मोरपंखी ज़िन्दगी की तलाश
बेपर्दगी के इस ज़माने में कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है। ज़माने को तो जगभाता दिखाने का है। प्रदर्शन करके अपनी साख ज़माने का है, लेकिन आप तो यह कहते चले आये, कि जनाब कुछ तो लिहाज़ रखिये। माना नकाब ओढ़ कर बुकी पहन कर चलते रहने की बात तो हम नहीं कहते रहे। लेकिन सब कुछ लबादों में छिपा कर चलिये जनाब, यह लबादा और चोरी छिपे जीने की आदत ही पहाड़ ले जाती है।
खुले आम कौन जीता है। ऐसे जियोगे तो चेहरा बेनकाब होकर उनके मन में आपके बने आइने तोड़ देगा। हमें तो ज़िन्दगी भर आइनों में एक बिम्ब से दूसरा बिम्ब ओढ़ कर जीने की आदत हो गई है। वैसे इसमें क्या गलत है। घर में चीखने चिल्लाने वाला हमारा एक शेर मर्द जब दफ्तर में बॉस के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है। उसके घुटने कांपने लगते हैं। ‘जी सर जी सर’ कहने लगता है, तो इसमें गलत क्या है? कठिन ज़िन्दगी है। हर मास महंगाई तेरे बखिये उधेड़ती है। खाने के लिए सामने पड़ी थाली महंगी होती जा रही है, आदमी का अक्स आइने में जी सर, जी सर कहता नज़र आता है, तो इसमें भला गलत क्या है? ‘जी नहीं, ज़िन्दा रहने की मजबूरी में जो कहे वही करा। सर कहने को हम गलत नहीं कहते, लेकिन जब यही जी सर इसी विदूषक स्तर पर चला गया कि आदामी के अन्दर में कुछ कहने की हिम्मत नहीं रही। यह जी हजूरी उसे बॉस के हर गलत काम में शामिल करती है। इसका चापलूसी धर्म बताती है। तब समझो आइनों से झांकते चेहरे विकृत होते नज़र आते हैं।’
ऐसा होता। ऊ पर से नीचे तक तंत्र बिगड़ना शुरू हो गया। अब केवल अपने आदमियों के चेहरों की तलाश शुरू हो गई है। बॉस का हर आदेश उनके लिए मन्त्र वाक्य हो गया है, और उसे निबाहना उनका धर्म। अब ये अधिकारी और उनके थपकी ढूंढते कारिन्दे हर गलत को सही बनाने में जुट जाएंगे, और उसी से ऐसे समाज का निर्माण करेंगे, जिसमें सब चलता है। अब ‘जब सब चलता है’ तो लक्ष्य तो एक ही होगा न हथेली पर सरसों उगाना, और पलक झपकते स्थापित हो जाना। कल कोई उंगली न उठाये, इसलिए थोड़ा-सा बड़बोलापन भी सीख लो। हम अपने देश के भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर भी कहा नहीं करेंगे। सो जनाब, घोषणा के साथ देश का कारोबार चल निकलता है। कारोबार चलाने के कई तरीके हैं। पहला यह कि आपके पास विचार करने के लिए जो फाइल आई है, उस पर तब तक विचार करते रहना, जब तक कि उसके नीचे प्रार्थी ने चांदी के पहिये नहीं लगा दिये। पहिये लग जाएं तो असुविधा केन्द्र सुविधा केन्द्र बन जाते हैं, और इसकी खिड़कियों के पीछे कर्मचारियों के बिगड़े हुए सर्वर चलने लगते हैं। आप भी कह देते हैं, लो हमने नौकरशाही की नाक में नकेल डाल ली, और दफ्तरशाही को सबके लिए सहज और सुलभ कर दिया।
क्या बतायें जनाब नौकरशाही के घोड़े पर जीन कसने का तरीका बरसों से चही चला आ रहा है। अब इसे सांस्कृतिक रूप दे दिया गया है। आमजनी में इसे शार्टकट संस्कृति कहा जाता है, और खास ज़बान में मध्यजनों का सम्पर्क सूत्र। इस सम्पर्क सूत्र को इस्तेमाल करते आजकल कोई नहीं चौंकता। न आप न वे। यहां तक कि इसकी अभूतपूर्व कामयाबी को देखते हुए इन मध्यजनों की कारगुज़ारी को उचित ठहराने के लिए बाकायदा एक कानून बनने लगा था। भला हो इन नकड़चों की दुनिया का और लबादे में छिपे मत्ससयों का, कि यह कानून नहीं बन सका। मध्य जनों की दुनिया पर्दे के पीछे छिपे अपने खेल खेलती रही, और हम अपनी विकास दर के तेज़ हो जाने का शोभा गायन करते हुए रसलिल्लाह होते रहे।
देखो, देखते ही देखते हमने पूरी दुनिया अपने पीछे छोड़ दी। हमारे देश की विकास दर दुनिया की सबसे तेज़ विकास दर बन गई। इस चमकीली नकाब को पहन कर आज पूरा देश उत्सव मना रहा है। जी हां, बे लोग भी कि जिनके लिए रियायती दर अनाज बांटने के सच को पांच साल और बढ़ा दिया गया है। बेशक दिलासा बहुत बड़ी बात है और लोगों को भूख से इस देश को विकास के मील पत्थरों को विजय करने की लबादाधारी घोषणा करने में कोई परेशानी न रखो। तब भी लोगों के रोज़ी, रोज़गार, सिर पर छत, मकान मिलने के सपनों के टूटने की आहट को सुनते हैं तो क्यों न इसे व्यर्थ का रोना-धोना कह दें, जिसके विपक्ष ने भड़काया होगा।
आईना झूठ नहीं बोलता। वह आज भी बार-बार हमें दिखाता है कि देख तो इस देश के कर्णधार मोरपंखी घोषणाएं करने में माहिर हो गए। हमें बताते हैं, हमने देश से महंगाई नियंत्रित कर ली। सड़क पर चलते छज्जूराम भी मुंह बिसूर कर कहता है, ‘कहां हुई साहब, हम आज भी हर ज़रूरी वस्तुओं की आकाशछूती गति से आतंकित हैं।’ जवाब मिलता है, ‘बंधु आंकड़े तो देखो, देश का थोक मत सूचकांक तो गिर कर शून्य के गिर्द घूमने लगा। हम माथा पकड़ कर देखते हैं कि थोक ही नहीं, परचून सूचकांक भी सुरक्षित दर से नीचे चलने लगा।’
लेकिन अर्थ शास्त्र के रूखे-सूखे आंकड़े आपको क्यों बतायें? आंकड़ा कहता है बाज़ार सस्ता हो गया। महंगाई का ज़माना अपनी मौत आप मर गया। लोगों को सस्ते कज़र् नहीं मिले, इसलिए मांग नहीं बढ़ी, मुद्रा-स्फीति का जनाज़ा निकल गया। लेकिन यह नकाबपोश बताते हैं,कि जो सफलता के भारी-भरकम लबादा ओढ़े व्यक्ति हमें बताते हैं। वे लोग जिनके चेहरे बेलौस धूप में जल गये हैं, और जो सस्ता अनाज बांटने वाली दुकानों के बाहर असीम धीरज के साथ खड़े हैं, वे तो बरसों से रीते हाथ इन भरे हुए बाज़ारों से लौट रहे हैं। अब ये बाज़ार उन्हें अपने नहीं लगते। उनके हाथ खुले रहते हैं अनुकम्पा संस्थानों के बाहर। हां सफलता के नकाब पहन कर वे इतने दिन उपलब्धि मीनारों के सामने विजय नृत्य करते रहते हैं। तब उन्हें लगता है, इतने बरस लगातार नाचते हुए पांव जैसे थक गये हैं। उन्हें लगता है कि उनके यह थके-टूटे पांव उनके शरीर से अलग हो कर उन भव्य अट्टालिकाओं के शिखर पर विजयारोहण की तरह टंगे लहराने लगे हैं। एक नकाबपोश आदमी ने हमें रोक कर पूछा, कि ‘भैया तुम हमें बता सकते हो, कि हमारी टांगें नाचते-नाचते थक कर विजय-पताकाओं पर क्यों लद जाती हैं।’
जबाब दिया जा सकता था, लेकिन उसके लिए एक चमकीला नकाब पहने आदमी की अभ्यर्थना करनी होगी क्योंकि वह कामयाबी के आंकड़ों का लबादा ओढ़ कर उनके शहर का तारणहार बन चुका है। लेकिन यहां लोगों को नकाब पहन कर लबादा ओढ़ने की आदत नहीं। वह तो केवल अपने हाथों को कुदाल बना कर नये देश की नींव रखते हैं। लेकिन कुदाल उठाने की ज़रूरत ही क्या। आओ तन्मय होकर कर्णधारों का जय-जयकार करें, और कुदाल उठाने के कष्ट से हमेशा के लिए बच जाएं। सदा के लिए। आमीन।