गई नहीं चीन की द़गा देने की आदत
अक्तूबर 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मधुर बातचीत और विवादित स्थलों को लेकर समझौते की कड़ियां आगे बढ़ने से ऐसा लगने लगा था कि भारत और चीन के रिश्ते पटरी पर आ रहे हैं, लेकिन दोस्ती में दगा करने के आदी चीन ने फिर वही कटुता पैदा करने वाली हरकतें शुरू कर दीं है। चीन ने होतान प्रांत में दो नए ज़िले बनाने की घोषणा की है। इन ज़िलों की सीमा का विस्तार भारत के केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में आता है। इसके पहले चीन ने तिब्बत क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नदी पर 137 अरब डॉलर की लागत से दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की घोषणा भी की हुई है। इन दोनों घोषणाओं से भारतीय संप्रभुता के संबंध में दीर्घकालिक और सतत स्थिति पर असर नहीं पड़ेगा और न ही इससे चीन के कब्जे को वैद्यता मिलेगी, ऐसा विदेष मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जयसवाल ने कहा है। हालांकि उन्होंने यह स्वीकारा कि इन तथाकथित ज़िलों का कुछ हिस्सा भारत के लद्दाख में आता है। ये विवादित घोषणाएं ऐसे समय में की गई हैं, जब दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों ने लगभग पांच साल बाद फिर से सीमाओं के संदर्भ में बातचीत शुरू की है। इसी बातचीत में दोनों देश पूर्वी लद्दाख के डेमचोक और देपसांग क्षेत्रों से पीछे हटने पर सहमत हुए थे। गलवान में 2020 में घटी सैन्य घटना से पहले की स्थिति बहाल रखने पर भी सहमति बन गई थी। सनद रहे कि चीन ने अक्साई चिन के करीब 40000 वर्ग किमी क्षेत्र पर पहले से ही कब्ज़ा किया हुआ है।
लद्दाख में 14000 फीट की ऊंचाई पर स्थित दुर्गम गलवान नदी घाटी में चीनी सैनिकों की दगाबाजी के कारण 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। चीन के भी 40 से अधिक सैनिक मारे गए थे। 20 अक्तूबर, 1975 के बाद 2020 में पहली बार इतना बड़ा हिंसक सैन्य टकराव भारत-चीन सीमा विवाद के परिप्रेक्ष्य में हुआ था। 1975 में अरुणाचल प्रदेश के तुलुंगला क्षेत्र में असम राइफल्स की पेट्रोलिंग पार्टी पर चीनी सैनिकों ने घात लगाकर हमला किया था। इसमें चार भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। अब बातचीत के बाद सेनाओं के पीछे हटने से लग रहा था कि स्थाई शांति बहाल हो जाएगी, परन्तु लद्दाख के इसी क्षेत्र में दो नए ज़िलों की घोषणा से स्पष्ट हो गया है कि चीन की विस्तारवादी मंशा यथावत है। हालांकि भारत और चीन के बीच 1993 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने चीन यात्रा के दौरान वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति और स्थिरता बनाए रखने की दृष्टि से एक समझौता किया था। समझौते की शर्तों के मुताबिक निश्चित हुआ था कि एक-दूसरे के खिलाफ बल या सेना के प्रयोग की धमकी नहीं दी जाएगी। दोनों देशों की सेनाओं की गतिविधियां नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेंगी। यदि भूलवश एक पक्ष के जवान नियंत्रण रेखा पार कर लेते हैं तो दूसरी तरफ से संकेत मिलते ही नियंत्रण रेखा के उस पार चले जाएंगे। दोनों पक्ष विश्वास बहाली के उपायों के जरिये नियंत्रण रेखा के इलाकों में काम करेंगे। सहमति से पहचाने गए क्षेत्रों में कोई भी पक्ष सैन्य अभ्यास के स्तर पर कार्य नहीं करेगा। बावजूद गलवान में सैन्य संघर्ष हो गया था। गलवान नदी घाटी क्षेत्र 1962 में हुई भारत-चीन की लड़ाई में भी प्रमुख युद्ध स्थल रहा था। गलवान घाटी श्योक नदी के इर्द-गिर्द है।
वैसे भी चीन अपने किसी भी पड़ोसी देश का सगा नहीं है। चीन की सीमा 14 देशों से जुड़ी है और सभी से उसका सीमांत विवाद चलता रहता है। वह भारत के बरक्श बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है और अढ़ाई हज़ार साल पुराने भारत-चीन के सांस्कृतिक संबंधो के बहाने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का राग अलाप कर भारत से अपने कारोबारी हित साधता रहता हैं। दूसरी तरफ वह अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम पर अपना दावा ठोकता है। यही दावा अब वह लद्दाख पर जता रहा है। छोटे से देश भूटान को भी हड़पने की उसकी मंशा सामने आती रहती हैं। चीन की यह मंशा भी रही है कि उसकी तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं होने पाए। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख और अरूणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। इन बेजा हरकतों की प्रतिक्रिया में भारत द्वारा विनम्रता बरतने का लम्बा इतिहास रहा है, इसी का परिणाम है कि चीन आक्रामकता दिखाने से बाज नहीं आता।
चीन ने एक ऑनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है, जिसमें भारतीय भू-भाग अरुणाचल और अक्साई चिन को उसने अपने हिस्से में दर्शाया है। चीन की अब माउंट एवरेस्ट पर भी नज़र है। विश्व मानचित्र खण्ड में इसे चीनी भाषा में दर्शाते हुए अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से बना हुआ है। गौरतलब है, साम्यवादी देशों की हड़प नीति के चलते ही छोटा सा देश चेकोस्लोवाकिया बरबाद हुआ। ताइवान को भी चीन हड़पने की रणनीति अपनाने में लगा है। चीनी दखल के चलते बरबादी की इसी राह पर नेपाल और श्रीलंका है। तिब्बत को तो वह लील ही चुका है।
चीन की दोगलाई कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। दुनिया जानती है कि भारत-चीन की सीमा विवादित है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुचि नहीं है। वह केवल घुसपैठ करके अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज़ है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा के नेतुत्व में तिब्बतियों को शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आज़ादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई की खिलाफत करे। दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असंमजस की नीति अपनाई है।
जब भारत ने तिब्बतियों को शरणार्थियों के रूप में जगह दे ही दी थी, तब तिब्बत को स्वतंत्र देश मानते हुए अंतर्राष्ट्रीय मंच पर समर्थन की घोषणा करने की ज़रूरत थी? डॉ. राममनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था, लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरू ऐसा नहीं कर पाए। इसके दुष्परिणाम भारत आज तक झेल रहा है। इन दो नई घोषणाओं से स्पश्ट हो गया है कि चीन किसी भी मुद्दे पर समझौते का इच्छुक नहीं है। अतएव रिश्तों के सुधार की दिशा में स्थिरता आएगीए यह भ्रम के अलावा कुछ नहीं है।
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