने की घोषणा करते नज़र आते। देश में तरक्की अवश्य हुई थी। दुनिया को नई इन्टरनैट की शक्ति मिली थी। पांच जी से छ: जी हो जाने की ताकत उनके लिए नये आकाश बुनने लगी थी। लेकिन इससे पहले कि यह उपलब्धियां उनके घर का पाहुन बन कर एक नयी बयार ले आती। बैंक खाता हैक करके साइबर अपराधों के तूफान ने बाकायदा अपने दफ्तर खोल लिए। गांव बसा भी नहीं था, कि उचक्कों ने पहले ही उसे धर लिया। हां सदा ऐसा ही होता है। तरक्की अभी जन-जन तक पहुंचती भी नहीं कि कीमियागर लोगों के हरावल दस्ते उसे अपने घर की बांदी बना लेते हैं।
देश समाजवाद या धन-सम्पदा के समान वितरण का दम भरता रहता है, और मुट्ठी भर लोगों ने धन-सम्पदा और शासन को अपनी विरासत बना लिया। वर्गविभेद का अथवा धनी और वंचित का भेद तो सदा से रहा है, और हमेशा रहेगा, दुनिया के सब देशों के आंकड़े बता टोकरा धर्मी लोग सदियों से वंचित लोगों को समझाते हैं। वंचित इससे प्रवंचित हो अपना भाग्य दोष मान लेते हैं और रियायतें बांटती, उभरती अनुकम्पा संस्कृति को अपना मुक्ति-मार्ग स्वीकार लेते हैं। लेकिन कब तक?