खाद्य कीमतों में वृद्धि से हाशिये पर पड़े लोगों के लिए पोषण का संकट
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने हाल ही में घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2023-24 की तथ्य-पत्रिका जारी की है। यह वार्षिक श्रृंखला की दूसरी सर्वेक्षण रिपोर्ट है जो 2011-12 में सरकार द्वारा जारी किये गये 68वें दौर के उपभोग व्यय सर्वेक्षण के बाद लंबे अंतराल के बाद 2022-23 में शुरू हुई है। सरकार इस बार यह रिपोर्ट जारी करने में सहज प्रतीत होती है क्योंकि ग्रामीण भारत में मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) 2022-23 में 3,773 रुपये से बढ़कर 2023-24 में 4,122 रुपये और शहरी भारत में 6,459 रुपये से बढ़ कर क्रमश: 6,996 रुपये हो गया है। इसका अर्थ है कि ग्रामीण और शहरी भारत में उपभोग व्यय में क्रमश: 9.25 और 8.31 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
सामान्य उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 6 प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर और 9 प्रतिशत से अधिक खाद्य मुद्रास्फीति दर है। इस महंगाई के समायोजन के बाद घरेलू उपभोग व्यय में नाममात्र की वृद्धि वास्तव में जीवन दशा सुधारने में कोई खास अर्थ नहीं रखती। हालांकि सरकार यह भी दावा करती है कि कुल उपभोग व्यय के गिनी गुणांक द्वारा मापी गयी असमानता ग्रामीण भारत के लिए 2022-23 में 0.226 से गिर कर 2023-24 में 0.237 हो गयी है। यह स्पष्ट रूप से इस तथ्य का खंडन करता है कि भारत के मामले में आय में असमानता तेजी से बढ़ रही है जबकि उपभोग व्यय के मामले में असमानता मामूली रूप से कम हुई है।
एनएसओ उपभोग व्यय वितरण को 12 भिन्न वर्गों में विभाजित करता है। सबसे निचला वर्ग उपभोग वितरण के सबसे गरीब 5 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करता है और सबसे ऊपरी वर्ग भारतीय उपभोक्ताओं के सबसे अमीर 5 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करता है। वितरण को दो शीर्ष और निचले वर्गों के लिए 5 प्रतिशत की सीमा के साथ विभाजित किया गया है और बाकी को बीच के आठ भिन्न वर्गों के लिए 10 प्रतिशत की सीमा के साथ विभाजित किया गया है।
2023-24 में शीर्ष 5 प्रतिशत में औसत उपभोक्ता एक गरीब व्यक्ति द्वारा औसतन उपभोग किए जाने वाले उपभोग से छह गुना अधिक उपभोग करता है। यह स्पष्ट रूप से आय और धन में असमानता की तुलना में मामूली लगता है क्योंकि जैसे-जैसे आय बढ़ती है, किसी व्यक्ति की कुल आय में उपभोग व्यय का हिस्सा घटता जाता है। जैसे-जैसे लोग अमीर होते जाते हैं, आय या सम्पत्ति में वृद्धि की तुलना में उपभोग व्यय धीमी गति से बढ़ता है। दूसरी ओर बढ़ी हुई आय का बड़ा हिस्सा गरीब लोगों द्वारा उपभोग में खर्च किया जाता है और उपभोग के मामले में असमानता आय या सम्पत्ति में असमानता की तुलना में बहुत कम होने की उम्मीद है।
पिछले दशकों में उपभोग व्यय में एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति यह देखी गयी है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में औसत एमपीसीई में खाद्य की हिस्सेदारी में गिरावट आयी है। औसतन उपभोग व्यय में खाद्य की हिस्सेदारी ग्रामीण भारत में 2011-12 में 52.9 से घटकर 2023-24 में 47.04 प्रतिशत और शहरी भारत में 42.62 से घटकर 39.68 प्रतिशत हो गयी है।
एक तर्क यह हो सकता है कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के साथ कुल उपभोग व्यय में खाद्य की हिस्सेदारी घटती है और खाद्य समूह के भीतर अनाज की हिस्सेदारी घटती है। जैसे-जैसे आय बढ़ती है, लोग अपनी आय का बढ़ता हिस्सा गैर-खाद्य पर खर्च करते हैं और खाद्य के भीतर तेल, सब्जियां, फलों आदि पर अधिक खर्च करते हैं जबकि कुल खाद्य व्यय के अनुपात में अनाज की खपत घटती है। यह आहार परिवर्तन श्रम प्रक्रिया में परिवर्तन के कारण भी होता है, क्योंकि शहरी और ग्रामीण दोनों उत्पादन गतिविधियों में मशीनीकरण बढ़ने के साथ पहले की तुलना में कम शारीरिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
भोजन व्यय के हिस्से के रूप में खाद्य का हिस्सा कम हो सकता है, भले ही खाद्य की वास्तविक खपत निरपेक्ष रूप से बढ़ गयी हो, लेकिन गैर-खाद्य पर व्यय बहुत तेज़ी से बढ़ सकता है। सबसे गरीब वर्ग के लिए कुल उपभोग व्यय में खाद्य पर व्यय का हिस्सा 60 प्रतिशत से अधिक है जबकि सबसे अमीर वर्ग के मामले में यह केवल 20 प्रतिशत के करीब है। दूसरे शब्दों में अमीर वर्गों के मामले में खाद्य और गैर-खाद्य पर व्यय के बीच का अंतर तेज़ी से बढ़ता है। हाल ही में जारी की गयी रिपोर्ट में जो बात दिलचस्प लगती है, वह इस लम्बी अवधि की प्रवृत्ति का उलट है यानी कुल उपभोग व्यय में खाद्य का हिस्सा पिछले साल की तुलना में औसतन बढ़ा है।
पिछले दशक में औसतन गैर-खाद्य व्यय में सबसे महत्वपूर्ण वृद्धि संचार पर हुई है। सेल फोन का उपयोग सभी वर्गों में बढ़ गया है और कई मामलों में यह कई निजी और सार्वजनिक लेन-देन के लिए लगभग अपरिहार्य हो गया है। डिजिटलीकरण में वृद्धि ने सेल फोन के उपयोग को लगभग गैर-विवेकाधीन बना दिया है। इंटरनेट का उपयोग भी बढ़ रहा है, लेकिन अमीर और गरीब के बीच व्यय का अंतर अभी भी अधिक है। उपभोग व्यय के इन बदलते परिदृश्यों में जो महत्वपूर्ण है वह है विभिन्न वर्गों में विवेकाधीन और गैर-विवेकाधीन उपभोग व्यय के बीच की सीमा को फिर से परिभाषित करना।सबसे गरीब वर्ग के लिए खाद्य कीमतों में वृद्धि से खाद्य पदार्थों की खपत कम हो सकती है जिससे पोषण की कमी हो सकती है, लेकिन अन्य निम्न और मध्यम वर्गों के लिए स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और संचार की उपलब्धता उपभोग मांग के महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरी है।
इसलिए, कामकाजी लोगों के लिए बेहतर जीवन के लिए आंदोलनों को इन महत्वपूर्ण तत्वों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है जो कामकाजी वर्ग के जीवन की बदलती आवश्यकताओं का गठन करते हैं। (संवाद)