लद्दाख में अभी भी ज़मीन हथियाये जा रहा है चीन

पहले राहुल गांधी कभी-कभी कहते सुने जाते थे कि चीन ने भारत की ज़मीन हड़प रखी है और मोदी सरकार उसे वापिस हासिल करने के लिए कुछ नहीं कर रही है। लेकिन, अब उन्होंने इस मसले पर चुप्पी साध रखी है। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष के नेता का पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने विदेश नीति और रक्षा नीति के मोर्चे पर सरकार का साथ देने का मन बना लिया है। यह बात उस समय खुल कर सामने आयी जब बांग्लादेश में छात्रों के विद्रोह के कारण श़ेख हसीना को ढाका छोड़ कर भागना पड़ा और भारत ने उन्हें शरण दी। हुआ यह कि जैसे ही हमार पड़ोस में यह संकट पैदा हुआ, विदेश मंत्री ़फौरन राहुल गांधी से मिले और उन्हें पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी। राहुल गांधी अगर चाहते तो इस मसले पर मोदी सरकार को आड़े हाथों ले सकते थे, पर उन्होंने सरकार की चलने दी और ़खामोश रहे। अब चीन के मसले पर भी यह होते हुए दिख रहा है। चीन की चट्टान के नीचे भारतीय विदेश नीति का हाथ दबा हुआ है। पूरी सावधानी दिखाने के बावजूद पिछले पांच साल से (अगर 2017 में हुई डोकलाम की हिंसा से जोड़ें तो सात साल) भारतीय हाथ नीचे ही दबा है।  
यह देख कर ताज्जुब होता है कि टीवी के खबरिया चैनलों और अखबारों में चल रहे राजनीतिक विमर्श से इस समय ‘चीन’ शब्द त़करीबन गायब है। केवल सोशल मीडिया पर इस लफ्ज़ की कुछ-कुछ आहट सुनी जा सकती है। यह अचरज उस समय और भी संगीन लगने लगता है जब स्वयं भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रनधीर जायसवाल द्वारा जनवरी के पहले सप्ताह में हमें जानकारी मिली है कि चीन ने होटन प्ऱिफेक्चर नामक अपने इलाके में लद्दाख की काफी भारतीय ज़मीन ‘़गैर-कानूनी रूप से हड़पते’ हुए अपनी दो नयी काउंटियां (हेकांग और हेआन) स्थापित कर दी हैं। काउंटियां यानी प्रशासनिक इकाइयां, जहां दफ्तर होते हैं, इमारतें होती हैं, पुल बनाये जाते हैं, लोग रहते हैं, काम करते हैं और जहां चीन की प्रभुसत्ता भी बसेगी। यानी अब चीन यहां से पीछे नहीं जा सकता है। वह जाएगा तो केवल आगे ही जाएगा। न केवल यह, बल्कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने यह भी जानकारी दी है कि चीन यारलुंग सांगपो नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा पनबिजली बांध 137 अरब डॉलर की लागत से बनाने जा रहा है। दरअसल, इस नदी से हम सब परिचित हैं। जब यह बहते हुए उतर कर अरुणाचल प्रदेश और असम में पहुंचती है तो इसका नाम ब्रह्मपुत्र हो जाता है। दुनिया की सबसे त़ाकतवर नदी होने के कारण हम इसे ‘महानद’ भी कहते हैं। अगर यह बांध बन गया तो भारत के इस पूरे भारतीय क्षेत्र के पर्यावरण के लिए भीषण खतरा स्थायी रूप से पैदा हो जाएगा। चीन इससे साठ गीगाबाइट बिजली पैदा करेगा। अर्थात, अभी तक के सबसे विशाल थ्री गोर्जिज़ डैम से भी ढाई गुना ज़्यादा। 
भारत में चीन के होटन प्ऱिफेक्चर को खोटान के नाम से जाना जाता है। चीन इसमें अक्साई चीन का काफी इलाका हड़प कर जोड़ रखा है। वह ‘सलामी स्लाइसिंग’ के नाम से कुख्यात अपने हथकंडे के ज़रिये पचास के दशक से ही भारतीय ज़मीन धीरे-धीरे कब्ज़ाता रहा है (विदेश मंत्रालय के मुताबिक 38 हज़ार किमी.)। समझा जाता है कि पिछले दस साल में भी उसने इसी हथकंडे से इस ़गैर-कानूनी कब्ज़े में बहुत सी ज़मीन जोड़ी गयी है। उसने भारत को अधिकारिक रूप से न काउंटियां बनाने की जानकारी दी, और न ही बांध बनाने की। विदेश मंत्रालय को इसका पता चीनी समाचार एजेंसी सिनहुआ द्वारा 25 दिसम्बर को प्रकाशित ़खबर से मिली। ज़ाहिर है कि हमारा मंत्रालय तीन जनवरी तक इस बेचैन कर देने वाले घटनाक्रम के फलितार्थों पर गहराई से ़गौर करता रहा होगा। इसी से पता चलता है कि इस संबंध में भारत की दुविधाएं और मजबूरियां किस स्तर की हैं। चीन-भारत संबंधों का अध्ययन करने वाले कई सुरक्षा-विशेषज्ञ एक अरसे से इस समस्या पर चेतावनीमूलक विचार करते रहे हैं। उनके लेख अंग्रेज़ी के मीडिया में प्रकाशित भी हुए हैं। लेकिन, कुछ जाने-अनजाने कारणों से ये सवाल और तथ्य कभी सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाए। 
ज़ाहिर है कि भारत इस मसले पर केवल ‘आपत्ति’ दर्ज करा कर रह गया। क्या उसके पास दुनिया के किसी मंच पर कोई ऐसे कठघरे का विकल्प नहीं है जहां वह इस घोर विस्तारवादी कदम के खिलाफ चीन को खड़ा करके जवाबतलब कर सके? क्या भारत अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चीन का गिरेबान पकड़ कर झिझोड़ने की हैसियत नहीं रखता? असलियत यह है कि 2021 में गलवान घाटी में हुई घटना के बाद भारतीय सेना ने इस इल़ाके में ‘प्ले स़ेफ’ रवैया अपना रखा है। इस चक्कर में धीरे-धीरे वह लद्दाख के 65 पैट्रोलिंग पाइंट्स में से 26 पाइंट्स खोने की स्थिति में पहुंच गई है। यह रवैया सेना तभी अपनाती है जब उसे राजनीतिक नेतृत्व द्वारा इस तरह की हिदायत दी जाती है। वरना, वह पहलकदमी ले कर अपने पैट्रोलिंग पाइंट्स दोबारा हस्तगत करने की कार्रवाई भी कर सकती है। 
यहां समझने की बात यह है कि चीन बहुत पहले से इस तरह के पनबिजली बांध बनाने की घोषित योजना पर काम कर रहा है। 2021 में ही उसकी 14वीं पंच वर्षीय योजना में इस बांध का ही नहीं बल्कि ऐसे कई बांधों का ज़िक्र है जो चीन ब्रह्मपुत्र के ऊपरी और मध्यवर्ती प्रवाह पर बना रहा है। इनमें एक ज़ागमू नामक पनबिजली घर तो पहले से चालू है। कुछ बांध ऐसे भी हैं जिन्हें बनाने में उसके सामने कई तरह की तकनीकी दिक्कतें आ रही हैं। लेकिन इस दिक्कतों में भारत की तरफ से की जा रही आपत्तियों को शामिल नहीं मानना चाहिए। चीन को इनकी परवाह नहीं है। भारत भले ही चीन को एक आक्रामक, विस्तारवादी और पर्यावरण की दृष्टि से ़गैर ज़िम्मेदार देश करार देता रहे, पर इससे उसकी योजनाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। वह भारत के साथ कोई जलसंधि करने के लिए भी तैयार नहीं है, बावजूद इसके कि ब्रह्मपुत्र के प्रवाह के निचले हिस्से पर भारत का पूरा अधिकार है। क्या भारत के पास चीन की इन कार्रवाइयों को थामने, उसे पीछे धकेलने और अपनी ज़मीन वापिस हासिल करने का कोई ब्लूप्रिंट है? अगर है तो उसकी कोई न कोई जानकारी संसद के पटल पर या विदेश मंत्रालय के अधिकारिक वक्तव्य के जरिये मिलनी चाहिए। 2021 में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस विवाद के बारे में एक वक्तव्य संसद में दिया था। पर वह बात बहुत पुरानी हो चुकी है। 2017 में डोको ला (डोकलाम) में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच हुई हिंसा के बाद से ऐसे लगता है कि पहलकदमी चीन के हाथ में चली गई है। हमारा संसदीय विपक्ष भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए है। ऐसे मसले पर राष्ट्रीय एकता का रवैया अच्छी बात है, लेकिन देश की जनता को इसकी जानकारी देना भी तो सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों का कर्तव्य है। 1962 की अपमानजनक ़फौजी पराजय हमारी यादों को अक्सर घायल करती रहती है। चीन की दोनों काउंटियों और दैत्याकार पनबिजलीघर की योजना ने उस कसक को और बढ़ा दिया है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।
 

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