काम के घंटे नहीं, गुणवत्ता मायने रखती है

सप्ताह में काम के दिन और घंटों से जुड़ा मामला एक बार फिर ज़ोरों पर है। बहुराष्ट्रीय कम्पनी लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यम ने इस बात पर अपनी बेबसी ज़ाहिर की है कि वप्तह अपने कर्मचारियों से सप्ताह में 90 घंटे काम नहीं करवा पा रहे हैं। उनके मुताबिक कर्मचारियों को रविवार के दिन भी काम में जुटे रहना चाहिए। इस बात के समर्थन में सुब्रमण्यन ने चीन के एक व्यक्ति से हुई बातचीत भी साझा की। उन्होंने कहा कि उस व्यक्ति ने दावा किया कि चीन, अमरीका से आगे निकल सकता है क्योंकि चीनी कर्मचारी हफ्ते में 90 घंटे काम करते हैं जबकि अमरीका में 50 घंटे काम करते हैं।
कुछ समय पहले इन्फोसिस के को-फाउंडर एन. आर. नारायणमूर्ति ने देश के नौजवानों को सलाह दी थी कि उन्हें सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। भारत के विकास के लिए त्याग की आवश्यकता है, न कि आराम की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हफ्ते में 100 घंटे काम करने की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने कहा था कि जब प्रधानमंत्री मोदी इतनी मेहनत कर रहे हैं तो हमारे आसपास जो भी हो रहा है, उसे हम अपने काम के ज़रिए ही प्रोत्साहित कर सकते हैं।
ऐसे बयानों से सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच किसी देश की या कम्पनी की उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि वहां लोग कितनी देर तक काम करते हैं। क्या काम की मात्रा ही सब कुछ है या काम की गुणवत्ता पर भी ध्यान देने की ज़रूरत होती है और जब बात गुणवत्ता की हो तो क्या यह संभव है कि जिन कर्मचारियों के जीवन में गुणवत्ता न हो, उनके काम में गुणवत्ता बनी रहे?देखा जाए तो बिजनेस चलाने वालों की यह सोच रही है कि कर्मचारियों को अधिक से अधिक काम करने के लिए प्रेरित किया जाए। व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह के प्रयासों में कोई बुराई नहीं है, जब तक कि संबंधित कर्मचारियों के सामने इसे स्वीकार करने या न करने की स्वतंत्रता बनी रहती है। दिक्कत तब आती है जब मालिक अपनी इस सोच को पॉलिसी के रूप में दूसरों पर लादने का प्रयास करते हैं या इसके लिए राष्ट्र-निर्माण जैसे मकसद की आड़ देते हैं। 
वैसे भी आप क्या काम करते हैं, इस पर भी निर्भर करता है कि आप कितना काम कर सकते हैं। जैसे शारीरिक या फैक्टरी में काम, गाड़ी चलाने का काम हो या अकाउंट से जुड़ा काम, इनमें आप आठ घंटे तक काम करते हैं। ज़्यादा काम करेंगे तो थकावट हो सकती है। आमतौर पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को मेहनत वाले काम में थकावट जल्दी होती है। इसी प्रकार लोग दफ्तर में दबाव के बीच काम कर रहे हैं या जोश के साथ काम कर रहे हैं, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। कम्पनी के मालिक किसी दबाव में काम नहीं करते। वे मालिकाना हक के साथ अपनी इच्छा से काम करते हैं जबकि कर्मचारियों पर काम का दबाव रहता है। 
इस बारे में एक डॉक्टर मित्र से बात हुई। उनका भी कहना था कि हमारे शरीर को एक निश्चित मात्रा में काम करने के बाद आराम भी करना होता है। ज़्यादा काम की वजह से हम कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। ज़्यादा काम या मेहनत करने से नींद पर असर होता है। शरीर को आराम नहीं मिलेगा तो आपके हार्मोन्स लगातार सक्रिय रहेंगे, इससे हमारा स्ट्रेस हार्मोन बढ़ेगा। यह आर्टेरी को सख्त बनाता है, आपका बीपी बढ़ सकता है, मोटापा, शुगर, कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने की संभावना रहती है। हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक की आशंका भी बढ़ जाती है। आराम बीमारियों से लड़ने की हमारी क्षमता को भी मज़बूत करता है। इससे शरीर के अहम अंगों की रिकवरी भी होती है।
एक प्रसिद्ध कम्पनी के चेयरमैन ने लम्बे समय तक काम करने को गलत बताया है। उन्होंने कहा—काम में गुणवत्ता ज़रूरी है, उसकी मात्रा नहीं। उनके अनुसार काम के घंटे बढ़ाना एक गलत बहस है। कई विकसित देश 8 से 4 बजे तक काम करते हैं लेकिन सुनिश्चित करते हैं कि वह उस समय प्रोडक्टिव हों। लोग समय पर आएं और काम में अपना सर्वश्रेष्ठ दें। 
केवल ज़रूरी मीटिंग करें और प्रभावी होने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करें। एक अन्य कम्पनी निदेशकने इस मुद्दे पर अपनी राय रखते हुए कहा कि काम की गुणवत्ता घंटों से कहीं अधिक मायने रखती है। अगर कोई सप्ताह में 70 या 90 घंटे भी काम करता है तो इसका असर परिवार, स्वास्थ्य पर पड़ेगा और इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी जबकि हमें पहले से कहीं अधिक दयालु, सौम्य दुनिया की ज़रूरत है। (अदिति)

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