पंजाब में सिखों का कम हो रहा है राजनीतिक प्रभाव !
मत सिखा लहज़े को अपनी बरशियों के पैंतरे,
ज़िंदा रहना है तो लहज़े को ज़रा मासूम कर।
टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट,
और अपने हार जाने का सबब मालूम कर।
प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी का यह शे’अर इस समय सिख कौम के लिए सचमुच विचार करने तथा अमल करने के योग्य है, नहीं तो जिस प्रकार इस समय सिख राजनीति की ‘हन्ने हन्ने मीरी’ वाली हालत बनी हुई है, वह सचमुच ही सिखों को ‘राज करेगा खालसा’ के संकल्प से बहुत दूर रसातल की किसी गरही खाई की ओर धकेलती नज़र आ रही है। यह अकेली अकाली राजनीति की बात नहीं, अपितु समूची सिख राजनीति की बात है। बेशक इस बात तो कोई न माने, परन्तु सच यही है कि 1948 तथा 1966 का सिख नेतृत्व जो प्रत्यक्ष रूप में अकाली नेतृत्व ही था, पंजाबी प्रांत के लिए लड़ता रहा, क्योंकि देश की आज़ादी के बाद सिख बहुसंख्या वाला राज्य मांगना संवैधानिक दायरे में संभव नहीं था, इसलिए पंजाबी भाषा के आधार पर राज्य मांगा गया, जो संवैधानिक दायरे में भी था और सिखों की आबादी का तनासब भी बढ़ाता था। उल्लेखनीय है कि भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय सिखों ने बहुत मार खाई और बड़ी संख्या में कत्लेआम के शिकार भी हुए, परन्तु इसका एक लाभ यह ज़रूर हुआ कि वह भारतीय पंजाब के एक हिस्से में एकजुट हो गये।
असल में आज़ादी के समय भारत में 500 से अधिक राज्य (रियासतें) थे, जिनका भारतीय संघ में कैसे विलय करना है, यह एक बड़ा सवाल था, जिसे उस समय के गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल की कूटनीति ने काफी हद तक हल किया, परन्तु देश में भाषा आधारित राज्य बनाने की बात उभरने के कराण 1948 में सेवामुक्त जज एस.के. धर की नेतृत्व में 4 सदस्यीय आयोग बनाया गया, परन्तु इस आयोग ने भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मांग का विरोध कर दिया। इसके बाद राज्यों के पुनर्गठन का कोई ठोस आधार ढूंढने के लिए पंडित जवाहल लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल तथा पटा सीतारमैया पर आधारित एक संयुक्त संसदीय समिति बनाई गई। इसने भी भाषा आधारित राज्य बनाने का समर्थन नहीं किया। इस पर तेलुगू भाषियों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। 1952 में तेलुगू नेता पोटि श्रीरामलु 52 दिन का मरणव्रत रख कर प्राण त्याग गए। आन्दोलन ने हिंसक रूप ले लिया। मजबूर होकर केन्द्र ने 1953 में आंध्र प्रदेश को पहला भाषा आधारित राज्य बना दिया। इसके बाद अन्य राज्यों में भी भाषा आधारित राज्यों के हक में आन्दोलन तेज़ हो गए। 19 दिसम्बर, 1953 को जस्टिस फज़ल अली, हृदय नाथ कुंजरू तथा के.एम. पानिकर पर आधारित तीन सदस्यीय आयोग बनाया गया। इस आयोग ने जांच के बाद जो रिपोर्ट दी, उसके अनुसार भारत में चाहे कुल 844 भाषाएं बोली जाती हैं, परन्तु 91 प्रतिशत भारतीय सिर्फ 14 भाषाएं ही बोलते हैं। इसलिए इस आयोग ने भाषा आधारित 14 राज्य बनाने की सिफारिश कर दी। इसके बाद कई नये राज्य भाषा के आधार पर अस्तित्व में आए, परन्तु पंजाबी राज्य की मांग नहीं मानी गई। इसके बाद शिरोमणि अकाली दल द्वारा आरम्भ किए गए आन्दोलन के दबाब में 1966 में पंजाबी राज्य बना तो दिया गया, परन्तु पंजाब की राजधानी, डैम, पंजाबी भाषी क्षेत्र ही बाहर नहीं रखे, अपितु पंजाब पुनर्गठन एक्ट में पूरी तरह अलौकार धाराएं 78, 79, 80 जोड़ कर केन्द्र सरकार ने कई प्रकार के अधिकार ले लिए, जो संवैधानिक तौर पर उसके पास नहीं थे। वैसे तो यह पंजाब और पंजाबियों के साथ सरासर अन्याय था, परन्तु इसकी सिर्फ एक बात से सिख नेता भीतर से खुश भी थे कि यह राज्य चाहे छोटा बना था, परन्तु यह पूरी तरह सिख बहुसंख्यक राज्य बन रहा था। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि उस समय के पंजाब के हिन्दू नेता तथा हिन्दू प्रैस अकाली नेताओं से रणनीतिक तौर पर मार खा गए थे। उन्हें हिन्दू हितों के लिए पंजाबी के पक्ष में प्रचार करके हिन्दुओं को अपनी मातृ भाषा पंजाबी लिखवाने के लिए ही प्रेरित करना चाहिए था ताकि पंजाब में सिख बहुसंख्या न होती, परन्तु उन्होंने इसके विपरीत किया और पंजाबी भाषी अधिकतर हिन्दुओं को अपनी मातृ भाषा हिन्दी लिखवाने के लिए प्रेरित किया। उल्लेखनीय है कि 1991 की जनगणना में सिख 59.71 प्रतिशत तथा 2011 की जनगणना में 57.69 प्रतिशत थे। परन्तु अब जब नई जनगणना होगी तो अनुमान है कि इस पंजाब में भी सिख अल्पसंख्या में ही होंगे। एक अनुमान है कि इनकी संख्या 40 से 48 प्रतिशत के बीच हो सकती है। इसके कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण प्रवासियों की पंजाब में बढ़ती आबादी, पंजाबियों का स्वयं प्रवासी बनना, दलित तथा मज़हबी सिखों का धर्म-परिवर्तन आदि है। परिवार नियोजन को भी सिख समुदाय के लोगों ने अधिक अपनाया है। इसलिए आगामी समय में पंजाब में सिखों की आबादी कम होना सुनिश्चित है। पहली बात तो यह है कि सिख ‘आप’, कांग्रेस, भाजपा तथा अकाली दल आदि पार्टियों में बंटे हुए हैं। दूसरी बात यह कि स्वयं को सिखों का प्रतिनिधि कहने वाले अकाली दल की भीतरी फूट तथा कई-कई अकाली दल बनाकर हन्ने हन्ने मीरी वाली स्थिति तथा आपसी फूट भी सिखों का राजनीतिक प्रभाव कम होने के लिए ज़िम्मेदार है। उल्लेखनीय है कि अकाली दलों की हालत इस समय इस शे’अर की भांति हो गई है :
नये किरदार आते जा रहे हैं,
मगर नाटक पुराना चल रहा है।
एक और अकाली दल की सम्भावना
हालांकि हालत यह है कि पहले ही अकाली दलों की भरमार है। अभी मकर संक्रांति के अवसर पर भी लोकसभा सांसद भाई अमृतपाल सिंह तथा भाई सरबजीत सिंह के नेतृत्व में एक नया अकाली दल (वारिस पंजाब दे) बनाया गया है। इस बीच चाहे अकाली दल सुधार लहर भंग करने वाले नेता जत्थेदार श्री अकाल तख्त साहिब से मुलाकातें करके अभी 2 दिसम्बर के फैसले को उसी तरह लागू करवाने पर ज़ोर दे रहे हैं, परन्तु जिस प्रकार की सूचनाएं मिल रही हैं और जिस प्रकार की करवट हालात ले रहे हैं, उनसे प्रतीत होता है कि यह गुट भी अखीर एक नया अकाली दल बनाने की ओर बढ़ेगा। हालांकि यह गुट चाहता था तख्त श्री दमदमा साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह उनका नेतृत्व करें, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार वह अभी सक्रिय राजनीति से दूर धार्मिक क्षेत्र में ही विचरण करने को प्राथमिकता दे रहे हैं। इन हालातों में इस सम्भावित अकाली दल का राजनीतिक नेतृत्व गुरप्रताप सिंह वडाला या पूर्व मंत्री सुरजीत सिंह रखड़ा को सौंपे जाने के आसार दिखाई दे रहे हैं। जब इस अकाली दल द्वारा शिरोमणि कमेटी चुनाव के लिए धार्मिक विंग का नेतृत्व बीबी जगीर कौर को सौंपे जाने पर विचार चल रहा है। वैसे स्पष्ट रूप में माना जाता है कि सिखों में वह अकाली दल ही उभरता है जो शिरोमणि कमेटी चुनाव जीत ले। इस बात की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि शिरोमणि कमेटी चुनावों की घोषणा होने के बाद सभी बादल विरोधी अकाली दल सामूहिक तौर पर जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह को धार्मिक क्षेत्र में नेतृत्व करने को कहेंगे इस समय तो सभी अकाली दल हन्ने हन्ने की मीरी की स्थिति में विचरण कर रहे हैं, कौम के मसले उनके लिए कोई अधिक महत्व नहीं रखते। तरब सिद्दिकी के शब्दों में :
है अब भी वक्त संभल जाओ अै तरब वरना,
ज़माना तुम को न रखदे कहीं फना करके।
राज्यपाल कटारिया तथा एम.पी. संधू की पहल
पिछले दिनों राज्यसभा सांसद सतनाम सिंह संधू की पहल पर पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया की अध्यक्षता में ‘पंजाब में नशे’ विषय पर पंजाब के अलग-अलग वर्गों के प्रतिनिधियों की राय ली गई। यह एक बहुत अच्छी बात है, परन्तु ज़रूरी है कि इस पहल को आगे बढ़ाया जाए और राज्यपाल इस संबंधी एक रिपोर्ट पंजाब सरकार को कोई पूर्ण रणनीति बनाने के लिए भेजें। उल्लेखनीय है कि इस बैठक में बार-बार जहां यह बात उठी कि नशे के शिकार युवाओं को नशेड़ी कहने की बजाय बीमार समझा जाए और उनका इलाज करके उन्हें रोज़गार देने का प्रबंध किया जाए। यह बात भी बार-बार सामने आई कि नशा रोकने के लिए मांग कम करना भी ज़रूरी है, इसलिए बच्चों को विशेषतौर पर जागरूक किया जाए और अन्य ज़रूरी कदम उठाए जाएं। इसके साथ ही सबसे अधिक ज़ोर से यह बात भी उठी कि नशा तब तक खत्म नहीं हो सकता जब तक पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा नशा तस्करों का गठजोड़ नहीं टूटता। इसलिए ज़रूरी है कि पुलिस अधिकारियों की बेहिसाब बढ़ती जायदादों, नशा तस्करों की अटेच की जायदादों का उच्च अदालतों के माध्यम से उनको कई बार वापिस मिल जाना आदि की ओर भी ध्यान दिया जाये। कुछ वक्ताओं ने पुलिस अधिकारियों के डोप टैस्ट करवाने तथा नशा छुड़ाओ केन्द्रों में गोलियां बिकने की बात भी की। यह बात भी ज़ोर से उठी कि नशा करने वाले तथा छोटे ड्रग पैडलरों को तो सज़ा हो जाती है, परन्तु बहुत बार बड़े तस्करों को मिसाली सज़ाएं नहीं मिलतीं। खैर कुछ भी हो, यह एक अच्छी शुरुआत है और हम आशा करते हैं कि इस पर क्रियान्वयन किया जाए। नहीं तो नशा करने वाले तो शहाब ज़ाफरी के लफ्ज़ों में अपने पांवों के नीचे ही अपनी ज़िन्दगी कुचले जा रहे हैं।
चले तो पांव के नीचे कुचल गई कोई शैअ,
नशे की झौंक में देखा नहीं कि दुनिया है।
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